मंगलवार, 29 नवंबर 2022

मातृशक्ति का तिरस्कार


संस्कृतवाङ्गमयः





वर्तमानमें नारी-जातिका महान् तिरस्कार, घोर अपमान किया जा रहा है। नारीके महान् मातृरूपको नष्ट करके उसको मात्र भोग्या स्त्रीका रूप दिया जा रहा है। भोग्या स्त्री तो वेश्या होती है। जितना आदर माता (मातृशक्ति) का है, उतना आदर स्त्री (भोग्या) का नहीं है। परंतु जो स्त्रीकोे भोग्या मानते हैं, स्त्रीके गुलाम हैं, वे भोगी पुरुष इस बातको क्या समझें? समझ ही नहीं सकते। विवाह माता बननेके लिये किया जाता है, भोग्या बननेके लिये नहीं। सन्तान पैदा करनेके लिये ही पिता कन्यादान करता है और संतान पैदा करने (वंशवृद्धि) के लिये ही वरपक्ष कन्यादान स्वीकार करता है। परंतु आज नारीको माँ बननेसे रोका जा रहा है और उसको केवल भोग्या बनाया जा रहा है। यह नारी-जातिका कितना महान् तिरस्कार है!


नारी वास्तवमें मातृशक्ति है। वह स्त्री और पुरुष—दोनोंकी जननी है। वह पत्नी तो केवल पुरुषकी ही बनती है, पर माँ पुरुषकी भी बनती है और स्त्रीकी भी। पुरुष अच्छा होता है तो उसकी केवल अपने ही कुलमें महिमा होती है, पर स्त्री अच्छी होती है तो उसकी पीहर और ससुराल—दोनों कुलोंमें महिमा होती है। राजा जनकजी सीताजीसे कहते हैं—‘पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ’ (मानस, अयोध्या० २८७।१)


आजकल विवाहसे पहले कन्याके स्वभाव, सहिष्णुता, आस्तिकता, धार्मिकता, कार्य-कुशलता आदि गुणोंको न देखकर शारीरिक सुन्दरताको ही देखा जाता है। कन्याकी परीक्षा परिणामकी दृष्टिसे न करके तात्कालिक भोगकी दृष्टिसे की जाती है। यह विचार नहीं करते कि अच्छा स्वभाव तो सदा साथ रहेगा, पर सुन्दरता कितने दिनतक टिकेगी?* भोगी व्यक्तिको संसारकी सब स्त्रियाँ मिल जायँ, तो भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता—


यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशव: स्त्रिय:।

न दुह्यन्ति मन:प्रीतिं पुंस: कामहतस्य ते॥


(श्रीमद्भा० ९।१९।१३)


‘पृथ्वीपर जितने भी धान्य, स्वर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जो कामनाओंके प्रहारसे जर्जर हो रहा है।’


* द्रौपदीके अत्यन्त सुन्दर होनेके कारण ही जयद्रथ, कीचक और अठारह अक्षौहिणी सेना मारी गयी। इसलिये कहा गया है—


ऋणकर्ता पिता शत्रु: माता च व्यभिचारिणी।

भार्या रूपवती शत्रु: पुत्र: शत्रुरपण्डित:॥


(चाणक्यनीति० ६।१०)


‘कर्जदार पिता, व्यभिचारिणी माता, सुन्दर पत्नी और मूर्ख पुत्र—ये चारों शत्रुकी तरह (दु:ख देनेवाले) हैं।’


ऐसे भोगी व्यक्ति ही नसबंदी, गर्भपात आदि महापाप करते हैं। विवाह वंशवृद्धिके लिये किया जाता है। यदि कन्या सद्गुणी-सदाचारी होगी तो विवाहके बाद उसकी सन्तान भी सद्गुणी-सदाचारी होगी; क्योंकि प्राय: माँका ही स्वभाव सन्तानमें आता है। एक मारवाड़ी कहावत है—‘नर नानाणे जाये है’ अर्थात् मनुष्यका स्वभाव उसके ननिहालपर जाता है। ‘माँ पर पूत, पिता पर घोड़ा। बहुत नहीं तो थोड़ा थोड़ा।’


कन्याका दान देनेमें भी उसका आदर है, तिरस्कार नहीं। यह दूसरे दानकी तरह नहीं है। दूसरे दानमें तो दान दी हुई वस्तुपर दाताका अधिकार नहीं रहता, पर कन्यासे संतान पैदा होनेके बाद माता-पिताका कन्यापर अधिकार हो जाता है और वे आवश्यकता पड़नेपर उसके घरका अन्न-जल ले सकते हैं। कारण कि कन्याके पतिने केवल पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये ही कन्या स्वीकार की है और उससे संतान पैदा होनेपर वह पितृऋणसे मुक्त हो जाता है। इसलिये गोत्र दूसरा होनेपर भी दौहित्र अपने नाना-नानीका श्राद्ध-तर्पण करता है, जो कि लोकमें और शास्त्रमें प्रसिद्ध है।


हमारे शास्त्रोंमें नारी-जातिको बहुत आदर दिया गया है। स्त्रीकी रक्षा करनेके उद्देश्यसे शास्त्रने उसको पिता, पति अथवा पुत्रके आश्रित रहनेकी आज्ञा दी है, जिससे वह जगह-जगह ठोकरें न खाती फिरे, वेश्या न बन जाय*। स्त्री नौकरी करे तो यह उसका तिरस्कार है। उसकी महिमा तो घरमें रहनेसे ही है। घरमें वह महारानी है, पर घरसे बाहर वह नौकरानी है। घरमें तो वह एक पुरुषके अधीन रहेगी पर बाहर उसको अनेक स्त्री-पुरुषोंके अधीन रहना पड़ेगा, अपनेसे ऊँचे पदवाले अफसरोंकी अधीनता, फटकार, तिरस्कार सहन करना पड़ेगा, जो कि उसके कोमल हृदय, स्वभावके विरुद्ध है। वह आदरके योग्य है, तिरस्कारके योग्य नहीं है। पिता, पति अथवा पुत्रकी अधीनता वास्तवमें स्त्रीको पराधीन बनानेके लिये नहीं है, प्रत्युत महान् स्वाधीन बनानेके लिये हैं। घरमें बूढ़ी ‘माँ’ का सबसे अधिक आदर होता है, बेटे-पोते आदि सब उसका आदर करते हैं, पर घरसे बाहर बूढ़ी ‘स्त्री’ का सब जगह तिरस्कार होता है।


* भ्रमन्संपूज्यते राजा भ्रमन्संपूज्यते द्विज:।

भ्रमन्संपूज्यते योगी भ्रमन्ती स्त्री विनश्यति॥


(चाणक्यनीति० ६।४)


‘भ्रमण करनेसे राजा पूजित होता है, भ्रमण करनेसे ब्राह्मण पूजित होता है, भ्रमण करनेसे योगी पूजित होता है; परन्तु स्त्री भ्रमण करनेसे विनष्ट हो जाती है अर्थात् उसका पतन हो जाता है।’


स्त्री बाहरका काम ठीक नहीं कर सकती और पुरुष घरका काम ठीक नहीं कर सकता। स्त्री नौकरी करती है तो वहाँ भी वह स्वेटरें बुनती है—घरका काम करती है! पुरुष शेखी बघारते हैं कि स्त्रियाँ घरमें क्या काम करती हैं, काम तो हम करते हैं, पैसा हम कमाते हैं! अगर पुरुष घरमें एक दिन भी रसोईका काम करे और बच्चेको गोदीमें रखे तो पता लग जायगा कि स्त्रियाँ क्या काम करती हैं! अगर स्त्री मर जाय तो बच्चोंको सास, नानी या बहन-बूआके पास भेज देते हैं; क्योंकि पुरुष उनका पालन नहीं कर सकते। परंतु पति मर जाय तो स्त्री कष्ट सहकर भी बच्चोंका पालन कर लेती है, उनको पढ़ा-लिखाकर योग्य बना देती है। कारण कि स्त्री मातृशक्ति है, उसमें पालन करनेकी योग्यता है। मैंने छोटे लड़के-लड़कियोंको देखा है। लड़कीको कोई चीज मिल जाय तो वह उसको जेबमें रख लेती है कि अपने छोटे बहन-भाइयोंको दूँगी, पर लड़केको कोई चीज मिले तो वह खा लेता है। कोई साधु, दरिद्र, भूखा आदमी बैठा हो तो कई पुरुष पाससे निकल जायँगे, उनके मनमें खिलानेका भाव आयेगा ही नहीं। परंतु स्त्रियाँ पूछ लेंगी कि बाबाजी, कुछ खाओगे? कारण कि स्त्रियोंमें दया है। उनको बालकोंका पालन-पोषण करना है, इसलिये भगवान् ने उनको ऐसा हृदय दिया है।


आजकल स्त्रियोंको पुरुषके समान अधिकार देनेकी बात कही जाती है, पर शास्त्रोंने माताके रूपमें स्त्रीको पुरुषकी अपेक्षा भी विशेष अधिकार दिया है—


सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥


(मनु० २।१४५)


‘माताका दर्जा पितासे हजार गुना अधिक माना गया है।’


सर्ववन्द्येन यतिना प्रसूर्वन्द्या प्रयत्नत:॥


(स्कन्दपुराण, काशी० ११।५०)


‘सबके द्वारा वन्दनीय संन्यासीको भी माताकी प्रयत्नपूर्वक वन्दना करनी चाहिये।’


वर्तमानमें गर्भ-परीक्षण किया जाता है और गर्भमें कन्या हो तो गर्भ गिरा दिया जाता है, क्या यह स्त्रीको समान अधिकार दिया जा रहा है?


‘माँ’ शब्द कहनेसे जो भाव पैदा होता है, वैसा भाव ‘स्त्री’ कहनेसे नहीं पैदा होता। इसलिये श्रीशंकराचार्यजी महाराज भगवान् श्रीकृष्णको भी ‘माँ’ कहकर पुकारते हैं—‘मात: कृष्णाभिधाने’ (प्रबोध० २४४)। उपनिषदोंमें ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ कहकर सबसे पहले माँकी सेवा करनेकी आज्ञा दी गयी है। ‘वन्दे मातरम्’ में भी माँकी ही वन्दना की गयी है। हिन्दूधर्ममें मातृशक्तिकी उपासनाका विशेष महत्त्व है। ईश्वरकोटिके पाँच देवताओंमें भी मातृशक्ति (भगवती) का स्थान है। देवीभागवत, दुर्गासप्तशती आदि अनेक ग्रन्थ मातृशक्तिपर ही रचे गये हैं। जगत् की सम्पूर्ण स्त्रियोंको मातृशक्तिका ही रूप माना गया है—


विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा:

स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।


(दुर्गासप्तशती ११।६)


परंतु भोगीलोग मातृशक्तिको क्या समझें? समझ ही नहीं सकते। वे तो उसको भोग्या ही समझते हैं।


शास्त्रोंमें स्त्रियोंको पुनर्विवाह न करके विधवाधर्मका पालन करनेके लिये कहा है तो यह उनका आदर है, तिरस्कार नहीं। धर्म-पालनके लिये कष्ट सहना तिरस्कार नहीं है, प्रत्युत तितिक्षा, तपस्या है। तितिक्षु, तपस्वी व्यक्तिका समाजमें बड़ा आदर होता है। पुरुष स्त्रीका तिरस्कार करे, उसको दु:ख दे, उसको तलाक दे, उसको मारे-पीटे—ऐसा शास्त्रोंमें कहीं नहीं कहा गया है। इतना ही नहीं, स्त्रीसे कोई बड़ा अपराध भी हो जाय, तो भी उसको मारने-पीटनेका विधान नहीं है, प्रत्युत वह क्षम्य है।


भीष्मजी कौरव-सेनाकी रक्षा करनेवाले थे—‘अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्’ (गीता १।१०); परंतु दुर्योधन उनकी भी रक्षा करनेके लिये अपनी सेनाको आदेश देता है—‘भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि’ (गीता १।११)। कारणकी दुर्योधन जानता था कि शिखण्डीके सामने आनेपर भीष्मजी उसपर कभी शस्त्र नहीं चलायेंगे, भले ही अपने प्राण चले जायँ! शिखण्डी पहले स्त्री था, वर्तमानमें नहीं; परन्तु वर्तमानमें पुरुषरूपसे होनेपर भी भीष्मजी उसको स्त्री ही मानते हैं और उसपर शस्त्र नहीं चलाते, प्रत्युत मरना स्वीकार कर लेते हैं—यह स्त्री-जातिका कितना सम्मान है।


थोड़े वर्ष पहलेकी बात है। एक बार जोधपुरके राजा सर उम्मेदसिंहजी और बीकानेरके राजा सर शार्दूल-सिंहजी शिकारके लिये जंगल गये। वहाँ शार्दूलसिंहजीकी गोली पैरमें लगनेसे एक सिंहनी घायल हो गयी। घायल होकर वह गुर्राती हुई उनकी तरफ आयी तो उम्मेदसिंहजीने कहा—‘हीरा! यह क्या किया? यह तो मादा है!’ पता लगनेपर उन्होंने पुन: उसपर गोली नहीं चलायी और खुद चेष्टा करके उससे अपना बचाव किया। यह नारी-जातिका कितना सम्मान है!


शास्त्रोंने पुरुषोंके लिये तो सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र, यज्ञ, वेदपाठ आदि कई कर्तव्य-कर्म बताये हैं, पर स्त्रियोंके उन सब कर्तव्य-कर्मोंसे, पितृऋण आदि ऋणोंसे मुक्त रखा है* और उसको पतिके आधे पुण्यका भागीदार बनाया है। परंतु शास्त्रको न जाननेवाले इस विषयको क्या समझें? आज स्त्रियोंको उनके कर्तव्यसे विमुख करके अनेक झंझटोंमें फँसाया जा रहा है। शास्त्रोंने केवल पुरुषको ही यज्ञोपवीत धारण करके सन्ध्योपासना आदि विशेष कर्मोंको करनेकी आज्ञा दी है। परंतु आज स्त्रीको यज्ञोपवीत देकर उसको उलटे आफतमें डाला जा रहा है! क्या यह बुद्धिमानीकी बात है? पत्नी पतिके द्वारा किये गये पुण्यकर्मोंकी भागीदार तो होती है, पर पाप-कर्मोंकी भागीदार नहीं होती। उसको मुफ्तमें आधा पुण्य मिलता है। समाजमें भी देखा जाता है कि अगर डॉक्टर, पण्डित आदिकी पत्नी अनपढ़ हो तो भी डॉक्टरनी, पण्डितानी आदि कहलाती है! वास्तवमें आज अभिमानको मुख्यता दी जा रही है, इसलिये नम्रता बढ़ानेकी बात न कहकर अभिमान बढ़ानेकी बात ही कही और सिखायी जा रही है, जो कि पतनका हेतु है। ‘पुरुष ऐसा करते हैं तो हम क्यों न करें? हम पीछे क्यों रहें?’—यह केवल अभिमान बढ़ानेकी बात है। अभिमान जन्म-मरणका मूल और अनेक प्रकारके क्लेशों तथा समस्त शोकोंको देनेवाला है—


संसृत मूल सूलप्रद नाना।

सकल सोक दायक अभिमाना॥


(मानस, उत्तर० ७४।३)


* वैवाहिको विधि: स्त्रीणां संस्कारो वैदिक: स्मृत:।

पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया॥


(मनु० २।६७)


‘स्त्रियोंके लिये वैवाहिक विधिका पालन ही वैदिक संस्कार (यज्ञोपवीत), पतिकी सेवा ही गुरुकुलवास (वेदाध्ययन) और गृहकार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है।’


एकइ धर्म एक ब्रत नेमा।

कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥


(मानस, अरण्य० ५।५)


अभिमानी व्यक्ति शास्त्रोंकी बातोंको क्या समझेगा? समझ ही नहीं सकता।


संसारके हितके लिये मातृशक्तिने बहुत काम किया है। रक्तबीज आदि राक्षसोंका संहार भी मातृशक्तिने ही किया है। मातृशक्तिने ही हमारी हिन्दू-संस्कृतिकी रक्षा की है। आज भी प्रत्यक्ष देखनेमें आता है कि हमारे व्रत-त्योहार, रीति-रिवाज, माता-पिताके श्राद्ध आदिकी जानकारी जितनी स्त्रियोंको रहती है, उनती पुरुषोंको नहीं रहती। पुरुष अपने कुलकी बात भी भूल जाते हैं, पर स्त्रियाँ दूसरे कुलकी होनेपर भी उनको बताती हैं कि अमुक दिन आपकी माता या पिताका श्राद्ध है, आदि। मन्दिरोंमें, कथा-कीर्तनमें, सत्संगमें जितनी स्त्रियाँ जाती हैं, उतने पुरुष नहीं जाते। कार्तिक-स्नान, व्रत, दान, पूजन, रामायण आदिका पाठ जितना स्त्रियाँ करती हैं, उतना पुरुष नहीं करते। तात्पर्य है कि स्त्रियाँ हमारी संस्कृतिकी रक्षा करनेवाली हैं। अगर उनका चरित्र नष्ट हो जायगा तो संस्कृतिकी रक्षा कैसे होगी? एक श्लोक आता है—


असंतुष्टा द्विजा नष्टा: संतुष्टाश्च महीभुज:।

सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलाङ्गना:॥


(चाणक्यननीति० ८।१८)


‘संतोषहीन ब्राह्मण नष्ट हो जाता है, संतोषी राजा नष्ट हो जाता है, लज्जावती वेश्या नष्ट हो जाती है और लज्जाहीन कुलवधू नष्ट हो जाती है अर्थात् उसका पतन हो जाता है।’


वर्तमानमें संतति-निरोधके कृत्रिम उपायोंके प्रचार-प्रसारसे स्त्रियोंमें लज्जा, शील, सतीत्व, सच्चरित्रता, सदाचरण आदिका नाश हो रहा है। परिणामस्वरूप स्त्री-जाति केवल भोग्य वस्तु बनती जा रही है। यदि स्त्री-जातिका चरित्र भ्रष्ट हो जायगा तो देशकी क्या दशा होगी? आगे आनेवाली पीढ़ी अपने प्रथम गुरु माँसे क्या शिक्षा लेगी? स्त्री बिगड़ेगी तो उससे पैदा होनेवाले बेटी-बेटा (स्त्री-पुरुष) दोनों बिगड़ेंगे। अगर स्त्री ठीक रहेगी तो पुरुषके बिगड़नेपर भी संतान नहीं बिगड़ेगी। अत: स्त्रियोंके चरित्र, शील, लज्जा आदिकी रक्षा करना और उनको अपमानित, तिरस्कृत न होने देना मनुष्यमात्रका कर्तव्य है।




(((( माता शबरी की कथा ))))

 .                 







            बात भगवान राम के जन्म से पहले की है, जब भील आदिवासी कबीले के मुखिया अज के घर बेटी पैदा हुई थी। उसका एक नाम श्रमणा और दूसरा नाम शबरी रखा गया। शबरी की मां इन्दुमति उसे खूब प्यार करती थी। 

बचपन से ही शबरी पशु-पक्षियों की भाषा समझकर उनसे बातें करती और जब सबरी की मां उसे देखती, तो कुछ समझ नहीं पाती थी।

कुछ समय बाद एक पंडित ने शबरी के परिवार को बताया कि वो आगे चलकर संन्यासी बन सकती है। 

इस बात का पता चलते ही शबरी के पिता ने उसका रिश्ता तय कर दिया। 

जैसे ही शादी का दिन नजदीक आया, शबरी के घर वालों ने खूब सारी बकरियां और अन्य जानवर घर के पास लाकर बांध दिए।

एक दिन शबरी का मां जब उसके बाल बना रही थी, तो उसने मां से पूछा, “इतने सारे जानवर हमारे घर क्यों लाए गए हैं।”

मां ने जवाब दिया, ‘बेटी, तुम्हारा विवाह होने वाला है, इसलिए हम लोगों ने इनका इंतजाम बलि के लिए किया है। 

तुम्हारी शादी के दिन ही बलि प्रथा होगी और फिर इनसे स्वादिष्ट भोजन बनाकर सबको परोसा जाएगा।’ 

यह सब सुनकर शबरी दुखी हो गई। काफी देर तक शबरी ने उन जानवरों को आजाद करने के बारे में सोचा।

सोचते-सोचते शबरी के मन में हुआ कि अगर ये जानवर यहां नहीं होंगे, तो इनकी बलि रूक सकती है। ऐसा नहीं हुआ, तो मेरे घर से कहीं चले जाने पर ही यह बलि रुकेगी। 

जब मैं ही नहीं रहूंगी, तब न विवाह होगा और न ही बलि प्रथा। इससे मासूम जानवर बच जाएंगे।

इसी सोच के साथ जानवरों को रखी गई जगह पर सबरी पहुंची। उसने सोचा कि उन्हें खोल देती हूं, लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाई। 

उसके बाद शबरी जंगल की तरफ भागने लगी। भागते-भागते शबरी ऋषिमुख पर्वत पहुंच गई। 

वहां करीब दस हजार ऋषि रहा करते थे। शबरी को लगा कि वो भी इसी जंगल में किसी तरह ऋषि-मुनियों की सेवा करके अपना जीवन जी लेगी।

वो चुपचाप उसी जंगल में एक हिस्से में किसी तरह से रहने लगी। शबरी रोजाना ऋषि-मुनियों की झोपड़ी के आगे झाड़ु लगाती और हवन के लिए लकड़ियां भी लाकर रख देती। 

ऋषि-मुनियों को समझ नहीं आ रहा था कि जंगल में उनके काम अपने आप कैसे हो रहे हैं।

एक दिन शबरी को किसी ऋषि ने देख लिया। उसे देखते ही उसका परिचय पूछा। 

जैसे ही शबरी ने बताया कि वो भील आदिवासी परिवार से संबंध रखती है, तो उसे ऋषियों ने खूब डांट लगाई। 

शबरी को इस बात का बिल्कुल भी पता नहीं था कि उसकी जाति छोटी है और उसे ऋषियों द्वारा जाति की वजह अपमान सहन करना पड़ेगा।

इतना सब होने के बाद भी शबरी हर ऋषि-मुनि के दरवाजे पहुंचती और उनके आंगन में झाड़ू लगाकर उनसे गुरु दीक्षा देने के लिए कहती। 

हर कोई शबरी को उसकी जाति की वजह से अपने आश्रम से भगा देता था। ऐसा होते-होते काफी समय बीत गया। उसके बाद शबरी मतंग ऋषि की कुटिया में पहुंची।

वहां पहुंचकर मतंग ऋषि को सबरी ने बताया कि वो उनसे गुरु दीक्षा लेना चाहती है। 

उन्होंने खुशी-खुशी उसे अपने गुरुकुल में रहने दिया और भगवान से जुड़ा ज्ञान देते रहे। शबरी ने भी अपने गुरु मतंग ऋषि की सेवा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 

वो गुरुकुल के भी सारे काम करती थी। शबरी से खुश होकर मतंग ऋषि ने उसे बेटी मान लिया था।

समय के साथ मतंग ऋषि का शरीर बूढ़ा हो गया। उन्होंने एक दिन शबरी को अपने पास बुलाया और कहा, ‘बेटी मैं अपना देह त्यागना चाह रहा हूं। बहुत साल हो गए इस शरीर में रहते-रहते।’

शबरी ने दुखी मन से कहा, ‘आपके ही सहारे मैं इस जंगल में रह पाई हूं। आप ही चले जाएंगे, तो मैं जीकर क्या करुंगी। आप अपने संग मुझे भी ले जाइए। मैं भी देह त्याग दूंगी।’

मतंग ऋषि ने जवाब दिया, ‘बेटी, तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। राम तुम्हारी चिंता करेंगे और ध्यान भी रखेंगे।’

शबरी ने ‘राम’ का नाम सुनने के बाद पूछा, ‘वो कौन हैं और उन्हें मैं किस तरह से ढूढूंगी।’

मंतग ऋषि ने बताया, ‘राम कोई और नहीं भगवान हैं। वो तुम्हें सारे अच्छे कर्मों का फल देंगे। तुम्हें उन्हें ढूंढने की कोई जरूरत नहीं है। 

वो एक दिन खुद तुम्हें खोजते हुए इस कुटिया में आएंगे और तु्म्हें उनके हाथों ही मोक्ष मिलेगा। तब तक तुम इसी आश्रम में रहो।’ 

इतना कहते ही मंतग ऋषि ने अपना शरीर त्याग दिया।

शबरी के मन में मंतग ऋषि के जाने के बाद से एक ही बात थी कि भगवान राम स्वयं उससे मिलने आएंगे। 

वो रोज भगवान राम से मिलने के लिए बाग से अच्छे-अच्छे फूल लाकर पूरा आश्रम सजाती और भगवान के लिए बेर तोड़कर लाती। 

भगवान के लिए बेर चुनते हुए शबरी उन्हें चख लेती थी, ताकि भगवान वो सिर्फ मीठे बेर ही दे।

रोजाना शबरी इसी तरह भगवान के दर्शन की आस में फूल और बेर इकट्ठा करती रहती थी। 

इसी तरह इंतजार में कई साल बीत गए। शबरी का शरीर एकदम वृद्ध हो गया।

एक दिन आश्रम के पास के ही तलाब में शबरी पानी लेने के लिए गई। तभी पास के ही एक ऋषि ने उसे अछूत कहते हुए वहां से भागने के लिए कहा और एक पत्थर मार दिया। 

वो पत्थर जब शबरी को लगा, तो उसे चोट लगी और खून बहने लगा।

बहते हुए खून की एक बूंद उसी तलाब के पानी में गिर गई। तभी पूरा तालाब का पानी खून में बदल गया।

ये सब होता देखकर ऋषि ने शबरी को ही डांटा और कहा कि पापीन तुम्हारी वजह से पूरा पानी खराब हो गया। 

रोज ऋषि उस पानी को साफ करने के लिए अपनी कई तरह की विद्याओं का इस्तेमाल करते। 

कई सारे जतन करने के बाद भी कुछ नहीं हुआ। फिर उन्होंने गंगा जैसी कई पवित्र नदियों का जल भी उस तालाब में डाला। 

फिर भी तालाब का पानी साफ नहीं हो पाया और वो खून जैसा ही रहा।

कई सालों तक तालाब के पानी को साफ करने की कोशिश के बाद भी कुछ काम नहीं आया, तो ऋषि ने थककर सबकुछ छोड़ दिया। 

इस घटना के कई सालों के बाद भगवान राम अपनी पत्नी सीता के हरण के बाद उन्हें ढूंढते हुए उसी तालाब के पास पहुंचे। 

ऋषि-मुनियों ने उन्हें पहचान लिया। भगवान को वहां देखकर ऋषियों ने तालाब का पानी साफ करने के लिए भगवान को अपने पैर उसमें डालने के लिए कहा, लेकिन पानी जैसे का तैसा ही था।

ऋषि-मुनियों ने भगवान से भी कई अन्य जतन करवाए, लेकिन वो पानी जस का तस खून जैसा ही रहा। 

तब भगवान ने ऋषियों से पानी के रक्त में बदलने की कहानी पूछी। 

तब ऋषि ने शबरी को पत्थर मारने वाली सारी बात बता दी। उसके बाद कहा कि वो महिला ही अपवित्र है, छोटी जात की है, इसलिए ये सब हुआ है।

उसी वक्त भगवान राम ने कहा, ‘ये सब आप लोगों के खराब वचनों से हुआ है। शबरी को इस तरह के शब्द बोलकर आप लोगों ने उसे नहीं, बल्कि मेरे दिल को घायल किया है। 

इसी घायल दिल के रक्त का प्रतीक यह तालाब का लाल पानी है।’ 

आगे भगवान राम बोले, ‘कहा हैं वो माईं मैं उनसे मिलना चाहता हूं।’ तबतक शबरी उसी तलाब के पास पहुंच जाती हैं। इस दौरान शबरी के पैर को ठोकर लगती है और कुछ घूल उस तालाब में गिर जाती है। तभी सारा पानी साफ हो जाता है।

भगवान सबसे कहते हैं कि देखिए, आप लोगों ने क्या कुछ नहीं किया, लेकिन पानी साफ नहीं हो पाया। 

अभी सिर्फ इनके पैर की थोड़ी-सी धूल ने ही तलाब का पानी साफ कर दिया। 

भगवान राम को शबरी पहचान चुकी थीं। उन्हें प्रणाम करके शबरी ने कहा, ‘भगवान! आप मेरे साथ कुटिया में चलिए।’ भगवान भी खुशी-खुशी शबरी के साथ चल पड़े।

फूलों से शबरी ने भगवान राम का स्वागत किया। वो सीधे बेर तोड़ने के लिए बाग गईं और चख-चखकर उनके लिए बेर लेकर आई। 

उन्होंने बड़े ही प्यार से भगवान राम और उनके भाई लक्ष्मण को बेर दिए। भगवान राम ने भी उतने ही प्यार से उन बेर को खाना शुरू किया।

तभी बेर देखकर मुंह बनाते हुए लक्ष्मण ने कहा, ‘भैया ये बेर जूठे हैं, इन्हें आप कैसे खा सकते हैं।’

भगवान ने जवाब दिया. ‘लक्ष्मण! ये जूठे नहीं, बल्कि बहुत मीठे हैं। शबरी माई हम सबके लिए ये बहुत प्यार से तोड़कर लाई हैं।’

इतना कहकर भगवान राम प्यार से उन बेर को खाने लगे। भगवान ने जाते हुए शबरी माई से कहा, ‘आप मुझसे जो चाहे वो मांग सकती हैं।’

शबरी ने उन्हें कहा, ‘मतंग ऋषि के कहने पर मैं आजतक सिर्फ आपके दर्शन करने के लिए जी रही थी। अब आप मुझे मोक्ष प्रदान कीजिए। मैं अपना शरीर आपके सामने ही त्यागूंगी।’

उसी वक्त शबरी ने अपना शरीर त्याग दिया। भगवान राम ने अपने हाथों से उनका अंतिम संस्कार किया और सीता मां की खोज में आगे बढ़ गए।

इस तरह से ऋषि मतंग की बात सच साबित हुई और शबरी को भगवान राम के दर्शन भी हुए। तभी से भगवान राम को शबरी के राम भी कहा जाने लगा।

कहानी से सीख –  सच्ची श्रद्धा हो, तो भगवान के दर्शन जरूर होते हैं।

                                ।।  यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवती तीदृशी ।।

रविवार, 27 नवंबर 2022




  "चरितं रघुनाथस्य   

              शतकोटि प्रविस्तरं, 

     एकेकमक्षरं पुंषा 

         महापातक नाशनम।।"






  "चरितं रघुनाथस्य   

              शतकोटि प्रविस्तरं, 

     एकेकमक्षरं पुंषा 

         महापातक नाशनम।।"

छोटी मोटी बीमारियों के इलाज

 आज मानव समाज छोटी मोटी बीमारियों के इलाज में बहुत धन  खर्च करता है । कमाई का बड़ा भाग बीमारियों में खर्च करना पड़ता है।  

इलाज महंगा और एलोपथिक चिकित्सा में रोग निवारण में साइड इफ़ेक्ट बहुधा देखा गया है।

यदि थोड़ी से हर्बल वनस्पतियों का ज्ञान हो जाये तो तीन चौथाई मरीज घर मे ही ठीक हो जाएंगी और केवल गंभीर बीमारियों के लिए ही अस्पतालों की ओर जाना पड़ेगा। 

केजरीवाल के मोहल्ला क्लीनिक की भी जरूरत नही होगी । योग्य चिकित्सको की कमी के कारण मुहल्ला क्लीनिक की अवधारणा केवल दिखावा ही है। 

आज के रोगों जिसमे वायरस जनित रोग है का एलोपैथी में कोई इलाज ही नही है। 

हर पैथी का अपना उपयोग निश्चित है किंतु आयुर्वेद तो सदा बहार है और गरीबो के लिए सर्वथा उपयोगी ।

कुछ बीमारी और उनका हर्बल उपचार ।

1. मलेरिया , चिकनगुनिया , डेंगू 

चिकनगुनिया और डेंगू , वायरस जनित रोग है जिसके लिए एल्लोपथी में कोई दवा है ही नही ।

लेकिन एन्टी वायरस वाली हर्ब्स बहुत उपयोगी है।

मलेरिया का बुखार चाहे फेलसिपेराम ही क्यों न हो अकेले कालमेघ अर्थात कडू चिरायता का काढ़ा सुबह शाम पीने से शीघ्र बुखार ठीक हो जाता है। बुखार केवल दो दिन में उतर जाएगा किन्तु कम से कम 15 दिन इसे पिये। 

25 से 30 ग्राम कडू चिरायता को एक लीटर पानी मे उबाले जब एक चौथाई होने पर छान कर रख ले । फिर 20 ml अर्थात आधा कप काढ़ा सुबह शाम पिये।

चिकनगुनिया के लिए भी यही काढ़ा उपयुक्त उपचार है। 

डेंगू के लिए - 

कालमेघ , गिलोय का चूर्ण 50 ग्राम और पारिजात की 20 पत्तियां कूचकर 1 लीटर पानी मे डालकर उबालना है और एक चौथाई होने पर छान लें । फिर आधा कप , सुबह शाम पीना है । सात दिन में ठीक हो जाता है फिर भी 15 दिन पिये ।

कितना सरल उपाय है खर्च 25 रुपये से भी कम यदि घर मे ये तीनो पौधे लगा ले तो कोई खर्च नही । 

गरीब जनता के लिए बहुत आवश्यक है। 

2. करोना 

जिसने सम्पूर्ण  विश्व को झकझोर दिया । 

हमने देखा है और प्रयोग किया है ।

इसके लिए कालमेघ और गिलोय का काढ़ा आधा आधा कप सुबह शाम पिये ।

त्रिकुट एक चुटकी  तथा शहद  के साथ सुबह शाम चाटे एक हफ्ते। 

बरगद का दूध एक चम्मच , दो  चम्मच सादे दूध के साथ सुबह शाम ले सात दिन तो कैसा भी फेफड़ों में संक्रमण हो ठीक हो जाता है। 

बरगद के विशाल पेंड हर मुहल्ले में है। 

बरगद का दूध सुबह शाम ऊपर अनुसार लेने से दो दिन में फेफड़ो का संक्रमण ठीक हो जाता है और बाहर से ऑक्सीजन की जरूरत ही नही पड़ेगी । 

कितना सरल , सुलभ उपाय है। यह वायरस के विरुद्ध बहुत प्रभावी है। 

3. पीलिया या जोंडिस 

इसके लिए कालमेघ का काढ़ा सुबह शाम पिये ।

भुई आंवला के पौधे की चटनी पीसकर एक एक चम्मच सुबह शाम सात दिन ले ।

भुई आंवला  वर्षात के समय हर जगह उग जाता है। इसको उबलते पानी मे डुबोकर निकाल ले ताकि कोई कीटाणु न रह जाए। 

सावधानी से यदि एक दो बूंद अकौआ का दूध 10 ग्राम गुड़ में  डालकर सुबह शाम ले सात दिन तो घर मे ही पीलिया ठीक हो जाता है ।

लिवर को चुस्त रखने के लिए यदि मकोइया की भाजी खाएं या उसका काढ़ा पिये । 

4. शर्दी ,  खांशी  और बुखार के लिए । कालमेघ का काढ़ा पिये । और तुलसी के 7 पत्ते 7 कालीमिर्च पीसकर उसमें थोड़ा सा शहद मिलाकर दिन में दो बार चाटे कम से कम सात दिन । 

या  त्रिकुट चूर्ण (  सोंठ , कालीमिर्च , लेंडी पीपल बराबर  मात्रा में पीस ले ) एक चुटकी लेकर उसमें शहद मिलाकर चाटे सु बह शाम सात दिन ।

अब आप याद करे कि साल भर में आप किन बीमारियों के लिए डॉक्टर के पास जाते है। 

5. उच्च रक्तचाप और हृदय रोग निवारण के लिए सबसे सरल सुलभ और कारगर उपचार 

अर्जुन वृक्ष की छाल 50 ग्राम लेकर एक लीटर पानी मे उबाले  एक चौथाई बचने के बाद उसको छान कर रख ले । फिर आधा कप सुबह  या शाम एक बार ले  रोग के अनुसार तीन माह तो लेना है फिर हर माह 10 दिन ले। रोग के अनुसार चेकिंग कराकर दवा लेते रहे यदि जरूरत हो ।

इस सबके लिए वैद्यो से परामर्श लेते रहे ।



गुरुवार, 21 जुलाई 2022

इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज


 इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज
परिचय

यह विश्वविद्यालय अतीव प्राचीन एवं माहानहस्तियों के शिक्षित करने बेतु अतीव प्रसिद्ध है।

इसमें संकायों के साथ कला संकाय कुछ भिन्न ही है। जहां पर अनेक विभागों के साथ संस्कृतभाषा एव पालि प्राकृत तथा प्राच्यविद्या संकाय का भी आनन्द कुछ खाश है। हमारा इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना 23 सितंबर, 1887 में हुई थी तथा यह भारत के चौथे सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। यह संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर, सर विलियम म्योर की देख-रेख में स्थापित किया गया था व भवन का सर विलियम एमर्सन द्वारा डिजाइन किया गया था। इस विश्वविद्यालय की वास्तुकला में मिस्र, इंग्लैंड और भारत वास्तु तत्वों के अंश देखे जा सकते हैं।

कला संकाय
  • नृविज्ञान
  • अपराध विज्ञान (Criminology)
  • अर्थशास्त्र
  • भूगोल
  • हिन्दी
  • भाषाविज्ञान
  • साहित्य
  • मधयकालीन तथा आधुनिक इतिहास
  • संगीत एवं निष्पादन कलाएँ (Music & Performing Arts)
  • शारीरिक शिक्षा
  • राजनीति विज्ञान
  • मनोविज्ञान
  • दर्शनशास्त्र
  • संस्कृत
  • समाजशास्त्र
  • उर्दू
  • पत्रकारिता तथा जनसंचार
  • U G C – Academic Staff College
  • दृष्य कला
  • ललित कला
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  • दृष्य कला
  • ललित कला

संस्कृतविभागः

इसका ध्येयवाक्य इतना प्रेरणास्पद है कि कुछ कहते ही नहीं बनता है।


केंद्रीय पुस्तकालय

स्कॉटिश, बरोनियल, अवधी, मुगल एवं ब्रिटिश वास्तुकला शैली के मिश्रण से केंद्रीय पुस्तकालय का निर्माण किया गया है जिसके वास्तुकार सर स्विन्टन जैकब थे। वर्तमान संरचना का निर्माण वर्ष 1973 में किया गया था। पुस्तकालय के सामने सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की एक प्रतिमा स्थापित है जो हिन्दी साहित्य के एक प्रख्यापित हस्ती हैं।

https://drive.google.com/file/d/18kMQoMCFSwn8pP24nsLL8tPY8ocjEVTj/view?usp=share_link 



 

बुधवार, 22 जून 2022

अभिज्ञान शाकुन्तलम् "

 -महाकवि कालिदासस्य जयन्त्याः अवसरे प्रस्तुतिः-'

             "अभिज्ञान शाकुन्तलम् "  

 शाकुन्तलम् महाकवि कालिदासेन विरचितमेकं बहु प्रसिद्धं नाटकम् अस्ति। अस्य नाटकस्य नायकः दुष्यन्तः नायिका शकुन्तला चास्ति। दुष्यन्तः शकुन्तलया सह गान्धर्व-विवाहं कृतवान्, तदा सः स्मृतिचिन्हं नाम अङ्‍गुलीयकं दत्तवान्। तत् अभिज्ञानं मुनेः दुर्वाससः शापेन विलुप्तमभवत्। शापवशात् राजा दुष्यन्तः शकुन्तलां विस्मृतवान्।

तदनन्तरं दुष्यन्तेनापमानिता गर्भवती सा वनाश्रमे निवसन्ती भरतनामकं पुत्रमजनयत् । द्वादशवर्षानन्तरं केनचिद् धीवरेण तदंगुलीयकमभिधानं दुष्यन्तः लब्धवान् । तद् दृष्ट्वैव संपूर्णं पूर्ववृत्तं स्मृतवान्। विरहशोकाकुलः सः शकुन्तलामन्वेष्टुं वने परिभ्रमन् तत्राश्रमे गतवान्। तत्र भरतेन सह शकुन्तला मिलितवती । नाटकस्यास्य विश्वसाहित्येऽत्यधिकं महत्त्वं वर्तते। साहित्यसमीक्षकाः कथयन्ति यत् --

काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्य़ा शकुन्तला।

तत्रापि चतुर्थोंकः तत्र श्लोकचतुष्टयम् ।।

अभिज्ञानशाकुन्तलं नाटकस्य मूलकथावस्तु महाभारतात् आदिपर्वणः शकुन्तलोपाख्यानात् 

उद्धृतम् ।

नाटकेऽस्मिन् नायिका शाकुन्तला नायकेन राज्ञा दुष्यन्तेन गान्धर्वविवाहविधिना परिणीता । स्वनगरं प्रति परावर्तमानेन तेन “ एकैकमत्र दिवसे दिवसे मदीयं, नामाक्षरं गणय, गच्छसि यावदन्तम्” ॥ इत्युक्त्वा स्वनामङ्कितमंगुलीयकं स्वयमेव शाकुन्तलायाः हस्ते परिधापितम् । 

इत्यभिज्ञानविषयिणी घटना महाभारतस्यादिपर्वात् गृहीता ।


कथा-

पुरुवंशस्य राजा दुष्यन्तः कदाचित् मृगयां कुर्वन् अटव्यां हरिणं अनुधावन् मालिनीतीरे विद्यमानस्य कण्वस्य आश्रमं प्रविशति । कण्वः फलपुष्पाणि आनेतुं गत इत्यतः काचित् सुन्दरी तापसकन्या तस्मै स्वागतं करोति । अर्घ्यपाद्यादिभिः सत्करोति सा । तस्याः रूपेण मोहितः दुष्यन्तः स्वपरिचयं तस्यै कुर्वन् तां प्रति - त्वं क्षत्रियोऽसि ? त्वां प्रति मम मनः आकर्षति । अहं त्वां कामये इत्यवदत् । शकुन्तला तु - अहं मेनकाविश्वामित्रयोः पुत्री इति, ताभ्यां यदा परित्यक्ताहं शकुन्तपक्षिभिः रक्षिता इति, ततः कण्वमहर्षिः वने मां दृष्ट्वा आश्रमं प्रति आनीय पोषितवान् इति । शकुन्तपक्षिभिः रक्षिता अहं शकुन्तला इति नामधेयं प्राप्नवम्। यदि मां वोढुं वाञ्छसि तर्हि कण्वमहर्षेः अनुमतिः अपेक्षिता इत्यादिकं सर्वं वृत्तान्तम्

अकथयत् ।

दुष्यन्तः तु क्षत्रियाः गान्धर्वविधिना परिणेतुं 

शक्नुवन्ति । तदर्थं कण्वस्य आक्षेपः न स्यादिति, त्वयि जायमानमेव उत्तराधिकारिरूपेण ताम् अङ्गीकारयित्वा तस्याः पुत्रमेव युवराजं करिष्यामि इति प्रतिश्रुण्वानः तां परिणीतवान् । अग्रे तस्यै राजयोग्यानि वेषभूषणानि सेवकद्वारा प्रेषयामि इति उक्त्वा कण्व मम विषये किं वदेत् इति चिन्तयन्नेव स्वनगरं प्रायात्।

कण्वे आश्रमं प्रत्यागते शकुन्तला तस्य शिरसः उपरि विद्यमानं भारम् अवतारयति । तथापि तस्य मुखं अदृष्ट्वा लज्जया अधोमुखी तिष्ठति । कण्वे लज्जायाः कारणं पृच्छति सति शकुन्तला दुश्यन्तेन साकं कृतविवाहवृत्तन्तं अकथयत् । दिव्यदृष्ट्या सर्वविदितः कण्वः - ”वत्से ! त्वया कृतः अधर्मः न । क्षत्रियाणां गान्धर्वविधिना परिणयः सम्मतः” इति समर्थयति । कालक्रमेण गर्भवती शकुन्तला रूपगुणसम्पन्नोपेतं सुतं असूत । पुत्रस्य षट् वर्षाणि अतीतानि चेदपि दुष्यन्तः नागतः । सः अपि आरम्भदिनेषु कण्वः किमपि वदेत् इति चिन्तयन् न प्रवर्तते स्म, क्रमेण शकुन्तलायाः विषयः तेन विस्मृतः । परं सा तु तं निरीक्षमाणा खिद्यते स्म । बालस्तु धीरः सन् वनस्य सर्वप्राणिनः अपि निगृह्य आत्मानं "सर्वदमन" इति परिचाययति स्म । तं यौवराज्याय अर्हं मन्वानः कण्वः मुहूर्तं निश्चित्य स्वशिष्यैः सह शकुन्तलां तत्पुत्रं च दुष्यन्तस्य राजधानीं प्रति प्रेषयामास ।

यदा शकुन्तला पतिगृहं प्रस्थिता तदा पालितपितुः कण्वस्य नेत्रे अश्रुपूर्णे भवतः । तच्छिष्याः तां राजधानीं प्रापय्य प्रत्यागच्छन्ति । पुत्रेण सह शकुन्तला राजसभायां दुष्यन्तं दृष्ट्वा स्ववृत्तान्तं सर्वं निवेदयति । तस्याः वचनेन स्मृतपूर्ववृत्तान्तः राजा अपि लोकापवादात् भीतः अहं किमपि नजाने इति वदति । तामुद्दिश्य - शकुन्तले ! का त्वम् ? कुतः अत्र आगतं त्वया ? किं साहाय्यम् अपेक्षितम् ? इति अपरिचितः इव सम्भाषते । ततः शकुन्तला - "महाराज ! अयं तव पुत्रः । त्वया आश्रमे दत्तवचनानुसारं तव राज्यस्य उत्तराधिकारी भविता । यदा त्वया आश्रमं प्रति आगतं तदा प्रवृत्तं सर्वं स्मर" इत्यादि रीत्या अभियाचते । दुष्यन्तः शकुन्तलां न विस्मृतवान् आसीत् परं तस्मिन् क्षणॆ किमपि अजानन् इव - 

धर्मार्थकामसम्बन्धं न स्मरामि त्वया सह ।

गच्छ वा तिष्ठ वा कामं यद्वापीच्छसि तत् कुरु ॥

अस्य तात्पर्यमेतत् - धर्मार्थकामार्थं त्वया सह सम्बन्धकरणं न मया स्मर्यते । त्वं याहि, अत्रैव तिष्ठ स्वेच्छानुसारं वा कर्म कुरु इति साक्षात् वदति । शकुन्तला अवमानेन लज्जया च पीडिता क्षणं यावत् किङ्कर्तव्यमूढा तिष्ठति । तदा नितरां कुपिता सा दुष्यन्तं सम्यक् निर्भत्सयन्ती- "महाराज ! जानन्नपि कुतः एवं प्रलपसि ? एवम् असत्यं कथयन् त्वं हृदि संस्थितं सर्वसाक्षिणं परमात्मानं मा अवमानय । अहं तव धर्मपत्नी । यदि मां त्यजसि न किमपि दुःखम्, परं एतं तव पुत्रं मा त्यज । मम वचनं यदि उपेक्षसे तर्हि तव शिरः सहस्रशः छिद्रं भविष्यति" इत्यादिभिः वचनैः भर्त्सयति । तथापि दुष्यन्तस्य मनः न द्रवति । पूर्वतनं किमपि न स्मरन् सः अन्ते तामेव "वेश्यापुत्रि !" इति निन्दति । शकुन्तलायाः नयविनयादिभिः याचनादिभिः अपि दुष्यन्तः नाङ्गीकरोति । तदा सा कोपाग्निम् असहमाना पुत्रेण सह ततः निर्गता । तावता - "भरस्व पुत्रं दुष्यन्त ! मावमंस्थाः शकुन्तलाम्" (हे दुष्यन्त ! अयं तव पुत्रः, तं पोषय । शकुन्तलायाः अवमाननं मा कुरु) इति अशरीरवाणी काचित् भविष्यति, शकुन्तलायाः उपरि पुष्पवृष्टिः च भविष्यति । 

ततः दुष्यन्तः सिंहासनात् अवतीर्य अन्तरिक्षदेवताः नमस्कृत्य राजसभायां मन्त्रिपुरोहितं च उद्दिश्य - "अहं तु एतां जाया इति, अयं तव पुत्रः इति सम्यक् एव अभिज्ञातवान् अधुना अशरीरवाणी जाता इत्यतः अयं पुत्रः मदीयः शुद्धः इति निःशङ्कं कथयामि इति वदन् तम् आलिङ्गितवान्, शकुन्तलां च आदरेण सत्कृतवान् । सर्वदमनः युवराजपदे नियुक्तः सन् अग्रे भरतः इति प्रसिद्धिम् अवाप । शकुन्तला पट्टमहिषी सञ्जाता ।

शकुन्तलादुष्यन्तयोः कथा पुराणकाले अतीव प्रसिद्धः स्यात् अतः इयं कथा न केवलं महाभारते, भागवते, विष्णुपुराणे, हरिवंशे, मत्स्यपुराणे, वायुपुराणे, पद्मपुराणे च दृश्यते । बौद्धानां जातककथायामपि शकुन्तलाकथासदृशी अपरा काचित् कथा विद्यते । जैनसम्प्रदायेऽपि (पार्श्वनाथचरित्रम्) कालिदासस्य शाकुन्तलनाटकसदृशी अन्य कथा दृश्यते । एतैः अंशैः शकुन्तलादुष्यन्तयोः कथा अनादिकालात् अपि प्रचलिता इति ज्ञायते ।

कालिदासस्य नाटकस्य कथायाः महाभारते उक्तायाः कथायाः च तुलनां कुर्मः चेत् अत्र कालिदासस्य रचनाकौशल्यम् उदात्तं रचनात्मकं च परिवर्तनं दृश्यते । कालिदासेन ग्रथितस्य अभिज्ञानशाकुन्तलस्य प्रथमाङ्कः कण्वस्य अश्रमस्य दृश्यम् । तस्य आरम्भः अष्टमूर्तेः शिवस्य स्तवनेन भवति । ततः सूत्रधारः नट्या सह रङ्गं प्रविश्य ग्रीष्म-ऋतुवर्णनद्वारा सङ्गीतस्वादम् अनुभवति । नवीनतया रचितस्य कालिदासस्य नाटकस्य परिचयं कारयति । तदनन्तरं दुष्यन्तः हरिणम् अनुधावन् आगच्छन्नस्ति इति घटनां संसूच्य प्रस्तावनं समाप्य निर्गच्छति ।                

ततः दुष्यन्तः कञ्चित् हरिणं अनुधावन् राजा दुष्यन्तः रथं वाहयन् सूतश्च प्रविशतः । दुष्यन्तः यावत् हरिणस्य उपरि बाणं प्रयोक्तुं सिद्धः तावता आश्रमस्य तपस्विनः आगत्य - "राजन् ! आश्रममृगोऽयं मा हन्यताम्" इति वदन्ति । समीपे विद्यमानं कण्वस्य आश्रमं प्रदर्श्य तत्र कण्वः अधुना आश्रमे नास्ति, परं कण्वदुहिता शकुन्तला तव सत्कारं करिष्यति गत्वा अतिथिसत्कारं स्वीकृत्य गच्छ इति सूचयन्ति । दुष्यन्तः स्वयम् एकाकी आश्रमं प्रति गच्छति । तत्रा तिसृभिः तापसकन्यकाभिः वृक्षेभ्यः जलं सिच्यमानम् असीत् । तासां मधुराणि सम्भाषणानि प्रच्छन्नः स्थित्वैव शृणोति । तासु तिसृषु अन्यतमायाः शकुन्तलायाः अप्रतिमं सौन्दर्यं विलोक्य विस्मितः भवति राजा । तस्याः अव्याजमनोहरं सौन्दर्यं स्वदते सः । तासां पुरतः आत्मानं दर्शयितुं समयं प्रतीक्षमाणः भवति । तावता कश्चन भ्रमरः शकुन्तलां पीडयन् भवति । तदा राजा आत्मनः प्रकटनाय अयं समुचितः कालः इति चिन्तयन् तद्दूरीकरणाय सः प्रविशति । तयोः सख्योः सम्भाषणेन शकुन्तला विश्वामित्रमेनकयोः पुत्रीति, ताभ्यां परित्यक्ता शकुन्तपक्षिभिः वने पोषितां तां कण्वमहर्षिः आश्रमं प्रति आनीय तां पोषयन् अस्ति इत्यादिविषयान् ज्ञात्वा राजा सन्तुष्टः भवति ।

एषा क्षत्रियकन्या, 

मया परिणेतुं योग्या इति चिन्तयन् मनसि हृष्टः भवति ।