एक भौंरा था । वह घूमते-घूमते कमलमें जा बैठा । सुगन्ध आ रही थी खूब । इधर सूर्य अस्त हो गया तो कमल बन्द हो गया । उसमें भौंरा विचार करता है कि हम बन्द हो गये अब । इसमेंसे निकलें कैसे ? कमलको कैसे काटें ? भौंरा बाँसको काट देता है । बाँसमें छेद कर देता है । उसमें छेद बनाकर बच्चे देता है और भीतर रहता है । आप विचार करो, कमलकी पंखुड़ी काटनेमें उसे जोर आता है क्या ? परन्तु उससे सुगन्ध लेता है तो अब काटे कैसे ? वह भौंरा सोचता है‒
‘रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम् ।’ रात चली जायगी, बड़ा सुन्दर प्रभात हो जायगा । ‘भास्वानुदेष्यति’ सूर्य भगवान् उदय होंगे और ‘हसिष्यति पंकजश्रीः’‒यह कमलकी शोभा खिल जायगी । फिर मर्जी आवे जहाँ बैठें, मर्जी आवे जहाँ जावें । फिर ठीक हो जायगा ।
‘इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे’‒वह बेचारा विचार कर रहा है कि यह हो जायगा, यह हो जायगा । इतनेमें ही हाथी आता है । पानी पीता है, फिर सूँडसे कमलोंको ऐसे लपेटता है । उतनेमें वह तो मर जाता है ।
‘हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार’‒
ऐसे ही मनुष्य कहता है, ऐसे करेंगे, ऐसे करेंगे । क्या करेंगे ? राम नाम सत् है‒यह तो आ ही जायगा ।
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