सोमवार, 25 मार्च 2024

पंचतन्त्र

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पञ्चतन्त्र इतिहास में सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय कथाग्रन्थ हैं। इसकी कथाएँ सभी वर्गों के लोगो को रूचिकर और प्रिय लगती हैं।पञ्चतन्त्र के लेखक का नाम विष्णुशर्मा हैं।

पंचतंत्र का समय इतिहासकारों केअनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य (३४५ ई० पू० - ३०० ई० पू०) के समकालीन माना गया है। इस प्रकार इसके लेखन का समय ३०० ५ ई० पू० के लगभग होगा। प्रो० हर्टल इसका समय लगभग २०० ई० पू० मानते हैं। डा. हर्टल और प्रो० एडगर्तत ने पंचतन्त्र के मूलरूप के लिए बहुत परिश्रम किया है।


पंचतंत्र की कथा और शैली :-

\महिलारोप्य, के राजा अमर शक्ति के तीन मूर्ख पूत्रों को को ६ मास में बुद्धिमान तथा राजनीतिक विद्या में पारंगत बनाने का बीड़ा उठाकर विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र की रचना का कार्य प्रारंभ किया और अपनी प्रतिज्ञा को भी उन्होंने पूरा किया। पंचतन में ५ मुख्य कथाएं हैं। प्रत्येक कथा में अनेक अकथाएँ हैं।

प्रत्येक तंत्र में एक-एक नीति - शिक्षा दी है।

तत्रों के नामादि इस प्रकार हैं :-                             

                                                 अकथाएँ                   श्लोकसंख्या                   कथा

1-मित्रभेद                                        22                         ४६१(461)             शेर और बैल की मित्रता तुडवाना

2- मित्रसंप्राप्ति                                 6                           १९९(199)          काक, कछुआ, मृग और चूहे की कहानी

3- काकोलूकीय                                16                          २५५ (255)          काक और उल्लू की कथा

 4- लब्धप्रणाश                                 11                          ८० (80)              बन्दर और मगर की कथा

5- अपरीक्षितकारक                         14                           ८८ (88)              ब्राहमणी और न्याले की कथा

मित्रभेद में यह ज्ञान दिया गया है कि किस प्रकार दो मित्रों में झगड़ा करा दिया जाए। शेर निगलक और बैल संजीवक घनिष्ट मित्र थे। करतक और दमनक नामक दो गीदड़ो ने उनमें फूट डाल दी और बैल की हत्या करवा दी।

 मित्रसंप्राप्ति में नीतिशिक्षा है कि अनेक उपयोगी मित्र बनाने चाहिए। कौआ, कछुआ, हिरन और चूहा साधनहीन होने पर भी मित्रता के बल पर सुखी रहे।

काकोलूकीय में नीति शिक्षा है कि स्वार्थसद्धि के लिए शत्रु से भी मित्रता कर ले और बाद में उसे धोखा देकर नष्ट कर दे  अर्थात् सन्धि-विग्रह की शिक्षा। कौआ उल्लू 'से मित्रता कर लेता है और बाद में उल्लू के किले में आग लगा देता है।

लब्ध-प्रणाश में नीतिशिक्षा है कि वुद्धिमान् बुद्धि-बल में जीत जाता है और मूर्ख हाथ में आई हुई वस्तु से भी हाथ खो बैठता है। बन्दर और मगर की मित्रता होती है। मगर की पत्नी बन्दर का मीठा दिल चाहती है। बन्दर मगर से यह कहकर जान बचाता है कि मेरा दिल पेड़ पर छूट गया है, अत: किनारे पहुँचा दो। बदर भाग जाता है और मगर मूँह ताकता रह जाता है। हाथ में आई हुई वस्तु भी मुर्खता से हाथ से निकल जाती है। 

अपरीक्षित-कारक की नीति शिक्षा है कि बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताए। ब्राह्मणी ने अपने प्रिय तथा सर्प से शिशु की रक्षा करने वाले नेवले की चट समझ कर हत्या कर दी कि उसने बच्चे को मार डाला है। वह बिना विचारे काम करने से बाद में पछताती है।

पंचतन्त्र का विश्वव्यापी प्रचार

पशुकथा के माध्यम से राजनीति की शास्त्र शिक्षा देने के कारण पंचतन्त्र का विश्वव्यापी प्रचार हुआ है। बाइबिल के बाद इसका ही संसार में सबसे अधिक प्रचार है। इसके लगभग २५० संस्करण विश्व की ५० से अधिक भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से तीन-चौथाई भाषाएँ भारत से बाहर की हैं। एशिया और यूरोप में ही नहीं, अपितु अन्य महाद्वीपों में भी इसका प्रचार प्रसार है।

कादम्बरी की कथा

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कादंबरी की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है।

विदिशा नगरी के राजा थे शुद्रक,जो अत्यंत प्रतापी और कलाविद् थे ।एक दिन प्रातः वे अपनी राज्यसभा में बैठे थे तभी प्रतिहारी ने आदेश प्राप्त कर एक चांडाल कन्या को सभा में प्रवेश कराया । चांडाल कन्या के हाथ में सोने का पिंजरा था ,जिसमें वैशंपायन नाम का शुक था। शुक़ ने अपना दाहिना चरण उठाकर श्लोक द्वारा राजा का अभिवादन किया।
शुक द्वारा राजा शूद्रक के समक्ष कथा का आरंभ - इस शुक के विषय में राजा को महान कौतूहल हुआ और चांडाल कन्या तथा शुक के भोजन एवं विश्राम कर लेने को कहा। शुक ने अपनी कथा सुनाई और बताया कि वह विंध्याटवी में अपने वृद्ध पिता के साथ रहता था ,एक बहेलिए ने अन्य शुकों के साथ उसके पिता का वध कर दिया और नीचे फेक दिया।पिता के पंखों के भीतर छिपकर वह भी नीचे गिरा, किन्तु बच गया।

अपने प्राण बचाने के लिए वह झाड़ियों में छिप गया और बहालिए के जाने के बाद उस मार्ग से जाने वाले ऋषिकुमार हारित उसे दयावश अपने साथ ले कर महर्षि जबिल के आश्रम आये। जाबिल ने अपने शिष्यों को शुक के पूर्व जन्म की कथा कुछ इस प्रकार सुनाई।

जाबिल द्वारा आश्रम के शिष्यों के समक्ष शुक के पूर्वजन्म तथा चंद्रापीड की कथा सुनाना -

उज्जैनी में तारा पीड नाम के राजा थे। उनकी महारानी का नाम विलास्वती था। राजा के महामंत्री का नाम शुकनास और महामंत्री की पत्नी का नाम मनोरमा था।

बहुत दिनों की पूजा अर्चना के बाद राजा तरापीड को पुत्र की प्राप्ति हुई और उसी दिन शूकनास के यहां भी

एक पुत्र ने जन्म लिया ।राजा के पुत्र का नाम चंद्रापी़ड तथा शुखनास के पुत्र का नाम वैशंपायन रखा गया।

दोनों ने साथ साथ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की। चंदरापीड के गुरुकुल से लौटने पर पिता तारापीड ने उसका युवराजयाभिषेक किया। इस अवसर के पूर्व चंद्रापीड मंत्री शुकनास के पास गया और शुकनास ने एक सारगर्भित उपदेश दिया,जो शुकनासोपदेश नाम से प्रसिद्ध है।अभिषेक के बाद चंद्रापीड दिग्विजय यात्रा पर निकला। अनेक राजाओं को परास्त कर वह हिमालय के निकट विश्राम करने के लिए रुका। एक दिन शिकार खेलने के लिए निकलने पर उसने किन्नर

मिथुन को देखा और उत्सुकता वश उनका पीछा करते हुए बहुत दूर निकल गया।किन्नर मिथुन अदृश्य हो गए ,तब जल की खोज में वह अच्छोद सरोवर के पास पहुंचा। वहां जल पीकर अपने अश्व को बांधकर विश्राम करने लगा तभी उसे वीणा की ध्वनि सुनाई पड़ी, जिसकी खोज करते हुए उसने सरोवर के तट पर स्थित शिव के मंदिर में वीणा बजाकर स्तुति करती हुई एक युवती को देखा।उसे देखकर वह चकित हुआ। युवती उसे अपने आश्रम में ले गई और उसने फल आदि से चंद्रापीड का सत्कार किया। चंद्रापीद के आदरपूर्वक प्रश्न करने पर उस युवती ने, जिसका नाम महाश्वेता था, अपनी कथा इस प्रकार सुनाई।



महाश्वेता द्वारा अपनी कथा सुनाना -

महाश्वेता ने बताया कि वह गंधर्व राज हंस तथा गौरी नाम की अप्सरा की पुत्री हैं।एक दिन वह माता के साथ सरोवर पर अाई तो उसे पुष्प की अद्भुत गन्ध मिली तब उसने एक ऋषिकुमार को देखा जिनके कान के ऊपर अद्भुत गन्ध वाला पुष्प था। साक्षात्कार होते ही दोनों एक दूसरे की ओर प्रेम से आकृष्ट हो गए। ऋषिकुमार का नाम पुंडरीक था। उसके साथ उसका मित्र कपिंजल था। महाश्वेता पुंडरीक से पुष्प लेकर अपने भवन चली आयी, किन्तु पुंडरीक उसके विरह में अतिशय संतप्त हो उठे ।कपिंजल ने महाश्वेता से मिलकर आग्रह किया कि अविलंब पुंडरीक से मिलकर उसके प्राणों को बचा लीजिए।रात्रि को जब उपयुक्त समय देखकर महाश्वेता सरोवर के पास पहुंची तब तक पुंडरीक के जीवन का अंत हो चुका था। महाश्वेता पुंडरीक के शरीर से लिपट कर विलाप करने लगी। उसी समय चंद्रमंडल से एक दिव्य पुरुष निकला और पुंडरीक के शव को लेकर आकाश में चला गया। जाते - जाते उसने महाश्वेता से कहा इससे तुम्हारा अवश्य मिलन होगा। तब से महाश्वेता अपने प्रियतम से मिलने की आशा में भगवान शिव की आराधना में लगी हुई है।



कादंबरी की कथा-

रात्रि में विश्राम के समय महाश्वेता ने चंद्रापीड से अपनी सखी कादंबरी के विषय में बताया कि कादंबरी के विषय में बताया कि कादंबरी गंधर्वराज चित्ररथ की पुत्री है और अपने माता-पिता के बार - बार कहने पर भी विवाह के लिए सहमत नहीं हो रही है। दूसरे दिन महाश्वेता चंद्रापीड को साथ लेकर कादम्बरी से मिलने चली गई। वहां चंद्रापीड को साथ लेकर कादंबरी से मिलने गई। वहां चंद्रापीड और कादंबरी में बातें हुई और वे परस्पर प्रगाढ़ प्रेमबंधन में बन्ध गए।
   कादंबरी से मिलकर वापस महाश्वेता की कुटी में आने पर चंद्रपीड को अपनी सेना मिली और पिता का पत्र मिला, जिसमें उसे तत्काल राजधानी बुलाया गया था। चंद्रापीड ने अपनी पानवाली पत्रलेखा को कादंबरी के पास भेजा और स्वयं राजधानी की ओर चला गया। कुछ दिन बाद पत्रलेखा जब लौटकर राजधानी पहुंची तो उसने चंद्रापीड से कादंबरी की विरहदशा का वर्णन किया।

चंद्रापीड को उसी समय यह सूचना मिली कि उसका मित्र वैशंपायन जो महामंत्री शुकनास का पुत्र था अच्छोद सरोवर में स्नान करने के बाद वहां से लौटना नहीं चाहता, वह वहीं पागल की तरह कुछ ढूंढ़ रहा है।

चंद्रापीड उसे वापस ले आने के लिए चल पड़ा।जब वह महाश्वेता की कुटी में पहुंचा तो उसे रोते हुए पाया। महाश्वेता ने बताया कि एक ब्राह्मण युवक उसके पास आकर प्रणय निवेदन करने लगा, जिस पर कुपित हो कर उसने उसे शुक बनने का शाप दे दिया। वह शुक बन गया तब उसे पता चला कि वह चंद्रपीड का मित्र वैसंपायन था। अपने मित्र से बिछुरने और कादंबरी से मिलने की संभावना होने की दु:ख में चंद्रापीड भी तत्काल निर्जीव होकर भूमि पर गिर पड़ा। उधर कादंबरी यह सुनकर की चंद्रापीड महाश्वेता की कुटी में आए हैं बड़ी आशा से मिलने के लिए अायी, किन्तु उसे उसका शव ही मिला। परम दु:ख से व्यथित होकर वह सती होने के लिए उद्यत हुई, किन्तु एक आकाशवाणी ने उसे आश्वस्त किया कि उसका चंद्रापीड से मिलन होगा। वह चंद्रापीड के मृत शरीर की रखवाली करने लगी। उसी समय पत्रलेखा चंद्रापीड के अश्व को लेकर सरोवर में कूद गई। कुछ समय बाद सरोवर में से एक ब्राह्मण युवक निकला, जो पुंडरीक का मित्र कपिञ्जल था। उसने महाश्वेता को बताया कि पुंडरीक पृथ्वी पर वैसम्पायन शुक के नाम से उत्पन्न हुआ है और वह भी एक ऋषि के शाप से इंद्रायुध नाम का आश्व बन गया था। उसी ने महाश्वेता से यह भी बताया कि उसने जिसे शुक बन जाने शाप दिया था वो और कोई नहीं पुंडरीक था, तब महाश्वेता छाती पीट-पीट कर रोने लगी। कपिञ्जल ने उसे अश्वासन दिया कि अब उसके दुखों का अंत निकट है और वह स्वयं आकाश में चला गया। अपने पुत्रों के मृत्यु का समाचार जानकर राजा तारापीद, महारानी विलास्वाती और महामंत्री ‍‍शुकनास

और उनकी पत्नी मनोरमा भी उस स्थान पर आए। तारपीड वहीं तपस्या में लग गए। मूर्छित कादंबरी होश में आई और चंद्रापीड के शरीर की सेवा में लग गई।



शुक का राजा शुद्रक़ से अपने विषय में बताया -

राजा शुद्रक के समीप चांडालकन्या द्वारा लाए गए शुक ने राजा से अपने विषय में आगे की कथा इस प्रकार बताई - महर्षि जाबिल ने जब अपने शिष्यों को मुझसे संबद्ध जा कथा सुनाई उसे मुझे अपना पूर्वजन्म स्मरण हो आया और मुझे यह ज्ञात हो गया कि मैं ही महामंत्री शुकनास का पुत्र वैशंपायन हूं। जब मेरे पंख निकल आए तब मैं अपने मित्र चंद्रापीड को ढूंढने निकला, किन्तु चांडाल द्वारा पकड़ लिया गया।



चांडाल कन्या द्वारा कथा को पूरी करना -

इसके बाद चांडाल कन्या ने राजा को बताया कि राजा को बताया कि राजा शुद्रक ही चंद्रापीड है। वह स्वयं लक्ष्मी है और वैशंपायन उसका पुत्र है। राजा शुद्रक को अपना पूर्व जन्म याद हो आया। उधर महाश्वेता की कुटी में वसंत छा गया और कादंबरी ने जैसे ही चंद्रापीड के शरीर का आलिंगन किया वह ऐसे जीवित हो उठा जैसे नींद से जागा हो। उसी समय शूद्रक ने भी अपना शरीर त्याग दिया। महाश्वेता की कुटी में कुछ ही क्षण में पुंडरीक अपने मुनिकुमार वाले रूप में प्रकट हुआ और उसका महाश्वेता से मिलन हो गया। सर्वत्र आनंद छा गया।

                     इस प्रकार इस कथा का नायक है चंद्रापीड और नायिका है कादंबरी। सहनायक और सहनायिका हैं - पुंडरीक और महाश्वेता। यह तीन जन्मों को मिली जुली कहानी है,जिसका अधिकांश भाग शुक द्वारा महर्षि ज़ाबिल की कथा के अनुसार शुद्रक से कहा जाता है।

                कादंबरी के आरंभ में बाण ने बीस पद्यों में मंगलाचरण सज्जन की प्रशंसा और दुर्जन की निन्दा, अपने वंश के पूर्वजों का आलंकारिक एवं मनोरम वर्णन, तथा कथा के गुणों का उल्लेख किया है। चंद्रापीड की तांबूल करक वाहिनी पत्रलेखा, जो चंद्रापीड के चले आने पर भी कादंबरी के पास रह गई थी, लौटकर चंद्रापीड की राजधानी आती है इस वर्णन के साथ ही कादंबरी कथा का पूर्वभाग समाप्त होता है। 





शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

प्रसंग

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व्यास जी ने एक स्थान पर कहा...

 'बलवान् इन्द्रियग्रामः विद्वांसमपि कर्षति।' 

             व्यास जी के शिष्य जैमिनि इससे सहमत नहीं हुए। वे विद्वान थे। अपने को इन्द्रियजयी समझते थे। इन्द्रियों का समुदाय विद्वान् को कैसे अपनी ओर खींचता है ? यह वे समझ नहीं पा रहे थे। इसलिये व्यास वाक्य पर अंगुली उठाना उनके लिये स्वाभाविक था। वे इस वाक्य की सत्यता का प्रमाण चाहते थे। समय बीता। कालान्तर में जौमिनि अपनी कुटी में बैठे थे। अरण्य का एकान्त था। वे विचार मग्न थे। इतने में आकाश में बादल घिर आये। शीतल वायु का संचार होने लगा। वर्षा की बूँदें गिरने लगीं। वे देखते हैं- एक युवती कुटी के बाहर खड़ी भीग रही है। वह सलज्ज एवं संकुचित है। उसकी अंग कान्ति विद्युताभ सदृश है। दैहिक आभा मण्डल हिरण्यवर्ण है। अनिन्द्य देह सौष्ठव एवं विमल सौन्दर्य से युक्त उसका रूप माधुर्य आह्लादकारी है। जैमिनि ने उसे कुटी में आने के लिये कहा। वह आयी और इसके लिये मुनि (जैमिनि) को धन्यवाद देते हुए आभार व्यक्त किया। शर्करा समान मीठी वाणी युवती के मुख से निकल कर मुनि के कर्ण कुहरों में गई। वह पद्मिनी थी। उसके शरीर से निकलती हुई पद्म की सुगन्ध ने मुनि के प्राण प्रदेश को अधिकार में लिया। उसकी अनिन्द्य रूप राशि की छटा ने मुनि के नेत्रों में आकर डेरा जमाया। मुनि अपने चक्षु चषक से रूप की मदिरा का पान करने लगे। इसका परिणाम क्या हुआ ? नेत्रों के मार्ग से कामदेव ने जैमिनी के तन मन की गुहा में प्रवेश किया। जैमिनी धर्मात्मा महापुरुष थे। इसलिये उन्होंने उस युवती के साथ एकान्त का लाभ लेते हुए रति हेतु बल का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। उसने एक शर्त रखी शर्त क्या थी ?

जो पुरुष नीचे झुक कर घोड़ा बन कर मुझे अपनी पीठ पर बिठा कर अग्नि की सात प्रदक्षिणा करेगा तथा साथ ही साथ प्रत्येक प्रदक्षिणा के पूरा होने पर ऊपर देख कर गधे के समान शब्द करेगा / रेंकेगा, उसके साथ मेरा विवाह होगा। जैमिनि ने शर्त मान लिया, यह सोच कर कि यहाँ आश्रम में मेरे अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति नहीं है; अतः मेरा घोड़ा बनना तथा गधे की तरह रेंकरना न देखेगा, न सुनेगा, विवाह हो जायेगा। इसे कोई जान नहीं पायेगा। यह सुन्दरी मेरी भोग्या पत्नी बन कर मुझे सुख देती रहेगी। वह युवती प्रसन्न हुई। उसने जैमिनि से अग्नि जलाने को कहा। अग्नि प्रज्ज्वलित हुई। जैमिनि घोड़ा बने। युवती ने जैमिनि की पीठ पर सवारी की। अग्नि की प्रदक्षिणा प्रारंभ हुई। प्रत्येक प्रदक्षिणा के अन्त में जैमिनि ऊपर मुख कर के उस युवती को देख कर गधे की तरह रेंकते थे। अंतिम प्रदक्षिणा के अन्त में जब वे गधे की ध्वनि करने के लिये ऊपर मुँह किये तो उन्होंने अपनी पीठ पर श्वेत दाढ़ी वाले कृष्णकाय व्यास जी को बैठे देखा। जैमिनी को यह समझने में देर नहीं लगी कि यह सब उनके गुरु व्यासजी का खेल उन्हें सत्य से अवगत कराने के लिये था।

जैमिनि ने व्यास को प्रणाम किया और मान लिया कि- 'बलवान् इन्द्रियग्रामः विद्वांसमपि कर्षति' निरपेक्ष सत्य है। इस कथा से यह निष्कर्ष निकलता है कि काम प्रबलतम है। इससे परे कोई जीव नहीं है। चाहे वह देव हो, दानव हो वा मानव हो। जो कोई जीव अपने को इससे ऊपर समझता है और कामजयी होने का दर्प धारण करता है, उसकी वही दशा होती है, जो जैमिनि की हुई नारद की हुई। इस अमित। शक्ति काम को मैं प्रणाम करता हूँ। काम भगवान् विष्णु का नाम है। विष्णु अविनाशी है। इसलिये काम भी अविनाशी है। विष्णु अजेय है तो काम भी अजेय है। काम को कोई जीत नहीं सकता। काम सबको जीतता है। यह सभी प्राणियों में उन्माद के रूप में प्रकट होता है। व्यास वाक्य है...

 'यतः सर्वे प्रसूयन्ते ह्मनङ्गत्माङ्गदेहिनः ।

 उन्मादः सर्वभूतानां तस्मै कामात्मने नमः ।।' 
(महाभारत शान्तिपर्व भीष्मस्तवराज- ५१)

जिस अनंग की प्रेरणा से अंगधारी प्राणियों का जन्म होता है, जिससे समस्त जीव उन्मत्त हो उठते हैं, उस काम के रूप में प्रकट हुए परमेश्वर को नमस्कार । काम उलूखल तथा चक्षु मुसल है। उलूखल में रख कर मुसल मार-मार कर धान को कूटा जाता है। ऐसे ही आँखों से बार-बार देखते रहने से हृदयस्थ काम जागृत होता है। यह मंत्र है...

 (१) 'चक्षुर्मुसलं काम उलूखलम् ।' ( अथर्व. ११ । ३ । ३)

 काम की ब्रह्मण्यता को इस मन्त्र में दिखाया गया है

 (२) ''कोऽदात्कस्मा अदात्कामोऽदात्कामायादात् ।

 कामो दाता कामः प्रतिगृहीता कामैतत्ते ॥" ( यजुर्वेद ७ । ४८)

 कः अदात् कस्मा अदात् कामः अदात् कामाय अदात् ।
 कामः दाता कामः प्रतिग्रहीता काम एतत् ते ॥

 कौन देता है ? किसके लिये देता है ? काम देता है। काम के लिये देता है। काम देने वाला दाता है। काम लेने वाला प्रतिगृहीता (आदाता) है। हे काम ! तुम्हारे लिये यह सब (जगत् व्यापार) है।

 (३) कामो जज्ञे प्रथमो नैनं देवा आपुः पितरो न मर्त्याः ।

 ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि ॥ ( अथर्व ९ । २ । १९ )

कामः प्रथमः जज्ञे = काम सर्वप्रथम प्रकट हुआ।

 एनम् न देवाः आपः न पितरः न मर्त्याः = इसे न देवों ने प्राप्त किया जान पाया न पितरों ने और न मर्त्यों ने। 

ततः त्वम् ज्यायान् विश्वहा महान् असि= इसलिये तू (काम) ज्येष्ठ है, सब का संहार करने वाला है तथा महान् है।

काम ! तस्मै ते नमः इत् कृणोमि= हे काम । उस तेरे लिये (प्रति) ही नमस्कार करता हूँ । काम साक्षात् रुद्र है। यह मन्त्र है ...

 (४) 'जहि त्वं काम मम ये सपत्ना अन्धा तमांस्यव पदयैनान्' -(अथर्व. ९ । २ । १०)

 काम ! त्वम् जहि ये मम सपनाः = हे काम । तू मार डालो, जो मेरे सपन (विरोधी) हैं, उन्हें ।

 अन्या (नि) तमांसि अव पादय एनान् = अन्धा कर देने वाले अन्धकार/ अज्ञान जो हैं, उन्हें अवपादित (नीचे गिरा दो।

" काम ज्येष्ठा इह मादयध्वम् ।' (अथर्व. ९ । २ । ८)

 हे ज्येष्ठ काम । इस लोक (जीवन) में मुझे आनन्दित करो।

 इससे स्पष्ट है; काम आनन्द का उत्स है, आनन्द निर्झर है, सुख का सागर है, हर्षायतन है। वेद में काम देवता है। इसके अषि ब्रह्मा हैं। 

अथकामसूक्तः ।

 (क)
 'कामस्तदग्रे समवर्तत मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् । 

स काम कामेन बृहता सयोनी रायस्पोषं यजमानाय धेहि ॥ १ ॥ ' ( अथर्व १९ । ५२ । १)

 तद् कामः अग्रे समवर्तत = वह काम (ब्रह्म) सर्वप्रथम प्रकट हुआ।

 मनसः यद् प्रथमं आसीत् (स) रेतः = (उस काम के) मन (मनन करने) से जो प्रथम अस्तित्व में आया, वह रेत (बीज) था।

 सः काम ! बृहता कामेन = वह तू हे काम ! बृहत् काम (महेच्छा) के द्वारा।

 यजमानाय धेहि = यजमान (यज्ञकर्ता) को प्रदान कर। 

सयोनी = सयोनि (सशरीर) हो कर, देह धारण कर।

 रायः पोष = धन एवं अन्न वा सम्पत्ति एवं पुष्टि । 

(ख)
 'त्वं काम सहसासि प्रतिष्ठितो विभुर्विभावा सख आ सखीयते।

 त्वमुग्रः पृतनासु सासहिः सह ओजो यजमानाय धेहि ॥ २ ॥ (अथर्व १९ । ५२ । २ )

काम ! त्वं सहसा प्रतिष्ठितः असि हे काम । तू अपने नैसर्गिक बल से (सर्वत्र) प्रतिष्ठित (व्याप्त) है।

 (त्वं) विभुः विभावा (न्) हे काम । तू व्यापक है और दीप्तिमन्त है। 

 (त्व) सख =तू अपने में आकाशयुक्त हो भीतर से रिक्त हो। तुझ में सब कुछ गटकने/ लीलने की सामर्थ्य है। [ ख आकाश] |

 (वं) आ सखीयते तू अपने को सर्वत्र आकाशवत् व्यापक किये हुए हो अर्थात् तू सर्वत्र हो। विद्यमान हो। 

 त्वम् उग्रः = तुम उम्र (तीक्ष्ण) हो वा सबको विचलित करने वाले हो।

पृतनासु सासहिः= युद्ध में पराजित करने वाले हो अर्थात् महावीर हो ।

सहः ओजः यजमानाय धेहि = बल और ओज यजमान को दो।

 काम का आवेश होने पर जीव का बल बढ़ जाता है। उसमें ओज (उष्मा) का संचार होता है। ये गुण सूर्य रश्मि में होते हैं। किरणें उम्र होती हैं तथा पूतना (अन्धकार की राशि) का विनाश करती हैं। 
अन्धकार = आलस्य (तमोमयता जड़ता)। 

स गतौ सासहिः = चली जाती है। 

अर्थात् काम का आवेश होने पर जीव का आलस्य भाग जाता है। वह उत्साहयुक्त हो कर क्रिया में प्रवृत्त होता है।

 (ग)
 यत् काम कामयमाना इदं कृण्मसि ते हविः ।

 तन्नः सर्वं समृध्यतामथैतस्य हविषो वीहि स्वाहा ।।' ( अथर्व १९ । ५२ । ५)

काम ! यत् कामायमानाः =हे काम जिस फल की कामना करते हुए।

 इदं हविः ते कृण्मसि = यह हवि (आहुति) तेरे लिये हम देते हैं। 

तत् सर्वं नः समृध्यताम् = वह हवि सम्पूर्ण रूप से हमारे लिये समृद्धि लाये ।

 अथ एतस्य हविषः= इसलिये (अब) इस हविष को । 

वीहि= तू प्राप्त कर भक्षण कर वी भक्ष्यार्थक लोट् म. पु. एक व. । 

स्वाहा = हमारी यह आहुति तेरे लिये ही समर्पित है। सु + आहेति ।

 काम से ही व्यक्ति क्रिया में प्रवृत्त होता है। समस्त क्रियाएँ काम की प्रतिफल हैं। काम न होता तो क्रिया वा यह सृष्टि न होती। मनु का कथन है...

 'अकामस्य क्रिया काचित् दृश्यते नेह कर्हिचित्। '(मनुस्मृति २ । ४)

 काम के बिना कोई भी क्रिया दृष्टिगोचर नहीं होती। यह काम अनन्त है, अपार है। जैसे काम का अन्त नहीं है, वैसे समुद्र का अन्त नहीं है। समुद्र = आकाश

 आकाश की अनन्तता के सदृश काम का विस्तार है। आकाश का पार पाना शक्य नहीं। इसलिये काम के पार जाना सम्भव नहीं। कहते हैं...

 'समुद्र इव हि कामः नैव हि कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य ।' (तैत्तिरीय ब्राह्मण २।२।५)

 उपनिषद् कहता है...

 'अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति ।

 स यथा कामो भवति तत्क्रतुर्भवति ।

 यत्क्रतुर्भवति तत् कर्म कुरुते ।

 यत् कर्म कुरूते तदभिसम्पद्यते ।" ( बृहदारण्यक उपनिषद् ४ । ४५)

 ऐसा कहा जाता है कि यह पुरुष काममय है। इसका जैसा काम होता है वैसा हो इसका विचार होता है । है। जैसा विचार होता है वैसा ही वह कर्म करता है। जैसा कर्म करता है, तदनुसार फल प्राप्त करता है। व्यास जी कहते हैं...

'नास्ति नासीत् नाभविष्यद् भूतं कामात्मकात् परम् । ( महाभारत शान्तिपर्व १६७ । ३४)

 ऐसा कोई प्राणी नहीं है, न था और न होगा जो काम से परे हो। अर्थात् सभी जन कामी हैं। कामिने नमः ।

 तत्त्वतः काम है क्या ? 

काम त्रिवर्णात्मक है...

क, अ, म ।क + अ+ म= काम।

 कम् पद प्रजापति का पर्याय है। इसमें श्रुति प्रमाण है। 

१. प्रजापति कः - (ऐतरेय ब्राह्मण अध्याय १० खण्ड ६)
 निश्चय ही प्रजापति क है। 

२. को वै नाम प्रजापतिः । - (ऐतरेय ब्राह्मण अध्याय १२ खण्ड १० )
क नाम निश्चय ही प्रजापति का है। 

३. ततो वै को नाम प्रजापतिरभवत्।( ऐत. बा. १२।१०)

 अकार ब्रह्मवाचक, वाग्पति है। इसमें भी श्रुति प्रमाण है।

३.१. अकारो वै सर्वावाक् । -( ऐतरेय ब्राह्मण २ । ३।६।)

 अ वर्ण निश्चय ही विश्ववाकु है।

 २.२. अ इति ब्रह्म । -( ऐतरेय ब्राह्मण २। ३।८। )
अ स्वर ब्रह्म (व्यापक तत्व) है। 

३.३. अक्षराणां अकारोऽस्मि । -(भगवद्रीतोपनिषद् १० ।३३ )

कृष्ण भगवान कहते हैं कि मैं अक्षरों में अकार (अ वर्ण) हूँ। कृष्ण स्वयं प्रजापति हैं। इसलिये वर्ण अभी प्रजापति हुआ। ममा माने माति + क सर्व पूज्य नाम म काल, शिव, विष्णु, ब्रह्म, यम ।

 इससे सिद्ध हुआ-काम परमेश्वर वाचक शब्द है। जो सब कुछ है, सर्व समर्थ है, सर्व नियन्ता है वह यही काम है। यह काम देवता है, अदेह है तथा व्यापक है। इस कामदेव को मैं स्वबुद्धि से बारम्बार प्रणाम करता हूँ।

 स्त्री और पुरुष के बीच प्रवाहित होने वाली अदृश्य विद्युत् का नाम काम है। यह काम इन दोनों को अभिमुख होने के लिये उन्हें उन्मत्त करता है, देखने के लिये प्रमत्त करता है, वार्ता के लिये विमत्त करता है। यह काम उन्हें परस्पर मिलने के लिये क्षुब्ध करता है, स्पर्श के लिये आन्दोलित करता है। यह काम उन्हें आलिंगन पाश में बाँधता है तथा सहवास की अग्नि में पकाता है। यह काम दोनों का पारस्परिक संगम कराकर आनन्द व चरम सुख की त्रिवेणी बहाता है। इस त्रिवेणी में तीनों ताप तर जाते हैं। ये दोनों एक दूसरे की काया से रिसते मधु का आस्वादन करते हैं, नव पंखुड़ियों का अवदंशन करते हैं, मकरंदित यष्टि का परिरम्भन करते हैं, सौन्दर्यतार का संस्पर्शन करते हैं तथा सुगन्धित मन का अवलम्बन लेते हैं। काम का यह आचार इन दोनों के लिये सहज श्रान्तिहर है, सुखकर है तथा चित्तबद्धकर है।

गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

बेताल पच्चीसी-बाईसवीं कहानी

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शेर बनाने का अपराध किसने किया? ... (बेताल पच्चीसी-बाईसवीं कहानी)




कुसुमपुर नगर में एक राजा राज्य करता था। उसके नगर में एक ब्राह्मण था, जिसके चार बेटे थे। लड़कों के सयाने होने पर ब्राह्मण मर गया और ब्राह्मणी उसके साथ सती हो गयी। उनके रिश्तेदारों ने उनका धन छीन लिया। वे चारों भाई नाना के यहाँ चले गये। लेकिन कुछ दिन बाद वहाँ भी उनके साथ बुरा व्यवहार होने लगा। तब सबने मिलकर सोचा कि कोई विद्या सीखनी चाहिए। यह सोच करके चारों चार दिशाओं में चल दिये।

कुछ समय बाद वे विद्या सीखकर मिले। एक ने कहा, "मैंने ऐसी विद्या सीखी है कि मैं मरे हुए प्राणी की हड्डियों पर मांस चढ़ा सकता हूँ।" दूसरे ने कहा, "मैं उसके खाल और बाल पैदा कर सकता हूँ।" तीसरे ने कहा, "मैं उसके सारे अंग बना सकता हूँ।" चौथा बोला, "मैं उसमें जान डाल सकता हूँ।"

फिर वे अपनी विद्या की परीक्षा लेने जंगल में गये। वहाँ उन्हें एक मरे शेर की हड्डियाँ मिलीं। उन्होंने उसे बिना पहचाने ही उठा लिया। एक ने माँस डाला, दूसरे ने खाल और बाल पैदा किये, तीसरे ने सारे अंग बनाये और चौथे ने उसमें प्राण डाल दिये। शेर जीवित हो उठा और सबको खा गया।

यह कथा सुनाकर बेताल बोला, "हे राजा, बताओ कि उन चारों में शेर बनाने का अपराध किसने किया?"

राजा ने कहा, "जिसने प्राण डाले उसने, क्योंकि बाकी तीन को यह पता ही नहीं था कि वे शेर बना रहे हैं। इसलिए उनका कोई दोष नहीं है।"
यह सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा जाकर फिर उसे लाया। रास्ते में बेताल ने एक नयी कहानी सुनायी।

बुधवार, 6 दिसंबर 2023

योगी पहले क्यों रोया, फिर क्यों हँसा? ... (बेताल पच्चीसी-तेईसवीं कहानी)

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योगी पहले क्यों रोया, फिर क्यों हँसा? ... (बेताल पच्चीसी-तेईसवीं कहानी)




कलिंग देश में शोभावती नाम का एक नगर था। उसमें राजा प्रद्युम्न राज करता था। उसी नगरी में एक ब्राह्मण रहता था, जिसका देवसोम नाम का बड़ा ही योग्य पुत्र था। जब देवसोम सोलह बरस का हुआ और सारी विद्याएँ सीख चुका तो एक दिन दुर्भाग्य से वह मर गया। बूढ़े माँ-बाप बड़े दु:खी हुए। चारों ओर शोक छा गया। जब लोग उसे लेकर श्मशान में पहुँचे तो रोने-पीटने की आवाज़ सुनकर एक योगी अपनी कुटिया में से निकलकर आया। पहले तो वह खूब ज़ोर से रोया, फिर खूब हँसा, फिर योग-बल से अपना शरीर छोड़ कर उस लड़के के शरीर में घुस गया। लड़का उठ खड़ा हुआ। उसे जीता देखकर सब बड़े खुश हुए।

वह लड़का वही तपस्या करने लगा।

इतना कहकर बेताल बोला, "राजन्, यह बताओ कि यह योगी पहले क्यों रोया, फिर क्यों हँसा?"

राजा ने कहा, "इसमें क्या बात है! वह रोया इसलिए कि जिस शरीर को उसके माँ-बाप ने पाला-पोसा और जिससे उसने बहुत-सी शिक्षाएँ प्राप्त कीं, उसे छोड़ कर जा रहा था। हँसा इसलिए कि वह नये शरीर में प्रवेश करके और अधिक सिद्धियाँ प्राप्त कर सकेगा।"

राजा का यह जवाब सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा जाकर उसे लाया तो रास्ते में बेताल ने कहा, "हे राजन्, मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि बिना जरा-सा भी हैरान हुए तुम मेरे सवालों का जवाब देते रहे हो और बार-बार आने-जाने की परेशानी उठाते रहे हो। आज मैं तुमसे एक बहुत भारी सवाल करूँगा। सोचकर उत्तर देना।"

इसके बाद बेताल ने यह कहानी सुनायी।