व्यास जी ने एक स्थान पर कहा...
'बलवान् इन्द्रियग्रामः विद्वांसमपि कर्षति।'
व्यास जी के शिष्य जैमिनि इससे सहमत नहीं हुए। वे विद्वान थे। अपने को इन्द्रियजयी समझते थे। इन्द्रियों का समुदाय विद्वान् को कैसे अपनी ओर खींचता है ? यह वे समझ नहीं पा रहे थे। इसलिये व्यास वाक्य पर अंगुली उठाना उनके लिये स्वाभाविक था। वे इस वाक्य की सत्यता का प्रमाण चाहते थे। समय बीता। कालान्तर में जौमिनि अपनी कुटी में बैठे थे। अरण्य का एकान्त था। वे विचार मग्न थे। इतने में आकाश में बादल घिर आये। शीतल वायु का संचार होने लगा। वर्षा की बूँदें गिरने लगीं। वे देखते हैं- एक युवती कुटी के बाहर खड़ी भीग रही है। वह सलज्ज एवं संकुचित है। उसकी अंग कान्ति विद्युताभ सदृश है। दैहिक आभा मण्डल हिरण्यवर्ण है। अनिन्द्य देह सौष्ठव एवं विमल सौन्दर्य से युक्त उसका रूप माधुर्य आह्लादकारी है। जैमिनि ने उसे कुटी में आने के लिये कहा। वह आयी और इसके लिये मुनि (जैमिनि) को धन्यवाद देते हुए आभार व्यक्त किया। शर्करा समान मीठी वाणी युवती के मुख से निकल कर मुनि के कर्ण कुहरों में गई। वह पद्मिनी थी। उसके शरीर से निकलती हुई पद्म की सुगन्ध ने मुनि के प्राण प्रदेश को अधिकार में लिया। उसकी अनिन्द्य रूप राशि की छटा ने मुनि के नेत्रों में आकर डेरा जमाया। मुनि अपने चक्षु चषक से रूप की मदिरा का पान करने लगे। इसका परिणाम क्या हुआ ? नेत्रों के मार्ग से कामदेव ने जैमिनी के तन मन की गुहा में प्रवेश किया। जैमिनी धर्मात्मा महापुरुष थे। इसलिये उन्होंने उस युवती के साथ एकान्त का लाभ लेते हुए रति हेतु बल का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। उसने एक शर्त रखी शर्त क्या थी ?
जो पुरुष नीचे झुक कर घोड़ा बन कर मुझे अपनी पीठ पर बिठा कर अग्नि की सात प्रदक्षिणा करेगा तथा साथ ही साथ प्रत्येक प्रदक्षिणा के पूरा होने पर ऊपर देख कर गधे के समान शब्द करेगा / रेंकेगा, उसके साथ मेरा विवाह होगा। जैमिनि ने शर्त मान लिया, यह सोच कर कि यहाँ आश्रम में मेरे अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति नहीं है; अतः मेरा घोड़ा बनना तथा गधे की तरह रेंकरना न देखेगा, न सुनेगा, विवाह हो जायेगा। इसे कोई जान नहीं पायेगा। यह सुन्दरी मेरी भोग्या पत्नी बन कर मुझे सुख देती रहेगी। वह युवती प्रसन्न हुई। उसने जैमिनि से अग्नि जलाने को कहा। अग्नि प्रज्ज्वलित हुई। जैमिनि घोड़ा बने। युवती ने जैमिनि की पीठ पर सवारी की। अग्नि की प्रदक्षिणा प्रारंभ हुई। प्रत्येक प्रदक्षिणा के अन्त में जैमिनि ऊपर मुख कर के उस युवती को देख कर गधे की तरह रेंकते थे। अंतिम प्रदक्षिणा के अन्त में जब वे गधे की ध्वनि करने के लिये ऊपर मुँह किये तो उन्होंने अपनी पीठ पर श्वेत दाढ़ी वाले कृष्णकाय व्यास जी को बैठे देखा। जैमिनी को यह समझने में देर नहीं लगी कि यह सब उनके गुरु व्यासजी का खेल उन्हें सत्य से अवगत कराने के लिये था।
जैमिनि ने व्यास को प्रणाम किया और मान लिया कि- 'बलवान् इन्द्रियग्रामः विद्वांसमपि कर्षति' निरपेक्ष सत्य है। इस कथा से यह निष्कर्ष निकलता है कि काम प्रबलतम है। इससे परे कोई जीव नहीं है। चाहे वह देव हो, दानव हो वा मानव हो। जो कोई जीव अपने को इससे ऊपर समझता है और कामजयी होने का दर्प धारण करता है, उसकी वही दशा होती है, जो जैमिनि की हुई नारद की हुई। इस अमित। शक्ति काम को मैं प्रणाम करता हूँ। काम भगवान् विष्णु का नाम है। विष्णु अविनाशी है। इसलिये काम भी अविनाशी है। विष्णु अजेय है तो काम भी अजेय है। काम को कोई जीत नहीं सकता। काम सबको जीतता है। यह सभी प्राणियों में उन्माद के रूप में प्रकट होता है। व्यास वाक्य है...
'यतः सर्वे प्रसूयन्ते ह्मनङ्गत्माङ्गदेहिनः ।
उन्मादः सर्वभूतानां तस्मै कामात्मने नमः ।।'
(महाभारत शान्तिपर्व भीष्मस्तवराज- ५१)
जिस अनंग की प्रेरणा से अंगधारी प्राणियों का जन्म होता है, जिससे समस्त जीव उन्मत्त हो उठते हैं, उस काम के रूप में प्रकट हुए परमेश्वर को नमस्कार । काम उलूखल तथा चक्षु मुसल है। उलूखल में रख कर मुसल मार-मार कर धान को कूटा जाता है। ऐसे ही आँखों से बार-बार देखते रहने से हृदयस्थ काम जागृत होता है। यह मंत्र है...
(१) 'चक्षुर्मुसलं काम उलूखलम् ।' ( अथर्व. ११ । ३ । ३)
काम की ब्रह्मण्यता को इस मन्त्र में दिखाया गया है
(२) ''कोऽदात्कस्मा अदात्कामोऽदात्कामायादात् ।
कामो दाता कामः प्रतिगृहीता कामैतत्ते ॥" ( यजुर्वेद ७ । ४८)
कः अदात् कस्मा अदात् कामः अदात् कामाय अदात् ।
कामः दाता कामः प्रतिग्रहीता काम एतत् ते ॥
कौन देता है ? किसके लिये देता है ? काम देता है। काम के लिये देता है। काम देने वाला दाता है। काम लेने वाला प्रतिगृहीता (आदाता) है। हे काम ! तुम्हारे लिये यह सब (जगत् व्यापार) है।
(३) कामो जज्ञे प्रथमो नैनं देवा आपुः पितरो न मर्त्याः ।
ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि ॥ ( अथर्व ९ । २ । १९ )
कामः प्रथमः जज्ञे = काम सर्वप्रथम प्रकट हुआ।
एनम् न देवाः आपः न पितरः न मर्त्याः = इसे न देवों ने प्राप्त किया जान पाया न पितरों ने और न मर्त्यों ने।
ततः त्वम् ज्यायान् विश्वहा महान् असि= इसलिये तू (काम) ज्येष्ठ है, सब का संहार करने वाला है तथा महान् है।
काम ! तस्मै ते नमः इत् कृणोमि= हे काम । उस तेरे लिये (प्रति) ही नमस्कार करता हूँ । काम साक्षात् रुद्र है। यह मन्त्र है ...
(४) 'जहि त्वं काम मम ये सपत्ना अन्धा तमांस्यव पदयैनान्' -(अथर्व. ९ । २ । १०)
काम ! त्वम् जहि ये मम सपनाः = हे काम । तू मार डालो, जो मेरे सपन (विरोधी) हैं, उन्हें ।
अन्या (नि) तमांसि अव पादय एनान् = अन्धा कर देने वाले अन्धकार/ अज्ञान जो हैं, उन्हें अवपादित (नीचे गिरा दो।
" काम ज्येष्ठा इह मादयध्वम् ।' (अथर्व. ९ । २ । ८)
हे ज्येष्ठ काम । इस लोक (जीवन) में मुझे आनन्दित करो।
इससे स्पष्ट है; काम आनन्द का उत्स है, आनन्द निर्झर है, सुख का सागर है, हर्षायतन है। वेद में काम देवता है। इसके अषि ब्रह्मा हैं।
अथकामसूक्तः ।
(क)
'कामस्तदग्रे समवर्तत मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
स काम कामेन बृहता सयोनी रायस्पोषं यजमानाय धेहि ॥ १ ॥ ' ( अथर्व १९ । ५२ । १)
तद् कामः अग्रे समवर्तत = वह काम (ब्रह्म) सर्वप्रथम प्रकट हुआ।
मनसः यद् प्रथमं आसीत् (स) रेतः = (उस काम के) मन (मनन करने) से जो प्रथम अस्तित्व में आया, वह रेत (बीज) था।
सः काम ! बृहता कामेन = वह तू हे काम ! बृहत् काम (महेच्छा) के द्वारा।
यजमानाय धेहि = यजमान (यज्ञकर्ता) को प्रदान कर।
सयोनी = सयोनि (सशरीर) हो कर, देह धारण कर।
रायः पोष = धन एवं अन्न वा सम्पत्ति एवं पुष्टि ।
(ख)
'त्वं काम सहसासि प्रतिष्ठितो विभुर्विभावा सख आ सखीयते।
त्वमुग्रः पृतनासु सासहिः सह ओजो यजमानाय धेहि ॥ २ ॥ (अथर्व १९ । ५२ । २ )
काम ! त्वं सहसा प्रतिष्ठितः असि हे काम । तू अपने नैसर्गिक बल से (सर्वत्र) प्रतिष्ठित (व्याप्त) है।
(त्वं) विभुः विभावा (न्) हे काम । तू व्यापक है और दीप्तिमन्त है।
(त्व) सख =तू अपने में आकाशयुक्त हो भीतर से रिक्त हो। तुझ में सब कुछ गटकने/ लीलने की सामर्थ्य है। [ ख आकाश] |
(वं) आ सखीयते तू अपने को सर्वत्र आकाशवत् व्यापक किये हुए हो अर्थात् तू सर्वत्र हो। विद्यमान हो।
त्वम् उग्रः = तुम उम्र (तीक्ष्ण) हो वा सबको विचलित करने वाले हो।
पृतनासु सासहिः= युद्ध में पराजित करने वाले हो अर्थात् महावीर हो ।
सहः ओजः यजमानाय धेहि = बल और ओज यजमान को दो।
काम का आवेश होने पर जीव का बल बढ़ जाता है। उसमें ओज (उष्मा) का संचार होता है। ये गुण सूर्य रश्मि में होते हैं। किरणें उम्र होती हैं तथा पूतना (अन्धकार की राशि) का विनाश करती हैं।
अन्धकार = आलस्य (तमोमयता जड़ता)।
स गतौ सासहिः = चली जाती है।
अर्थात् काम का आवेश होने पर जीव का आलस्य भाग जाता है। वह उत्साहयुक्त हो कर क्रिया में प्रवृत्त होता है।
(ग)
यत् काम कामयमाना इदं कृण्मसि ते हविः ।
तन्नः सर्वं समृध्यतामथैतस्य हविषो वीहि स्वाहा ।।' ( अथर्व १९ । ५२ । ५)
काम ! यत् कामायमानाः =हे काम जिस फल की कामना करते हुए।
इदं हविः ते कृण्मसि = यह हवि (आहुति) तेरे लिये हम देते हैं।
तत् सर्वं नः समृध्यताम् = वह हवि सम्पूर्ण रूप से हमारे लिये समृद्धि लाये ।
अथ एतस्य हविषः= इसलिये (अब) इस हविष को ।
वीहि= तू प्राप्त कर भक्षण कर वी भक्ष्यार्थक लोट् म. पु. एक व. ।
स्वाहा = हमारी यह आहुति तेरे लिये ही समर्पित है। सु + आहेति ।
काम से ही व्यक्ति क्रिया में प्रवृत्त होता है। समस्त क्रियाएँ काम की प्रतिफल हैं। काम न होता तो क्रिया वा यह सृष्टि न होती। मनु का कथन है...
'अकामस्य क्रिया काचित् दृश्यते नेह कर्हिचित्। '(मनुस्मृति २ । ४)
काम के बिना कोई भी क्रिया दृष्टिगोचर नहीं होती। यह काम अनन्त है, अपार है। जैसे काम का अन्त नहीं है, वैसे समुद्र का अन्त नहीं है। समुद्र = आकाश
आकाश की अनन्तता के सदृश काम का विस्तार है। आकाश का पार पाना शक्य नहीं। इसलिये काम के पार जाना सम्भव नहीं। कहते हैं...
'समुद्र इव हि कामः नैव हि कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य ।' (तैत्तिरीय ब्राह्मण २।२।५)
उपनिषद् कहता है...
'अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति ।
स यथा कामो भवति तत्क्रतुर्भवति ।
यत्क्रतुर्भवति तत् कर्म कुरुते ।
यत् कर्म कुरूते तदभिसम्पद्यते ।" ( बृहदारण्यक उपनिषद् ४ । ४५)
ऐसा कहा जाता है कि यह पुरुष काममय है। इसका जैसा काम होता है वैसा हो इसका विचार होता है । है। जैसा विचार होता है वैसा ही वह कर्म करता है। जैसा कर्म करता है, तदनुसार फल प्राप्त करता है। व्यास जी कहते हैं...
'नास्ति नासीत् नाभविष्यद् भूतं कामात्मकात् परम् । ( महाभारत शान्तिपर्व १६७ । ३४)
ऐसा कोई प्राणी नहीं है, न था और न होगा जो काम से परे हो। अर्थात् सभी जन कामी हैं। कामिने नमः ।
तत्त्वतः काम है क्या ?
काम त्रिवर्णात्मक है...
क, अ, म ।क + अ+ म= काम।
कम् पद प्रजापति का पर्याय है। इसमें श्रुति प्रमाण है।
१. प्रजापति कः - (ऐतरेय ब्राह्मण अध्याय १० खण्ड ६)
निश्चय ही प्रजापति क है।
२. को वै नाम प्रजापतिः । - (ऐतरेय ब्राह्मण अध्याय १२ खण्ड १० )
क नाम निश्चय ही प्रजापति का है।
३. ततो वै को नाम प्रजापतिरभवत्।( ऐत. बा. १२।१०)
अकार ब्रह्मवाचक, वाग्पति है। इसमें भी श्रुति प्रमाण है।
३.१. अकारो वै सर्वावाक् । -( ऐतरेय ब्राह्मण २ । ३।६।)
अ वर्ण निश्चय ही विश्ववाकु है।
२.२. अ इति ब्रह्म । -( ऐतरेय ब्राह्मण २। ३।८। )
अ स्वर ब्रह्म (व्यापक तत्व) है।
३.३. अक्षराणां अकारोऽस्मि । -(भगवद्रीतोपनिषद् १० ।३३ )
कृष्ण भगवान कहते हैं कि मैं अक्षरों में अकार (अ वर्ण) हूँ। कृष्ण स्वयं प्रजापति हैं। इसलिये वर्ण अभी प्रजापति हुआ। ममा माने माति + क सर्व पूज्य नाम म काल, शिव, विष्णु, ब्रह्म, यम ।
इससे सिद्ध हुआ-काम परमेश्वर वाचक शब्द है। जो सब कुछ है, सर्व समर्थ है, सर्व नियन्ता है वह यही काम है। यह काम देवता है, अदेह है तथा व्यापक है। इस कामदेव को मैं स्वबुद्धि से बारम्बार प्रणाम करता हूँ।
स्त्री और पुरुष के बीच प्रवाहित होने वाली अदृश्य विद्युत् का नाम काम है। यह काम इन दोनों को अभिमुख होने के लिये उन्हें उन्मत्त करता है, देखने के लिये प्रमत्त करता है, वार्ता के लिये विमत्त करता है। यह काम उन्हें परस्पर मिलने के लिये क्षुब्ध करता है, स्पर्श के लिये आन्दोलित करता है। यह काम उन्हें आलिंगन पाश में बाँधता है तथा सहवास की अग्नि में पकाता है। यह काम दोनों का पारस्परिक संगम कराकर आनन्द व चरम सुख की त्रिवेणी बहाता है। इस त्रिवेणी में तीनों ताप तर जाते हैं। ये दोनों एक दूसरे की काया से रिसते मधु का आस्वादन करते हैं, नव पंखुड़ियों का अवदंशन करते हैं, मकरंदित यष्टि का परिरम्भन करते हैं, सौन्दर्यतार का संस्पर्शन करते हैं तथा सुगन्धित मन का अवलम्बन लेते हैं। काम का यह आचार इन दोनों के लिये सहज श्रान्तिहर है, सुखकर है तथा चित्तबद्धकर है।
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