मंगलवार, 26 सितंबर 2023

पण्डितराज जगन्नाथ जी का लवंगी से प्रेम


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“पण्डितराज जगन्नाथ”

सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध था, दूर दक्षिण में गोदावरी तट के एक छोटे राज्य की राज्यसभा में एक विद्वान् ब्राह्मण सम्मान पाता था, नाम था जगन्नाथ शास्त्री ।
साहित्य के प्रकांड विद्वान्, दर्शन के अद्भुत ज्ञाता।

इस छोटे से राज्य के महाराज चन्द्रदेव के लिए जगन्नाथ शास्त्री सबसे बड़े गर्व थे। कारण यह, कि जगन्नाथ शास्त्री कभी किसी से शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होते थे। दूर दूर के विद्वान् आये और पराजित हो कर जगन्नाथ शास्त्री की विद्वता का ध्वज लिए चले गए।

पण्डित जगन्नाथ शास्त्री की चर्चा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में होने लगी थी। उस समय दिल्ली पर मुगल शासक शाहजहाँ का शासन था। शाहजहाँ मुगल था, सो भारत की प्रत्येक सुन्दर वस्तु पर अपना अधिकार समझना उसे जन्म से सिखाया गया था।

पण्डित जगन्नाथ की चर्चा जब शाहजहाँ के कानों तक पहुँची तो जैसे उसके घमण्ड को चोट लगी।
“मुगलों के युग में एक तुच्छ ब्राह्मण अपराजेय हो, यह कैसे सम्भव है?”

शाह ने अपने दरबार के सबसे बड़े मौलवियों को बुलवाया और जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को शास्त्रार्थ में पराजित करने के आदेश के साथ महाराज चन्द्रदेव के राज्य में भेजा—
“जगन्नाथ को पराजित कर उसकी शिखा काट कर मेरे कदमों में डालो….”

शाहजहाँ का यह आदेश उन चालीस मौलवियों के कानों में स्थायी रूप से बस गया था।
सप्ताह भर पश्चात मौलवियों का दल महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में पण्डित जगन्नाथ को शास्त्रार्थ की चुनौती दे रहा था।

गोदावरी तट का ब्राह्मण और अरबी मौलवियों के साथ शास्त्रार्थ, पण्डित जगन्नाथ नें मुस्कुरा कर सहमति दे दी। मौलवी दल ने अब अपनी शर्त रखी-
“पराजित होने पर शिखा देनी होगी…”।

पण्डित की मुस्कराहट और बढ़ गयी-
“स्वीकार है, पर अब मेरी भी शर्त है। आप सब पराजित हुए तो मैं आपकी दाढ़ी उतरवा लूंगा ।”

मुगल दरबार में “जहाँ पेंड़ न खूंट वहाँ रेंड़ परधान” की भांति विद्वान कहलाने वाले मौलवी विजय निश्चित समझ रहे थे, सो उन्हें इस शर्त पर कोई आपत्ति नहीं हुई।

शास्त्रार्थ क्या था ; खेल था। अरबों के पास इतनी आध्यात्मिक पूँजी कहाँ जो वे भारत के समक्ष खड़े भी हो सकें। पण्डित जगन्नाथ विजयी हुए, मौलवी दल अपनी दाढ़ी दे कर दिल्ली वापस चला गया…

दो माह बाद महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में दिल्ली दरबार का प्रतिनिधिमंडल याचक बन कर खड़ा था- “महाराज से निवेदन है कि हम उनकी राज्य सभा के सबसे अनमोल रत्न पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को दिल्ली की राजसभा में सम्मानित करना चाहते हैं। यदि वे दिल्ली पर यह कृपा करते हैं तो हम सदैव आभारी रहेंगे”।

मुगल सल्तनत ने प्रथम बार किसी से याचना की थी। महाराज चन्द्रदेव अस्वीकार न कर सके। पण्डित जगन्नाथ शास्त्री दिल्ली के हुए। शाहजहाँ नें उन्हें नया नाम दिया “पण्डितराज” ।
दिल्ली में शाहजहाँ उनकी अद्भुत काव्यकला का दीवाना था, तो युवराज दारा शिकोह उनके दर्शन ज्ञान का भक्त ।
दारा शिकोह के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव पण्डितराज का ही रहा, और यही कारण था कि मुगल वंश का होने के बाद भी दारा मनुष्य बन गया।

मुगल दरबार में अब पण्डितराज के अलंकृत संस्कृत छंद गूंजने लगे थे। उनकी काव्यशक्ति विरोधियों के मुह से भी वाह-वाह की ध्वनि निकलवा लेती। यूँ ही एक दिन पण्डितराज के एक छंद से प्रभावित हो कर शाहजहाँ ने कहा-
“अहा! आज तो कुछ मांग ही लीजिये पंडितजी, आज आपको कुछ भी दे सकता हूँ।”

पण्डितराज ने आँख उठा कर देखा, दरबार के कोने में एक हाथ माथे पर और दूसरा हाथ कमर पर रखे खड़ी एक अद्भुत सुंदरी पण्डितराज को एकटक निहार रही थी। अद्भुत सौंदर्य, जैसे कालिदास की समस्त उपमाएं स्त्री रूप में खड़ी हो गयी हों।

पण्डितराज ने एक क्षण को उस रूपसी की आँखों मे देखा, मस्तक पर त्रिपुंड लगाए शिव की तरह विशाल काया वाला पण्डितराज उसकी आँख की पुतलियों में झलक रहा था।

पण्डित ने मौन के स्वरों से ही पूछा- “चलोगी ?”
लवंगी की पुतलियों ने उत्तर दिया- “अविश्वास न करो पण्डित! प्रेम किया है!”…

पण्डितराज जानते थे यह एक नर्तकी के गर्व से जन्मी शाहजहाँ की पुत्री ‘लवंगी’ थी।
एक क्षण को पण्डित ने कुछ सोचा, फिर ठसक के साथ मुस्कुरा कर कहा-

न याचे गजालिं न वा वाजिराजन्
न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदाचित्।
इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुम्भा,
लवंगी कुरंगी दृगंगी करोतु।।

एक ही क्षण में तलवारें निकल गयीं। क्योंकि आज तक के इतिहास में कभी मुगलों ने अपनी कन्या नहीं दी थी। परन्तु

शाहजहाँ मुस्कुरा उठा!
कहा-
“लवंगी तुम्हारी हुई पण्डितराज।”

यह भारतीय इतिहास की एकमात्र घटना है, जब किसी मुगल ने किसी हिन्दू को बेटी दी थी ।

लवंगी अब पण्डित राज की पत्नी थी।
युग बीत रहा था। पण्डितराज दारा शिकोह के गुरु और परम् मित्र के रूप में ख्यात थे। समय की अपनी गति है। शाहजहाँ के पराभव, औरंगजेब के उदय और दारा शिकोह की निर्मम हत्या के पश्चात पण्डितराज के लिए दिल्ली में कोई स्थान नहीं रहा।
पण्डित राज दिल्ली से बनारस आ गए, साथ थी उनकी प्रेयसी लवंगी।

बनारस तो बनारस है, वह अपने ही ताव के साथ जीता है। बनारस किसी को इतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर लेता। और यही कारण है कि बनारस आज भी बनारस है, नहीं तो अरब की तलवार जहाँ भी पहुँची वहाँ की सभ्यता-संस्कृति को खा गई। यूनान, मिश्र, फारस, इन्हें सौ वर्ष भी नहीं लगे समाप्त होने में, बनारस हजार वर्षों तक प्रहार सहने के बाद भी “ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा….” गा रहा है।

बनारस ने एक स्वर से पण्डितराज को अस्वीकार कर दिया। कहा-
“लवंगी आपके विद्वता को खा चुकी, आप सम्मान के योग्य नहीं।”

तब बनारस के विद्वानों में पण्डित अप्पय दीक्षित और पण्डित भट्टोजि दीक्षित का नाम सबसे प्रमुख था, पण्डितराज का विद्वत समाज से बहिष्कार इन्होंने ही कराया। पर पण्डितराज भी पण्डितराज थे, और लवंगी उनकी प्रेयसी। जब कोई कवि प्रेम करता है तो कमाल करता है।
पण्डितराज ने कहा-
“लवंगी के साथ रह कर ही बनारस की मेधा को अपनी सामर्थ्य दिखाऊंगा।”

पण्डितराज ने अपनी विद्वता दिखाई भी, पंडित भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित काव्य “प्रौढ़ मनोरमा” का खंडन करते हुए उन्होंने “प्रौढ़ मनोरमा कुचमर्दनम” नामक ग्रन्थ लिखा। बनारस में धूम मच गई, पर पण्डितराज को बनारस ने स्वीकार नहीं किया।

पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई, पण्डित अप्पय दीक्षित द्वारा रचित “चित्रमीमांसा” का खंडन करते हुए “चित्रमीमांसाखंडन” नामक ग्रन्थ रच डाला।
बनारस अब भी नहीं पिघला, बनारस के पंडितों ने अब भी स्वीकार नहीं किया पण्डितराज को।

पण्डितराज दुखी थे, बनारस का तिरस्कार उन्हें तोड़ रहा था।
आषाढ़ की सन्ध्या थी। गंगा तट पर बैठे उदास पण्डितराज ने अनायास ही लवंगी से कहा- गोदावरी चलोगी लवंगी? वह मेरी मिट्टी है, वह हमारा तिरस्कार नहीं करेगी।

लवंगी ने कुछ सोच कर कहा- गोदावरी ही क्यों, बनारस क्यों नहीं? स्वीकार तो बनारस से ही करवाइए पंडितजी।
पण्डितराज ने थके स्वर में कहा- “अब किससे कहूँ, सब कर के तो हार गया…”

लवंगी मुस्कुरा उठी, “जिससे कहना चाहिए उससे तो कहा ही नहीं। गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती। गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया।”

पण्डितराज की आँखें चमक उठीं। उन्होंने एकबार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था- “प्रेम किया है पण्डित! संग कैसे छोड़ दूंगी?”

पण्डितराज उसी क्षण चले, और काशी के विद्वत समाज को चुनौती दी-“आओ कल गंगा के तट पर, तल में बह रही गंगा को सबसे ऊँचे स्थान पर बुला कर न दिखाया, तो पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग अपनी शिखा काट कर उसी गंगा में प्रवाहित कर देगा……”

पल भर को हिल गया बनारस, पण्डितराज पर अविश्वास करना किसी के लिए सम्भव नहीं था। जिन्होंने पण्डितराज का तिरस्कार किया था, वे भी उनकी सामर्थ्य जानते थे।

अगले दिन बनारस का समस्त विद्वत समाज दशाश्वमेघ घाट पर एकत्र था।
पण्डितराज घाट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ गए, और #गंगालहरी का पाठ प्रारम्भ किया। लवंगी उनके निकट बैठी थी।

गंगा बावन सीढ़ी नीचे बह रही थीं। पण्डितराज ज्यों ज्यों श्लोक पढ़ते, गंगा एक एक सीढ़ी ऊपर आतीं। बनारस की विद्वता आँख फाड़े निहार रही थी।

गंगालहरी के इक्यावन श्लोक पूरे हुए, गंगा इक्यावन सीढ़ी चढ़ कर पण्डितराज के निकट आ गयी थीं। पण्डितराज ने पुनः देखा लवंगी की आँखों में, अबकी लवंगी बोल पड़ी- “क्यों अविश्वास करते हो पण्डित? प्रेम किया है तुमसे…”
पण्डितराज ने मुस्कुरा कर बावनवाँ श्लोक पढ़ा। गंगा ऊपरी सीढ़ी पर चढ़ीं और पण्डितराज-लवंगी को गोद में लिए उतर गईं।

बनारस स्तब्ध खड़ा था, पर गंगा ने पण्डितराज को स्वीकार कर लिया था।
तट पर खड़े पण्डित अप्पय जी दीक्षित ने मुंह में ही बुदबुदा कर कहा- “क्षमा करना मित्र, तुम्हें हृदय से लगा पाता तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझता, पर धर्म के लिए तुम्हारा बलिदान आवश्यक था। बनारस झुकने लगे तो सनातन नहीं बचेगा।”

युगों बीत गए। बनारस है, सनातन है, गंगा है, तो उसकी लहरों में पण्डितराज भी हैं।
साभार

सोमवार, 7 अगस्त 2023

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।।श्रीहरिः।।

माहेश्वरसूत्रमें ईश्वरका रूप



 माहेश्वरसूत्र—अइउण्, ऋलृक्, एओङ्, ऐऔच्, हयवरट्, लण्, ञमङणनम्, झभञ्, घढधष्, जबगडदश्, खफछठथचटतव्, कपय्, शषसर्, हल् ।

          रुद्रके डमरूसे उत्पन्न माहेश्वरसूत्रोंसे सर्वप्रपञ्चका प्रादुर्भाव हुआ है । माहेश्वरसूत्रोंका रहस्य जाननेसे सर्वप्रपञ्चका रहस्य खुल जाता है । भाषाके स्वरोंका वास्तविक गूढ़ अर्थ नन्दिकेश्वरकी ‘काशिका’ में प्राप्य है । सङ्गीतके स्वरोंका और भाषाके स्वरोंका सम्बन्ध ‘रुद्रडमरूद्भवसूत्रविवरण’ में मिलता है । माहेश्वरसूत्रका प्रथम सूत्र ‘अ इ उ ण्’ है । प्रथम स्वर ‘अ’ कण्ठमें स्थित है, उसका उच्चारण बिना प्रयत्नके होता है । अकार सर्वस्वरोंका आधार एवं कारण है—

               अकारो वै सर्ववाक्

          ‘अ’ निर्गुण ब्रह्मका द्योतक है ।

अकारो ब्रह्मरूपः स्यान्निर्गुणः सर्ववस्तुषु ।
                         ( नन्दिकेश्वरः )

अक्षराणामकारोऽस्मि ( गीता )

          सङ्गीतमें ‘अ’ का रूप आधारभूत स्वर षड्‌ज है । इसके बिना किसी भी स्वरका अस्तित्व नहीं है । 

‘अ इ उ ण् सरिगाः स्मृताः ।’ ( रुद्रडमरू० २६ )

          दूसरे स्वर ‘इ’ का स्थान तालु है । प्राणके बाहर निकालनेकी प्रवृत्ति ‘इ’ शब्दका कारण है । ‘इ’ शक्ति या प्रवृत्ति आदिका द्योतक है । उसको ‘कामबीज’ भी कहते हैं—

इकारः सर्ववर्णानां शक्तित्वात्कारणं मतम् ।
                         ( नन्दिकेश्वरः ७ )

          शक्तिका द्योतक होनेसे ‘इ’ कार सर्व वर्णोंका कारण है । 

अकारो ज्ञप्तिमात्रं स्यादिकारश्चित्कला मता ।
                         ( नन्दिकेश्वरः ९ )

          अकार ज्ञानस्वरूप मात्र है, इकार ज्ञानसाधन चित् है ।

शक्तिं विना महेशानि प्रेतत्वं तस्य निश्चितम् ।
शक्तिसंयोगमात्रेण कर्मकर्ता सदाशिवः ॥

          शक्तिरूप इकारके बिना शिव ‘शव’ होता है । शक्ति-संयोगमात्रसे सदाशिव कर्म कर सकते हैं । 

          सङ्गीतमें ‘इ’ शिवका वाहन, वीर्य एवं शक्तिरूप ऋषभ होता है । उसके श्रवणसे वीर-रस उत्पन्न होता है; उसका भाव बलवान्, शक्तिमान् विदित होता है । 

          जब कण्ठ, जिह्वा आदि ‘इ’ कारके उच्चारणके लिये तैयार किये जायें और बिना किसी भी अंशके बदले ‘अ’ के उच्चारणका प्रयत्न होता है, तब फलरूप ‘उ’ कार निकलता है । ‘उ’ कार ‘इ’ से परिच्छिन्न ‘अ’ का स्वरूप है । उसका अर्थ होता है शक्तिपरिच्छिन्न ब्रह्म अर्थात् सगुण ब्रह्म । 

उकारो विष्णुरित्याहुर्व्यापकत्वान्महेश्वरः ।
                         ( नन्दिकेश्वरः ९ )

          उकार विष्णुनामक सर्वव्यापक ईश्वरका स्वरूप है । 

          सङ्गीतमें ‘उ’ कार गान्धार स्वर है ( आधुनिक सङ्गीतका कोमल गान्धार ) । वह शृंगार-रस एवं करुण-रसको उत्पन्न करता है । विष्णुदर्शनकी सुन्दरताका अनुभव गान्धार स्वरसे कहा जा सकता है । गान्धार वाक्‌का वाहन है, दिव्य गन्धोंसे भरा है ।

गां धारयति [ गां वाचं धारयति ] इति गान्धारः ॥
                              ( क्षीरस्वामी )

          वाक्‌का वाहन होनेसे गान्धार कहा जाता है । 

नानागन्धवहः पुण्यो गान्धारस्तेन हेतुना ॥
                              ( ना० शि० )

          शुद्ध होने एवं अनेक गन्धका वाहन होनेसे गान्धार कहा जाता है । 

तीन ग्राम

          तीन स्वर सर्व सङ्गीतके आधार होनेसे तीन ग्रामोंके आधारभूत स्वर माने जाते हैं—

स ग्रामस्त्विति विज्ञेयस्तस्य भेदास्त्रयः स्मृताः ।
ॱॱॱॱॱॱषड्‌ज‌ऋषभगान्धारास्त्रयाणां जन्महेतवः ॥
                   ( भरतमुनिप्रणीत गीतालंकार )

          तीन ग्राम हैं, जिनके आधार षड्‌ज, ऋषभ और गान्धार हैं । ऋषभ ग्राम अन्य दोनोंके बीचमें होनेसे ‘मध्यग्राम’ या ‘मध्यमग्राम’ कहा जाता है ।

ब्रह्म-मायास्वरूप ‘ऋलृक्’

          माहेश्वरसूत्रका दूसरा सूत्र नपुंसक स्वरोंका सूत्र है । उनकी प्रधानता नहीं होती । सङ्गीतमें दोनों स्वर ‘काकली’ एवं ‘अन्तर’ नामसे प्रसिद्ध हैं—

सप्तैव ते स्वराः प्रोक्तास्तेषु ऋ लृ नपुंसकौ ॥

          ‘ऋ’ मूर्धन्य स्वर है । इसका अर्थ ऋत अर्थात् परमेश्वर है । ‘ऋ परमेश्वरः इत्यत्र’—

ऋतं सत्यपरं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम्’ इति श्रुतिप्रमाणम् ।

‘तं तत्पदार्थं परं ब्रह्म ऋ सत्यमित्यर्थः ।’
                         ( अभिमन्यु-टीका ) 

          सङ्गीतमें ऋ अन्तर स्वर कहा जाता है, जो आधुनिक शुद्ध गान्धार है । उसका शान्त रस है । 

          ‘लृ’ दन्त्य स्वर है । यह परमेश्वरकी वृत्ति या शक्ति है । दाँत मायाके संकेत हैं—

दन्ताः सत्ताधरास्तत्र मायाचालक उच्यते ॥

          शक्तिमान् अपनी शक्तिसे अभिन्न होता है । जैसे चन्द्र चन्द्रिकासे या शब्द अर्थसे अभिन्न है, वैसे ही ऋ लृसे वास्तवमें अभिन्न है । 

वृत्तिवृत्तिमतोरत्र भेदलेशो न विद्यते ।
चन्द्रचन्द्रिकयोर्यद्वद्यथा वागर्थयोरपि ॥
                         ( नन्दिकेश्वरः ११ )

          सङ्गीतमें लृ ‘काली’ नामसे प्रसिद्ध है । वह आधुनिक शुद्ध निषाद है, जिसका भाव शृंगार है । अर्थात् वृत्तिरूप काम — सोऽकामयत ।

ज्ञान-विज्ञान ‘ए ओ ङ्’

          उच्चारणके केवल पाँच स्थान हैं, इसलिये शुद्ध स्वर केवल पाँच होते हैं । वैसे ही शैव सङ्गीतमें आधारभूत ग्राम पाँच स्वरोंके हैं । 

          अकार एवं इकारका मिला हुआ रूप एकार है । इकार अर्थात् शक्तिमें अकार अर्थात् ब्रह्मका प्रवेश एकारका अर्थ है । इसलिये एकार ज्ञानस्वरूप है अर्थात् परमतत्त्वकी प्राप्तिका द्योतक है । टीकाकार अभिमन्यु एकारको—

सम्प्रज्ञानस्वरूपः प्रज्ञानात्मा स्वयं प्रविश्य तद्रूपेण वर्त्तत इति ।

          —कहते हैं । 

          सङ्गीतमें एकार मध्यम स्वर कहा जाता है । उसका रस शान्त रस है । चन्द्रमा उसकी मूर्ति है । 

     ‘ए ओ ङ् मपौ’ ( रुद्रडमरू० २६ )

          अकार एवं उकारका मिला हुआ रूप ओकार है । अकार अर्थात् परब्रह्मका उकार अर्थात् उनसे उत्पन्न प्रपञ्चमें प्रवेश ‘ओ’ का स्वरूप है । 

     तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशदिति । 

          ‘अ’ निर्गुणरूप है और ‘उ’ सगुणरूप । सगुणमें निर्गुण ‘ओ’ का रहस्य है । अत‌एव ‘ओ’ कारसे प्रणव बनता है । निर्गुण-सगुणकी वास्तविक अद्वितीयताका द्योतक ओकार है । 

          सङ्गीतमें ‘ओ’ पञ्चम स्वर कहा जाता है । स्वर-क्रममें पाँचवाँ स्वर होनेसे एवं कारण-तत्त्व आकाशका द्योतक होनेसे पञ्चम स्वरका मूर्तरूप सूर्य है । पञ्चम स्वर सुननेसे सब जीव आनन्दपूर्ण हो जाते हैं । 

विश्वमें दिव्यरूप ( ऐ औ च् )

          ‘ए’ कारमें ‘अ’ कारका मिला हुआ रूप ‘ऐ’ कार है । ‘ओ’ कारमें ‘अ’ कारका मिला हुआ रूप ‘औ’ कार है । अतः ‘ए’ अर्थात् ज्ञानसे ‘अ’ अर्थात् परब्रह्मका सम्बन्ध ऐकार है, सङ्गीतमें ‘ऐ’ धैवत स्वर कहा जाता है । 

     ‘ध नि ऐ औच्’ ( रुद्रडमरू० ) 

          धैवत स्वरके दो रूप होते हैं । एक रूप शान्त पूर्ण मृदु रस और दूसरा रूप क्रियास्वरूप है । 

          ‘औ’ कार अर्थात् ‘ओ’ में ‘अ’ का मिला हुआ स्वरूप विश्वमें परमतत्त्वकी व्यापकताका द्योतक है । 

          सङ्गीतमें ‘औ’ कार निषाद नामसे प्रसिद्ध है । आधुनिक सङ्गीतका यह कोमल निषाद है, यह अन्तिम स्वर या स्वरोंकी पराकाष्ठा माना जाता है । 

निषीदन्ति स्वराः सर्वे निषादस्तेन कथ्यते ।
                              ( बृहद्देशी )

          जो उपनिषदोंका तत्त्व है, वही निषाद कहा जाता है । वासुदेव उसका नाम भी है । 

          इसी तरह व्याकरण एवं सङ्गीतके स्वरोंके अर्थका समन्वय होता है । अत्यन्त संक्षेपमें उसका रूप यहाँ बतलाया गया है । फिर स्वरोंके बाद व्यञ्जनों एवं श्रुतियोंके अर्थ भी मिलते हैं । लेख-विस्तारके भयसे इसका विस्तार यहाँ नहीं किया!! 

गुरुवार, 13 जुलाई 2023

श्लोकचतुष्टयम्।।

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।। महाकवि कालिदासस्य श्लोकचतुष्टयम्।।




कालिदासस्य सर्वस्वमभिज्ञानशाकुन्तलम् ।।
तत्रापि च चतुर्थोऽङ्को यत्र याति शकुन्तला।
तत्रापि च चतुर्थोऽङ्कः तत्र श्लोकचतुष्टयम्।।

यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया
कण्ठस्स्तम्भितबाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडन्दर्शनम्।
वैक्लव्यम्मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः।
पीड्यन्ते गृहिणः कथन्नु तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः।।४•६।।

पातुन्न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या
नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्।
आद्ये वः कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम् ।।४•९।।

अस्मान् साधु विचिन्त्य संयमधनानुच्चैः कुलञ्चात्मन-
त्वय्यस्याः कथमप्यबान्धवकृतां स्नेहप्रवृत्तिञ्च ताम्।
सामान्यप्रतिपत्तिपूर्वकमियन्दारेषु दृश्या त्वया
भाग्यायत्तमतः परन्न खलु तद्वाच्यं वधूबन्धुभिः।।४•१७।।

शुश्रूषस्व गुरून् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने
भर्तुर्विप्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपङ्गमः।
भूयिष्ठम्भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी
यान्त्येवङ्गृहिणीपदं युवतयो वामा: कुलस्याधयः।।४•१८।।

गुरुवार, 6 जुलाई 2023

कुछ गृन्थों के मङ्गलाचरणम्

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कुछ गृन्थों के मङ्गलाचरणम्




1.कादम्बरी (बाणभट्ट) कथा


नमस्कारात्मक मंगलाचरण, त्रिगुणमय परब्रहा की स्तुति , वंशस्थ छन्द

रजोजुषे जन्मनि सत्ववृत्तये स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे।

अजाय सर्गस्थितिनाशहेतवे त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः।।१।।

हिन्दी-अनुवाद- (जो) प्राणियों के प्रादुर्भाव काल में रजोगुण युक्त (अर्थात् ब्रह्मा के रूप में), स्थिति-काल में सात्त्विक वृत्ति वाला (अर्थात् सत्त्वगुणयुक्त विष्णु के रूप में) तथा प्रलयकाल में तमोगुण स्पर्शी (अर्थात् तमोगुण युक्त प्रलयङ्कर शिव के रूप में) होता है। (संसार की) सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय (विनाश) के कारण बनने वाले, वेदत्रयी में व्याप्त, त्रिगुणस्वरूप एवं अजन्मा (उस) परब्रह्म को नमस्कार है।।१।।

जयन्ति बाणासुरमौलिलालिता दशास्यचूडामणिचक्रचुम्बिनः।

सुरासुराधीशशिखान्तशायिनो भवच्छिदस्त्र्यम्बकपादपांसवः।।२।।

हिन्दी-अनुवाद- असुरराज बाण द्वारा (आदरपूर्वक) सिर-माथे लगाई गई, लंकापति रावण के शिरोमणि-समूह को चूमने वाली देवताओं तथा राक्षसों के अधिपतियों के शिखाग्रभाग पर शयन करने वाली, भवबंधन काटने वाली , त्रिनेत्रधारी भगवान शिव की चरणधूलि विजयिनी बनें।।२।।

जयत्युपेन्द्रः स चकार दूरतो बिभित्सया यः क्षणलब्धलक्ष्यया।

दृशैव कोपारुणया रिपोरुरः स्वयं भयाद्धिन्नमिवास्त्रपाटलम्।।३।।

हिन्दी-अनुवाद- (नृसिंह रूपधारी, देवराज इन्द्र के अनुजकल्प) ठन उपेन्द्र की जय हो जिन्होंने विदीर्ण कर देने की इच्छा से दूर से (ही) क्षणमात्र में लक्ष्य को प्राप्त कर लेने वाली (अतएव) क्रोध के कारण रक्तवर्णा दृष्टि से ही शत्रुकल्प हिरण्यकशिपु के वक्ष:स्थल को इस प्रकार अस्पताल अर्थात् रुधिर की भाँति श्वेत रक्त बना दिया था, मानो विदारणाय से वह अपने आप फट गया हो।।३।।

नमामि भोश्चरणाम्बुजद्वयं सशेखरैः मौखरिभिः कृतार्चनम्।

समस्तसामन्तकिरीटवेदिकाविटङ्कपीठोल्लुठितारुणाङ्गुलि।।४।।

हिन्दी-अनुवाद- मुकुट धारण करने वाले मौखरि क्षत्रियों द्वारा समर्पित तथा समस्त सामन्तों (अधीनस्थ प्रदेशाधिपतियों) की किरीटरूपी वेदिकाओं की मध्यवर्तिनी विटङ्कभूमि (अर्थात् उन्नत प्रदेश) पर रगड़ जाने के कारण लाल हो जाने वाली (गुरुदेव) भारवि (भत्सु) के चरणकमलयुगल की मैं (बाणभट्ट) वन्दना करता हूँ।।४।।

अकारणाविष्कृतवैरदारुणादसज्जनात्कस्य भयं न जायते।

विषं महादेव यस्य दुर्वचः सुदुःसहं सन्निहितं सदा मुखे।।५।।

हिन्दी-अनुवाद-बिना किसी कारण के ही वैरभाव प्रकट करने वाले अतएव क्रूर दुष्टपुरुष से किसे भय नहीं उत्पन्न होता, जिसके मुख में अत्यन्त दुस्सह दुर्वचन उसी प्रकार सदैव भरा रहता है जैसे महासर्प के मुख में अत्यन्त असह्य विष सदैव भरा रहता है।।५।। 

 

2. अभिज्ञानशाकुन्तलम्

या सृष्टि: स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री
ये द्वे कालं विधत्त: श्रुतिविषयगुणा: या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहु: सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिन: प्राणवन्त:
प्रत्यक्षाभि: प्रपन्नस्तुनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीश:।।

स्रग्धरा छन्द ,, अनुप्रास एंव समासोक्ति अलंकार , आशीर्वादात्मक मंगलाचरण , अष्टमूर्ति भगवान शिव की

 स्तुति ।अष्टपदात्मिका पत्रलवी नामक नान्दी।

शब्दार्थ
जिस सृष्टि को ब्रह्मा ने सबसे पहले बनाया, वह अग्नि जो विधि के साथ दी हुई हवन सामग्री ग्रहण करती है, वह होता जिसे यज्ञ करने का काम मिला है, वह चन्द्र और सूर्य जो दिन और रात का समय निर्धारित करते हैं, वह आकाश जिसका गुण शब्द हैं और जो संसार भर में रमा हुआ है, वह पृथ्वी जो सब बीजों को उत्पन्न करने वाली बताई जाती है, और वह वायु जिसके कारण सब जीव जी रहे हैं अर्थात् उस सृष्टि, अग्नि, होता, सूर्य, चन्द्र, आकाश, पृथ्वी और वायु इन आठ प्रत्यक्ष रूपों में जो भगवान शिव सबको दिखाई देते हैं, वे शिव आप लोगों का कल्याण करें।

3. मेघदूतम्-

कश्चित्‍कान्‍ता विरहगुरुणा स्‍वाधिकारात्‍प्रमत: 

शापेनास्‍तग्‍मितमहिमा वर्षभोग्‍येण भर्तु:। 

यक्षश्‍चक्रे जनकतनया स्‍नानपुण्‍योदकेषु

स्निग्‍धच्‍छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण कश्चित शब्द ब्रहा का वाचक है अतः मांगलिक है)

कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि वर्ष-भर पत्‍नी का भारी विरह

 सहो। इससे उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के आश्रमों में बस्‍ती बनाई जहाँ घने छायादार पेड़ थे और

 जहाँ सीता जी के स्‍नानों द्वारा पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे।

4. नीतिशतकम् -

दिक्‍कालाद्यनवच्छिन्‍नानन्‍तचिन्‍मात्रमूर्तये । 

स्‍वानुभूत्‍येकमानाय नम: शान्‍ताय तेजसे ।।1

नमस्कारात्मक मंगलाचरण ब्रहा को नमस्कार ।

अनुष्टुप छन्द , अनुप्रास एंव स्वभावोक्ति अलंकार

 दिशाओं और कालों से अपरिमित (मापा न जा सकने वाले), अनन्‍त तथा चैतन्‍यस्‍वरूप वाले, केवल व्‍यक्तिगत अनुभवों से जाने जा सकने वाले, शान्ति और ज्‍योति स्‍वरूप उस परब्रह्म को प्रणाम है ।

 

5. शिवराजविजयम्-


"विष्णोर्माय भगवती यया स्मोहितं जगत" *(भागवत-10/1/25*)

"हिस्त्रः स्वपापेन विहिंसितः खलः साधुः समत्वेन भयाद् विमुच्यते" *(भागवत--10/7/31*)

वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण भगवान विष्णु तथा उनकी ऐश्वर्यशालिनी माया का कथन है ।।

 

6. किरातार्जुनीयम्


श्रियः कुरूणामधिपस्य पालनीं प्रजासु वृत्तिं यमयुङ्क्त वेदितुम् ।

स वर्णिलिङ्गी विदितः समाययौ युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचरः ।।

वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण लक्ष्मी की स्तुति , वंशस्थ छन्द।

7. उत्तररामचरितम्-


इदं कविभ्यः पूर्वेभ्यो नमोवाकं प्रशास्महे।विन्देम देवतां वाचममृतामात्मनः।।

नमस्कारात्मक मंगलाचरण स्तुति सरस्वती(वाक् देवी)

द्वादश पद नान्दी का प्रयोग , पथ्यावक्त्र छन्द , श्लेष अलंकार।









नीतिशतकम् मङ्गलाचरणम्

sanskritpravah




सम्‍प्रति आरभ्‍यते नीतिशतकमस्‍माभि: । सुभाषितग्रन्‍थेषु अन्‍यतम: ग्रन्‍थ: अयं प्रशिक्षित-स्‍नातक-परीक्षायाम् पाठ्यक्रमे निबद्ध: विद्यते अतएव अत्र एतस्‍य ग्रन्‍थस्‍य सर्वेषां मन्‍त्राणां प्रकाशनं सार्थ करिष्‍यते ।

मङ्गलाचरणम् 

दिक्‍कालाद्यनवच्छिन्‍नानन्‍तचिन्‍मात्रमूर्तये । 
स्‍वानुभूत्‍येकमानाय नम: शान्‍ताय तेजसे ।।1

शब्‍दार्थ -

सरलार्थ: - प्राच्‍यादिदिशाभि:, कालै: च यस्‍य मापनं नैव शक्‍यं विद्यते, य: अन्‍त‍रहित: अस्ति, य: परमज्ञानस्‍वरूपम्, केवलं अनुभवेन एव ज्ञातुं शक्‍य: अस्ति, य: शान्तिस्‍वरूपम्, ज्‍योतिस्‍वरूपम् च अस्ति तस्‍मै परमात्‍मने नमस्‍कृयते ।

छन्‍द: - अनुष्‍टुप छन्‍द:
छन्‍दलक्षणम् - पंचमं लघु सर्वत्र, सप्‍तमं द्विचतुर्थयो: । षष्‍ठं गुरु विजानीयादेतत्‍पद्यस्‍य लक्षणम् ।

हिन्‍दी - दिशाओं और कालों से अपरिमित (मापा न जा सकने वाले), अनन्‍त तथा चैतन्‍यस्‍वरूप वाले, केवल व्‍यक्तिगत अनुभवों से जाने जा सकने वाले, शान्ति और ज्‍योति स्‍वरूप उस परब्रह्म को प्रणाम है ।

काव्‍यनुवाद - 
दिशा काल से अपरिमित अविनाशी जगदीश । 
शान्‍त !, तेज !, अनुभूतिगत ब्रह्म ! दास नतशीश ।। 

इति