मंगलवार, 29 नवंबर 2022

मातृशक्ति का तिरस्कार


संस्कृतवाङ्गमयः





वर्तमानमें नारी-जातिका महान् तिरस्कार, घोर अपमान किया जा रहा है। नारीके महान् मातृरूपको नष्ट करके उसको मात्र भोग्या स्त्रीका रूप दिया जा रहा है। भोग्या स्त्री तो वेश्या होती है। जितना आदर माता (मातृशक्ति) का है, उतना आदर स्त्री (भोग्या) का नहीं है। परंतु जो स्त्रीकोे भोग्या मानते हैं, स्त्रीके गुलाम हैं, वे भोगी पुरुष इस बातको क्या समझें? समझ ही नहीं सकते। विवाह माता बननेके लिये किया जाता है, भोग्या बननेके लिये नहीं। सन्तान पैदा करनेके लिये ही पिता कन्यादान करता है और संतान पैदा करने (वंशवृद्धि) के लिये ही वरपक्ष कन्यादान स्वीकार करता है। परंतु आज नारीको माँ बननेसे रोका जा रहा है और उसको केवल भोग्या बनाया जा रहा है। यह नारी-जातिका कितना महान् तिरस्कार है!


नारी वास्तवमें मातृशक्ति है। वह स्त्री और पुरुष—दोनोंकी जननी है। वह पत्नी तो केवल पुरुषकी ही बनती है, पर माँ पुरुषकी भी बनती है और स्त्रीकी भी। पुरुष अच्छा होता है तो उसकी केवल अपने ही कुलमें महिमा होती है, पर स्त्री अच्छी होती है तो उसकी पीहर और ससुराल—दोनों कुलोंमें महिमा होती है। राजा जनकजी सीताजीसे कहते हैं—‘पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ’ (मानस, अयोध्या० २८७।१)


आजकल विवाहसे पहले कन्याके स्वभाव, सहिष्णुता, आस्तिकता, धार्मिकता, कार्य-कुशलता आदि गुणोंको न देखकर शारीरिक सुन्दरताको ही देखा जाता है। कन्याकी परीक्षा परिणामकी दृष्टिसे न करके तात्कालिक भोगकी दृष्टिसे की जाती है। यह विचार नहीं करते कि अच्छा स्वभाव तो सदा साथ रहेगा, पर सुन्दरता कितने दिनतक टिकेगी?* भोगी व्यक्तिको संसारकी सब स्त्रियाँ मिल जायँ, तो भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता—


यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशव: स्त्रिय:।

न दुह्यन्ति मन:प्रीतिं पुंस: कामहतस्य ते॥


(श्रीमद्भा० ९।१९।१३)


‘पृथ्वीपर जितने भी धान्य, स्वर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जो कामनाओंके प्रहारसे जर्जर हो रहा है।’


* द्रौपदीके अत्यन्त सुन्दर होनेके कारण ही जयद्रथ, कीचक और अठारह अक्षौहिणी सेना मारी गयी। इसलिये कहा गया है—


ऋणकर्ता पिता शत्रु: माता च व्यभिचारिणी।

भार्या रूपवती शत्रु: पुत्र: शत्रुरपण्डित:॥


(चाणक्यनीति० ६।१०)


‘कर्जदार पिता, व्यभिचारिणी माता, सुन्दर पत्नी और मूर्ख पुत्र—ये चारों शत्रुकी तरह (दु:ख देनेवाले) हैं।’


ऐसे भोगी व्यक्ति ही नसबंदी, गर्भपात आदि महापाप करते हैं। विवाह वंशवृद्धिके लिये किया जाता है। यदि कन्या सद्गुणी-सदाचारी होगी तो विवाहके बाद उसकी सन्तान भी सद्गुणी-सदाचारी होगी; क्योंकि प्राय: माँका ही स्वभाव सन्तानमें आता है। एक मारवाड़ी कहावत है—‘नर नानाणे जाये है’ अर्थात् मनुष्यका स्वभाव उसके ननिहालपर जाता है। ‘माँ पर पूत, पिता पर घोड़ा। बहुत नहीं तो थोड़ा थोड़ा।’


कन्याका दान देनेमें भी उसका आदर है, तिरस्कार नहीं। यह दूसरे दानकी तरह नहीं है। दूसरे दानमें तो दान दी हुई वस्तुपर दाताका अधिकार नहीं रहता, पर कन्यासे संतान पैदा होनेके बाद माता-पिताका कन्यापर अधिकार हो जाता है और वे आवश्यकता पड़नेपर उसके घरका अन्न-जल ले सकते हैं। कारण कि कन्याके पतिने केवल पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये ही कन्या स्वीकार की है और उससे संतान पैदा होनेपर वह पितृऋणसे मुक्त हो जाता है। इसलिये गोत्र दूसरा होनेपर भी दौहित्र अपने नाना-नानीका श्राद्ध-तर्पण करता है, जो कि लोकमें और शास्त्रमें प्रसिद्ध है।


हमारे शास्त्रोंमें नारी-जातिको बहुत आदर दिया गया है। स्त्रीकी रक्षा करनेके उद्देश्यसे शास्त्रने उसको पिता, पति अथवा पुत्रके आश्रित रहनेकी आज्ञा दी है, जिससे वह जगह-जगह ठोकरें न खाती फिरे, वेश्या न बन जाय*। स्त्री नौकरी करे तो यह उसका तिरस्कार है। उसकी महिमा तो घरमें रहनेसे ही है। घरमें वह महारानी है, पर घरसे बाहर वह नौकरानी है। घरमें तो वह एक पुरुषके अधीन रहेगी पर बाहर उसको अनेक स्त्री-पुरुषोंके अधीन रहना पड़ेगा, अपनेसे ऊँचे पदवाले अफसरोंकी अधीनता, फटकार, तिरस्कार सहन करना पड़ेगा, जो कि उसके कोमल हृदय, स्वभावके विरुद्ध है। वह आदरके योग्य है, तिरस्कारके योग्य नहीं है। पिता, पति अथवा पुत्रकी अधीनता वास्तवमें स्त्रीको पराधीन बनानेके लिये नहीं है, प्रत्युत महान् स्वाधीन बनानेके लिये हैं। घरमें बूढ़ी ‘माँ’ का सबसे अधिक आदर होता है, बेटे-पोते आदि सब उसका आदर करते हैं, पर घरसे बाहर बूढ़ी ‘स्त्री’ का सब जगह तिरस्कार होता है।


* भ्रमन्संपूज्यते राजा भ्रमन्संपूज्यते द्विज:।

भ्रमन्संपूज्यते योगी भ्रमन्ती स्त्री विनश्यति॥


(चाणक्यनीति० ६।४)


‘भ्रमण करनेसे राजा पूजित होता है, भ्रमण करनेसे ब्राह्मण पूजित होता है, भ्रमण करनेसे योगी पूजित होता है; परन्तु स्त्री भ्रमण करनेसे विनष्ट हो जाती है अर्थात् उसका पतन हो जाता है।’


स्त्री बाहरका काम ठीक नहीं कर सकती और पुरुष घरका काम ठीक नहीं कर सकता। स्त्री नौकरी करती है तो वहाँ भी वह स्वेटरें बुनती है—घरका काम करती है! पुरुष शेखी बघारते हैं कि स्त्रियाँ घरमें क्या काम करती हैं, काम तो हम करते हैं, पैसा हम कमाते हैं! अगर पुरुष घरमें एक दिन भी रसोईका काम करे और बच्चेको गोदीमें रखे तो पता लग जायगा कि स्त्रियाँ क्या काम करती हैं! अगर स्त्री मर जाय तो बच्चोंको सास, नानी या बहन-बूआके पास भेज देते हैं; क्योंकि पुरुष उनका पालन नहीं कर सकते। परंतु पति मर जाय तो स्त्री कष्ट सहकर भी बच्चोंका पालन कर लेती है, उनको पढ़ा-लिखाकर योग्य बना देती है। कारण कि स्त्री मातृशक्ति है, उसमें पालन करनेकी योग्यता है। मैंने छोटे लड़के-लड़कियोंको देखा है। लड़कीको कोई चीज मिल जाय तो वह उसको जेबमें रख लेती है कि अपने छोटे बहन-भाइयोंको दूँगी, पर लड़केको कोई चीज मिले तो वह खा लेता है। कोई साधु, दरिद्र, भूखा आदमी बैठा हो तो कई पुरुष पाससे निकल जायँगे, उनके मनमें खिलानेका भाव आयेगा ही नहीं। परंतु स्त्रियाँ पूछ लेंगी कि बाबाजी, कुछ खाओगे? कारण कि स्त्रियोंमें दया है। उनको बालकोंका पालन-पोषण करना है, इसलिये भगवान् ने उनको ऐसा हृदय दिया है।


आजकल स्त्रियोंको पुरुषके समान अधिकार देनेकी बात कही जाती है, पर शास्त्रोंने माताके रूपमें स्त्रीको पुरुषकी अपेक्षा भी विशेष अधिकार दिया है—


सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥


(मनु० २।१४५)


‘माताका दर्जा पितासे हजार गुना अधिक माना गया है।’


सर्ववन्द्येन यतिना प्रसूर्वन्द्या प्रयत्नत:॥


(स्कन्दपुराण, काशी० ११।५०)


‘सबके द्वारा वन्दनीय संन्यासीको भी माताकी प्रयत्नपूर्वक वन्दना करनी चाहिये।’


वर्तमानमें गर्भ-परीक्षण किया जाता है और गर्भमें कन्या हो तो गर्भ गिरा दिया जाता है, क्या यह स्त्रीको समान अधिकार दिया जा रहा है?


‘माँ’ शब्द कहनेसे जो भाव पैदा होता है, वैसा भाव ‘स्त्री’ कहनेसे नहीं पैदा होता। इसलिये श्रीशंकराचार्यजी महाराज भगवान् श्रीकृष्णको भी ‘माँ’ कहकर पुकारते हैं—‘मात: कृष्णाभिधाने’ (प्रबोध० २४४)। उपनिषदोंमें ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ कहकर सबसे पहले माँकी सेवा करनेकी आज्ञा दी गयी है। ‘वन्दे मातरम्’ में भी माँकी ही वन्दना की गयी है। हिन्दूधर्ममें मातृशक्तिकी उपासनाका विशेष महत्त्व है। ईश्वरकोटिके पाँच देवताओंमें भी मातृशक्ति (भगवती) का स्थान है। देवीभागवत, दुर्गासप्तशती आदि अनेक ग्रन्थ मातृशक्तिपर ही रचे गये हैं। जगत् की सम्पूर्ण स्त्रियोंको मातृशक्तिका ही रूप माना गया है—


विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा:

स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।


(दुर्गासप्तशती ११।६)


परंतु भोगीलोग मातृशक्तिको क्या समझें? समझ ही नहीं सकते। वे तो उसको भोग्या ही समझते हैं।


शास्त्रोंमें स्त्रियोंको पुनर्विवाह न करके विधवाधर्मका पालन करनेके लिये कहा है तो यह उनका आदर है, तिरस्कार नहीं। धर्म-पालनके लिये कष्ट सहना तिरस्कार नहीं है, प्रत्युत तितिक्षा, तपस्या है। तितिक्षु, तपस्वी व्यक्तिका समाजमें बड़ा आदर होता है। पुरुष स्त्रीका तिरस्कार करे, उसको दु:ख दे, उसको तलाक दे, उसको मारे-पीटे—ऐसा शास्त्रोंमें कहीं नहीं कहा गया है। इतना ही नहीं, स्त्रीसे कोई बड़ा अपराध भी हो जाय, तो भी उसको मारने-पीटनेका विधान नहीं है, प्रत्युत वह क्षम्य है।


भीष्मजी कौरव-सेनाकी रक्षा करनेवाले थे—‘अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्’ (गीता १।१०); परंतु दुर्योधन उनकी भी रक्षा करनेके लिये अपनी सेनाको आदेश देता है—‘भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि’ (गीता १।११)। कारणकी दुर्योधन जानता था कि शिखण्डीके सामने आनेपर भीष्मजी उसपर कभी शस्त्र नहीं चलायेंगे, भले ही अपने प्राण चले जायँ! शिखण्डी पहले स्त्री था, वर्तमानमें नहीं; परन्तु वर्तमानमें पुरुषरूपसे होनेपर भी भीष्मजी उसको स्त्री ही मानते हैं और उसपर शस्त्र नहीं चलाते, प्रत्युत मरना स्वीकार कर लेते हैं—यह स्त्री-जातिका कितना सम्मान है।


थोड़े वर्ष पहलेकी बात है। एक बार जोधपुरके राजा सर उम्मेदसिंहजी और बीकानेरके राजा सर शार्दूल-सिंहजी शिकारके लिये जंगल गये। वहाँ शार्दूलसिंहजीकी गोली पैरमें लगनेसे एक सिंहनी घायल हो गयी। घायल होकर वह गुर्राती हुई उनकी तरफ आयी तो उम्मेदसिंहजीने कहा—‘हीरा! यह क्या किया? यह तो मादा है!’ पता लगनेपर उन्होंने पुन: उसपर गोली नहीं चलायी और खुद चेष्टा करके उससे अपना बचाव किया। यह नारी-जातिका कितना सम्मान है!


शास्त्रोंने पुरुषोंके लिये तो सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र, यज्ञ, वेदपाठ आदि कई कर्तव्य-कर्म बताये हैं, पर स्त्रियोंके उन सब कर्तव्य-कर्मोंसे, पितृऋण आदि ऋणोंसे मुक्त रखा है* और उसको पतिके आधे पुण्यका भागीदार बनाया है। परंतु शास्त्रको न जाननेवाले इस विषयको क्या समझें? आज स्त्रियोंको उनके कर्तव्यसे विमुख करके अनेक झंझटोंमें फँसाया जा रहा है। शास्त्रोंने केवल पुरुषको ही यज्ञोपवीत धारण करके सन्ध्योपासना आदि विशेष कर्मोंको करनेकी आज्ञा दी है। परंतु आज स्त्रीको यज्ञोपवीत देकर उसको उलटे आफतमें डाला जा रहा है! क्या यह बुद्धिमानीकी बात है? पत्नी पतिके द्वारा किये गये पुण्यकर्मोंकी भागीदार तो होती है, पर पाप-कर्मोंकी भागीदार नहीं होती। उसको मुफ्तमें आधा पुण्य मिलता है। समाजमें भी देखा जाता है कि अगर डॉक्टर, पण्डित आदिकी पत्नी अनपढ़ हो तो भी डॉक्टरनी, पण्डितानी आदि कहलाती है! वास्तवमें आज अभिमानको मुख्यता दी जा रही है, इसलिये नम्रता बढ़ानेकी बात न कहकर अभिमान बढ़ानेकी बात ही कही और सिखायी जा रही है, जो कि पतनका हेतु है। ‘पुरुष ऐसा करते हैं तो हम क्यों न करें? हम पीछे क्यों रहें?’—यह केवल अभिमान बढ़ानेकी बात है। अभिमान जन्म-मरणका मूल और अनेक प्रकारके क्लेशों तथा समस्त शोकोंको देनेवाला है—


संसृत मूल सूलप्रद नाना।

सकल सोक दायक अभिमाना॥


(मानस, उत्तर० ७४।३)


* वैवाहिको विधि: स्त्रीणां संस्कारो वैदिक: स्मृत:।

पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया॥


(मनु० २।६७)


‘स्त्रियोंके लिये वैवाहिक विधिका पालन ही वैदिक संस्कार (यज्ञोपवीत), पतिकी सेवा ही गुरुकुलवास (वेदाध्ययन) और गृहकार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है।’


एकइ धर्म एक ब्रत नेमा।

कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥


(मानस, अरण्य० ५।५)


अभिमानी व्यक्ति शास्त्रोंकी बातोंको क्या समझेगा? समझ ही नहीं सकता।


संसारके हितके लिये मातृशक्तिने बहुत काम किया है। रक्तबीज आदि राक्षसोंका संहार भी मातृशक्तिने ही किया है। मातृशक्तिने ही हमारी हिन्दू-संस्कृतिकी रक्षा की है। आज भी प्रत्यक्ष देखनेमें आता है कि हमारे व्रत-त्योहार, रीति-रिवाज, माता-पिताके श्राद्ध आदिकी जानकारी जितनी स्त्रियोंको रहती है, उनती पुरुषोंको नहीं रहती। पुरुष अपने कुलकी बात भी भूल जाते हैं, पर स्त्रियाँ दूसरे कुलकी होनेपर भी उनको बताती हैं कि अमुक दिन आपकी माता या पिताका श्राद्ध है, आदि। मन्दिरोंमें, कथा-कीर्तनमें, सत्संगमें जितनी स्त्रियाँ जाती हैं, उतने पुरुष नहीं जाते। कार्तिक-स्नान, व्रत, दान, पूजन, रामायण आदिका पाठ जितना स्त्रियाँ करती हैं, उतना पुरुष नहीं करते। तात्पर्य है कि स्त्रियाँ हमारी संस्कृतिकी रक्षा करनेवाली हैं। अगर उनका चरित्र नष्ट हो जायगा तो संस्कृतिकी रक्षा कैसे होगी? एक श्लोक आता है—


असंतुष्टा द्विजा नष्टा: संतुष्टाश्च महीभुज:।

सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलाङ्गना:॥


(चाणक्यननीति० ८।१८)


‘संतोषहीन ब्राह्मण नष्ट हो जाता है, संतोषी राजा नष्ट हो जाता है, लज्जावती वेश्या नष्ट हो जाती है और लज्जाहीन कुलवधू नष्ट हो जाती है अर्थात् उसका पतन हो जाता है।’


वर्तमानमें संतति-निरोधके कृत्रिम उपायोंके प्रचार-प्रसारसे स्त्रियोंमें लज्जा, शील, सतीत्व, सच्चरित्रता, सदाचरण आदिका नाश हो रहा है। परिणामस्वरूप स्त्री-जाति केवल भोग्य वस्तु बनती जा रही है। यदि स्त्री-जातिका चरित्र भ्रष्ट हो जायगा तो देशकी क्या दशा होगी? आगे आनेवाली पीढ़ी अपने प्रथम गुरु माँसे क्या शिक्षा लेगी? स्त्री बिगड़ेगी तो उससे पैदा होनेवाले बेटी-बेटा (स्त्री-पुरुष) दोनों बिगड़ेंगे। अगर स्त्री ठीक रहेगी तो पुरुषके बिगड़नेपर भी संतान नहीं बिगड़ेगी। अत: स्त्रियोंके चरित्र, शील, लज्जा आदिकी रक्षा करना और उनको अपमानित, तिरस्कृत न होने देना मनुष्यमात्रका कर्तव्य है।




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