शनिवार, 20 नवंबर 2021

बाल विकास की अवस्थाएं, विशेषताएं, महत्व एवं शिक्षा का स्वरूप

शैशवावस्था :- बालक के जन्म के पश्चात् से पाँच वर्ष तक की अवस्था शैशवावस्था कहलाती है। यह अवस्था बालक का निर्माण काल होती है। इसी काल में बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। इस अवस्था में बालक का जितना अधिक निरीक्षण और निर्देशन किया जाता है, उतना ही अच्छा और उत्तम उसका विकास और जीवन होता है। जन्म के उपरांत नवजात शिशु के भार, अंगों और गतिविधियों में पांच वर्ष की अवस्था तक परिवर्तन दिखाई देते है। विकास के साथ-साथ इनमें स्थायित्व आने लगता है। शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएं :- शैशवावस्था की विशेषताएं नीचे दी गईं है :- 1. शारीरिक विकास में तीव्रता :- शैशवावस्था के प्रथम तीन वर्षो में शिशु का शारीरिक विकास अति तीव्र गति से होता है। तीन वर्ष के बाद विकास की गति धीमी हो जाती है। उसकी इंद्रियों, आंतरिक अंगों और मांसपेशियों आदि का क्रमिक विकास होता है। 2. मानसिक क्रियाओं की तीव्रता :- शैशवावस्था में शिशु की मानसिक क्रियाओं जैसे-ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण आदि के विकास में पर्याप्त तीव्रता होती है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियां कार्य करने लगती हैं। 3. सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता :- शैशवावस्था में शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्र होती है, और वह अनेक आवश्यक बातों को तुरंत लिख लेता है। 4. कल्पना की सजीवता :- चार वर्ष के बालक की कल्पना में बहुत सजीवता होती है। वह सत्य और असत्य में अन्तर नहीं का पाता है। फलस्वरूप, वह झूठ बोलने जैसा लगता है। 5. दूसरों पर निर्भरता :- जन्म के बाद शिशु कुछ समय तक बहुत असहाय स्थिति में रहता है, उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने क लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। 6. आत्म प्रेम की भावना :- शैशवावस्था में शिशु अपने माता, पिता, भाई, बहन आदि का प्रेम प्राप्त करना चाहता है। पर साथ ही वह यह भी चाहता है कि प्रेम उसके अलावा किसी और को न मिले यदि और किसी के प्रति प्रेम व्यक्त किया जाता हैं, तो उसे उससे ईष्यों होने लगती है। 7. नैतिकता का विकास :- शैशवावस्था में शिशु में अच्छी और बुरी, उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिनमें उसको आनन्द आता है। 8. मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार :- शैशवावस्था में शिशु का अधिकांश व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृतियां होती हैं, यदि उसे भूख लगती है, तो उसे जो भी वस्तु मिलती है, उसी को अपने मुह में रख लेता है। 9. सामाजिक भावना का विकास :- शैशवावस्था के अन्तिम वर्षो में शिशु में सामाजिक भावना का विकास हो जाता है। छोटे भाईयों, बहनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती है। वह 2 से 6 वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपने वस्तुओं और खिलौनों को दूसरे के साथ साझा करता है। 10. दूसरे बालकों में रूचि या अरुचि :- शैशवावस्था में शिशु में दूसरे बालकों के प्रति रूचि या अरूचि हो जाती है। बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रूचि व्यक्त करने लगता है। आरंभ में इस रूचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, लेकिन जल्द हि यह रूचि एवं अरूचि के रूप में प्रकट होने लगता है। 11. संवेगों का प्रदर्शन :- दो वर्ष की आयु तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हौ जाता है। बाल मनोवैज्ञानिकों ने शिशु के मुख्य रूप से चार संवेग माने हैं– भय, क्रोध, प्रेम और पीड़ा। 12. काम-प्रवृत्ति :- बाल-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शैशवावस्था में काम-प्रवृत्ति वहुत प्रबल होती है, पर वयस्को के समान वह उसको व्यक्त नहीं कर पाता है। अपनी माता का स्तनपान करना और यौनागों पर हाथ रखना बालक की काम प्रवृत्ति के सूचक हैं। 13. दोहराने की प्रवृत्ति :- शैशवावस्था में शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। उसमें शब्दों और गतियों को दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है। 14. जिज्ञासा की प्रवृत्ति :- शैशवावस्था में शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपने खिलौने में तरह-तरह के प्रयोग करता है। वह उसको फर्श पर फेंक सकता है। वह उसक भागों को अलग अलग कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह विभिन्न बात्तों और वस्तओं क बारे में “क्यों” और “कैसें” प्रश्न पूछता है। 15. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति :- शैशवावस्था में शिशु में अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति होती है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि के कार्यो और व्यवहार का अनुकरण करता है। 16. अकेले व साथ खेलने की प्रवृति :- शैशवावस्था में शिशु में पहले अकेले और फिर दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है। बहुत छोटे में शिशु अकेले खेलना पसंद करते हैं। अन्त में वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में ज्यादा रुचि लेता है। शैशवावस्था का महत्व :- इस अवस्था में शिशु पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर रहता है उसका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है, जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भविष्य के जीवन की आधारशिला रखता है। व्यक्ति को जो कुछ बनना होता है, वह आरंभ के चार-पांच वर्षों में ही बन जाता है। व्यक्ति में कुल जितना मानसिक विकास होता है, उसका आधा 3 वर्ष की आयु तक में ही हो जाता है। शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता विकास की अन्य किसी अवस्था की तुलना में बहुत अधिक होती है। शैशवावस्था ही वह आधार है जिस पर बालक के आने वाले जीवन का निर्माण किया जा सकता है, इसलिए शैशवावस्था में शिशु को जितना उत्तम और अच्छा निर्देशन दिया जाएगा उसका उतना ही अच्छा विकास होगा। मनोवैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं के संदर्भ में अनेकों अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला है, कि सब अवस्थाओं में शैशवावस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। शैशवावस्था के संबंध में कुछ मनोवैज्ञानिक ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं– बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में इसका क्या स्थान है।ऐडलर के अनुसार व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता हैं
।गुडलर के अनुसार शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप :- 1. शैशवावस्था में शिशु अपने विकास के लिए शान्त, स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण चाहता है । अत: घर और विद्यालय में उसे इस प्रकार का वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए। 2. शैशवावस्था में शिशु अपनी आवश्यकताओं को पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। माता-पिता और शिक्षक को उसे डांटना या पीटना नहीं चाहिए। उन्हे उसके प्रति सदैव प्रेम, शिष्टता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। 3. शैशवावस्था में शिशु सब विषय में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शान्त काना चाहता है, माता-मिता और शिक्षक को उसके प्रश्नों के उत्तर देकर, उसकी जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। 4. शैशवावस्था में शिशु कल्पना की दुनिया में मग्न रहता है, इसलिए उसे ऐसे विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए जो उसे वास्तविकता के निकट लाये। 5. शैशवावस्था में शिशु को आत्म निर्भरता से स्वयं सीखने, काम करने और विकास करने की प्रेरणा मिलती है। अत: उसको स्वतंत्रता प्रदान करके आत्म-निर्भर बनने का अवसर दिया जाना चाहिए।