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कादंबरी की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है।
विदिशा नगरी के राजा थे शुद्रक,जो अत्यंत प्रतापी और कलाविद् थे ।एक दिन प्रातः वे अपनी राज्यसभा में बैठे थे तभी प्रतिहारी ने आदेश प्राप्त कर एक चांडाल कन्या को सभा में प्रवेश कराया । चांडाल कन्या के हाथ में सोने का पिंजरा था ,जिसमें वैशंपायन नाम का शुक था। शुक़ ने अपना दाहिना चरण उठाकर श्लोक द्वारा राजा का अभिवादन किया।
शुक द्वारा राजा शूद्रक के समक्ष कथा का आरंभ - इस शुक के विषय में राजा को महान कौतूहल हुआ और चांडाल कन्या तथा शुक के भोजन एवं विश्राम कर लेने को कहा। शुक ने अपनी कथा सुनाई और बताया कि वह विंध्याटवी में अपने वृद्ध पिता के साथ रहता था ,एक बहेलिए ने अन्य शुकों के साथ उसके पिता का वध कर दिया और नीचे फेक दिया।पिता के पंखों के भीतर छिपकर वह भी नीचे गिरा, किन्तु बच गया।
अपने प्राण बचाने के लिए वह झाड़ियों में छिप गया और बहालिए के जाने के बाद उस मार्ग से जाने वाले ऋषिकुमार हारित उसे दयावश अपने साथ ले कर महर्षि जबिल के आश्रम आये। जाबिल ने अपने शिष्यों को शुक के पूर्व जन्म की कथा कुछ इस प्रकार सुनाई।
जाबिल द्वारा आश्रम के शिष्यों के समक्ष शुक के पूर्वजन्म तथा चंद्रापीड की कथा सुनाना -
उज्जैनी में तारा पीड नाम के राजा थे। उनकी महारानी का नाम विलास्वती था। राजा के महामंत्री का नाम शुकनास और महामंत्री की पत्नी का नाम मनोरमा था।
बहुत दिनों की पूजा अर्चना के बाद राजा तरापीड को पुत्र की प्राप्ति हुई और उसी दिन शूकनास के यहां भी
एक पुत्र ने जन्म लिया ।राजा के पुत्र का नाम चंद्रापी़ड तथा शुखनास के पुत्र का नाम वैशंपायन रखा गया।
दोनों ने साथ साथ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की। चंदरापीड के गुरुकुल से लौटने पर पिता तारापीड ने उसका युवराजयाभिषेक किया। इस अवसर के पूर्व चंद्रापीड मंत्री शुकनास के पास गया और शुकनास ने एक सारगर्भित उपदेश दिया,जो शुकनासोपदेश नाम से प्रसिद्ध है।अभिषेक के बाद चंद्रापीड दिग्विजय यात्रा पर निकला। अनेक राजाओं को परास्त कर वह हिमालय के निकट विश्राम करने के लिए रुका। एक दिन शिकार खेलने के लिए निकलने पर उसने किन्नर
मिथुन को देखा और उत्सुकता वश उनका पीछा करते हुए बहुत दूर निकल गया।किन्नर मिथुन अदृश्य हो गए ,तब जल की खोज में वह अच्छोद सरोवर के पास पहुंचा। वहां जल पीकर अपने अश्व को बांधकर विश्राम करने लगा तभी उसे वीणा की ध्वनि सुनाई पड़ी, जिसकी खोज करते हुए उसने सरोवर के तट पर स्थित शिव के मंदिर में वीणा बजाकर स्तुति करती हुई एक युवती को देखा।उसे देखकर वह चकित हुआ। युवती उसे अपने आश्रम में ले गई और उसने फल आदि से चंद्रापीड का सत्कार किया। चंद्रापीद के आदरपूर्वक प्रश्न करने पर उस युवती ने, जिसका नाम महाश्वेता था, अपनी कथा इस प्रकार सुनाई।
महाश्वेता द्वारा अपनी कथा सुनाना -
महाश्वेता ने बताया कि वह गंधर्व राज हंस तथा गौरी नाम की अप्सरा की पुत्री हैं।एक दिन वह माता के साथ सरोवर पर अाई तो उसे पुष्प की अद्भुत गन्ध मिली तब उसने एक ऋषिकुमार को देखा जिनके कान के ऊपर अद्भुत गन्ध वाला पुष्प था। साक्षात्कार होते ही दोनों एक दूसरे की ओर प्रेम से आकृष्ट हो गए। ऋषिकुमार का नाम पुंडरीक था। उसके साथ उसका मित्र कपिंजल था। महाश्वेता पुंडरीक से पुष्प लेकर अपने भवन चली आयी, किन्तु पुंडरीक उसके विरह में अतिशय संतप्त हो उठे ।कपिंजल ने महाश्वेता से मिलकर आग्रह किया कि अविलंब पुंडरीक से मिलकर उसके प्राणों को बचा लीजिए।रात्रि को जब उपयुक्त समय देखकर महाश्वेता सरोवर के पास पहुंची तब तक पुंडरीक के जीवन का अंत हो चुका था। महाश्वेता पुंडरीक के शरीर से लिपट कर विलाप करने लगी। उसी समय चंद्रमंडल से एक दिव्य पुरुष निकला और पुंडरीक के शव को लेकर आकाश में चला गया। जाते - जाते उसने महाश्वेता से कहा इससे तुम्हारा अवश्य मिलन होगा। तब से महाश्वेता अपने प्रियतम से मिलने की आशा में भगवान शिव की आराधना में लगी हुई है।
कादंबरी की कथा-
रात्रि में विश्राम के समय महाश्वेता ने चंद्रापीड से अपनी सखी कादंबरी के विषय में बताया कि कादंबरी के विषय में बताया कि कादंबरी गंधर्वराज चित्ररथ की पुत्री है और अपने माता-पिता के बार - बार कहने पर भी विवाह के लिए सहमत नहीं हो रही है। दूसरे दिन महाश्वेता चंद्रापीड को साथ लेकर कादम्बरी से मिलने चली गई। वहां चंद्रापीड को साथ लेकर कादंबरी से मिलने गई। वहां चंद्रापीड और कादंबरी में बातें हुई और वे परस्पर प्रगाढ़ प्रेमबंधन में बन्ध गए।
कादंबरी से मिलकर वापस महाश्वेता की कुटी में आने पर चंद्रपीड को अपनी सेना मिली और पिता का पत्र मिला, जिसमें उसे तत्काल राजधानी बुलाया गया था। चंद्रापीड ने अपनी पानवाली पत्रलेखा को कादंबरी के पास भेजा और स्वयं राजधानी की ओर चला गया। कुछ दिन बाद पत्रलेखा जब लौटकर राजधानी पहुंची तो उसने चंद्रापीड से कादंबरी की विरहदशा का वर्णन किया।
चंद्रापीड को उसी समय यह सूचना मिली कि उसका मित्र वैशंपायन जो महामंत्री शुकनास का पुत्र था अच्छोद सरोवर में स्नान करने के बाद वहां से लौटना नहीं चाहता, वह वहीं पागल की तरह कुछ ढूंढ़ रहा है।
चंद्रापीड उसे वापस ले आने के लिए चल पड़ा।जब वह महाश्वेता की कुटी में पहुंचा तो उसे रोते हुए पाया। महाश्वेता ने बताया कि एक ब्राह्मण युवक उसके पास आकर प्रणय निवेदन करने लगा, जिस पर कुपित हो कर उसने उसे शुक बनने का शाप दे दिया। वह शुक बन गया तब उसे पता चला कि वह चंद्रपीड का मित्र वैसंपायन था। अपने मित्र से बिछुरने और कादंबरी से मिलने की संभावना होने की दु:ख में चंद्रापीड भी तत्काल निर्जीव होकर भूमि पर गिर पड़ा। उधर कादंबरी यह सुनकर की चंद्रापीड महाश्वेता की कुटी में आए हैं बड़ी आशा से मिलने के लिए अायी, किन्तु उसे उसका शव ही मिला। परम दु:ख से व्यथित होकर वह सती होने के लिए उद्यत हुई, किन्तु एक आकाशवाणी ने उसे आश्वस्त किया कि उसका चंद्रापीड से मिलन होगा। वह चंद्रापीड के मृत शरीर की रखवाली करने लगी। उसी समय पत्रलेखा चंद्रापीड के अश्व को लेकर सरोवर में कूद गई। कुछ समय बाद सरोवर में से एक ब्राह्मण युवक निकला, जो पुंडरीक का मित्र कपिञ्जल था। उसने महाश्वेता को बताया कि पुंडरीक पृथ्वी पर वैसम्पायन शुक के नाम से उत्पन्न हुआ है और वह भी एक ऋषि के शाप से इंद्रायुध नाम का आश्व बन गया था। उसी ने महाश्वेता से यह भी बताया कि उसने जिसे शुक बन जाने शाप दिया था वो और कोई नहीं पुंडरीक था, तब महाश्वेता छाती पीट-पीट कर रोने लगी। कपिञ्जल ने उसे अश्वासन दिया कि अब उसके दुखों का अंत निकट है और वह स्वयं आकाश में चला गया। अपने पुत्रों के मृत्यु का समाचार जानकर राजा तारापीद, महारानी विलास्वाती और महामंत्री शुकनास
और उनकी पत्नी मनोरमा भी उस स्थान पर आए। तारपीड वहीं तपस्या में लग गए। मूर्छित कादंबरी होश में आई और चंद्रापीड के शरीर की सेवा में लग गई।
शुक का राजा शुद्रक़ से अपने विषय में बताया -
राजा शुद्रक के समीप चांडालकन्या द्वारा लाए गए शुक ने राजा से अपने विषय में आगे की कथा इस प्रकार बताई - महर्षि जाबिल ने जब अपने शिष्यों को मुझसे संबद्ध जा कथा सुनाई उसे मुझे अपना पूर्वजन्म स्मरण हो आया और मुझे यह ज्ञात हो गया कि मैं ही महामंत्री शुकनास का पुत्र वैशंपायन हूं। जब मेरे पंख निकल आए तब मैं अपने मित्र चंद्रापीड को ढूंढने निकला, किन्तु चांडाल द्वारा पकड़ लिया गया।
चांडाल कन्या द्वारा कथा को पूरी करना -
इसके बाद चांडाल कन्या ने राजा को बताया कि राजा को बताया कि राजा शुद्रक ही चंद्रापीड है। वह स्वयं लक्ष्मी है और वैशंपायन उसका पुत्र है। राजा शुद्रक को अपना पूर्व जन्म याद हो आया। उधर महाश्वेता की कुटी में वसंत छा गया और कादंबरी ने जैसे ही चंद्रापीड के शरीर का आलिंगन किया वह ऐसे जीवित हो उठा जैसे नींद से जागा हो। उसी समय शूद्रक ने भी अपना शरीर त्याग दिया। महाश्वेता की कुटी में कुछ ही क्षण में पुंडरीक अपने मुनिकुमार वाले रूप में प्रकट हुआ और उसका महाश्वेता से मिलन हो गया। सर्वत्र आनंद छा गया।
इस प्रकार इस कथा का नायक है चंद्रापीड और नायिका है कादंबरी। सहनायक और सहनायिका हैं - पुंडरीक और महाश्वेता। यह तीन जन्मों को मिली जुली कहानी है,जिसका अधिकांश भाग शुक द्वारा महर्षि ज़ाबिल की कथा के अनुसार शुद्रक से कहा जाता है।
कादंबरी के आरंभ में बाण ने बीस पद्यों में मंगलाचरण सज्जन की प्रशंसा और दुर्जन की निन्दा, अपने वंश के पूर्वजों का आलंकारिक एवं मनोरम वर्णन, तथा कथा के गुणों का उल्लेख किया है। चंद्रापीड की तांबूल करक वाहिनी पत्रलेखा, जो चंद्रापीड के चले आने पर भी कादंबरी के पास रह गई थी, लौटकर चंद्रापीड की राजधानी आती है इस वर्णन के साथ ही कादंबरी कथा का पूर्वभाग समाप्त होता है।
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