बुधवार, 1 मार्च 2023

1. स्कन्दगुप्त का परिचय (Introduction to Sakandgupta):

चक्रवर्ती सम्राट परमभागवत स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य



1. स्कन्दगुप्त का परिचय (Introduction to Sakandgupta):

कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् गुप्त शासन की बागडोर उसके सुयोग्य पुत्र स्कन्दगुप्त के हाथों में आई । जूनागढ़ अभिलेख में उसके शासन की प्रथम तिथि गुप्त संवत् 136 = 455 ईस्वी उत्कीर्ण मिलती है ।

गढ़वा अभिलेख तथा चाँदी के सिक्कों में उसकी अन्तिम तिथि गुप्त संवत् 148 = 467 ईस्वी दी हुई है । अत: ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि स्कन्दगुप्त ने 455 ईस्वी से 467 ईस्वी अर्थात् कुल 12 वर्षों तक राज्य किया । यह काल राजनीतिक घटनाओं की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है ।
साधन:
(1) अभिलेख:
स्कन्दगुप्त के अनेक अभिलेख हमें प्राप्त होते हैं जिनसे उसके शासन-काल की महत्वपूर्ण घटनाओं की सूचना मिलती हैं ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

i. जूनागढ़ अभिलेख:


यह स्कन्दगुप्त का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेख है जो सुराष्ट्र (गुजरात) के जूनागढ़ से प्राप्त हुआ है । इसमें उसके शासन-काल की प्रथम तिथि गुप्त संवत 136 = 455 ईस्वी उत्कीर्ण मिलती है । इससे ज्ञात होता है कि स्कन्दगुप्त ने हूणों को परास्त कर सुराष्ट्र प्रान्त में पर्णदत्त को अपना राज्यपाल (गोप्ता) नियुक्त किया था ।
इस लेख में उसके सुव्यवस्थित शासन एवं गिरनार के पुरपति चक्रपालित द्वारा सुदर्शन झील के बाँध के पुनर्निर्माण का विवरण सुरक्षित है । इस लेख से यह भी पता चलता है कि उस समय गुप्त संवत् में काल-गणना की जाती थी (गुप्तप्रकाले गणना विधाय) ।

ii. बिहार स्तम्भ-लेख:

बिहार के पटना समीप स्थित बिहार नामक स्थान से यह बिना तिथि का लेख मिलता है । इसमें स्कन्दगुप्त के समय तक गुप्त राजाओं के नाम तथा कुछ पदाधिकारियों के नाम प्राप्त होते हैं ।

iii. इन्दौर ताम्र-पत्र:

इसमें गुप्त संवत् 146 = 465 ईस्वी की तिथि अंकित है । इस लेख में सूर्य की पूजा तथा सूर्य के मन्दिर में दीपक जलाये जाने के लिये धनदान दिये जाने का विवरण मिलता है । इन्दौर, बुलन्दशहर जिले में स्थित एक स्थान है ।

iv. भितरी स्तम्भ-लेख:

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में सैदपुर तहसील में भितरी नामक स्थान से यह लेख मिलता है । इसमें पुष्यमित्रों और हूणों के साथ स्कन्दगुप्त के युद्ध का वर्णन मिलता है । स्कन्दगुप्त के जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं के अध्ययन के लिये यह अभिलेख अनिवार्य है ।

v. कहौम स्तम्भ-लेख:

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में स्थित कहौम नामक स्थान से यह लेख प्राप्त हुआ है । इसमें संवत् 141 = 460 ईस्वी की तिथि अंकित है । इस अभिलेख से पता चलता है कि मद्र नामक एक व्यक्ति ने पाँच जैन तिर्थकंरों प्रतिमाओं का निर्माण करवाया था ।

vi. सुपिया का लेख:

मध्य प्रदेश में रींवा जिले में स्थित सुपिया नामक स्थान से यह लेख प्राप्त हुआ है जिसमें गुप्त संवत् 141 अर्थात 460 ईस्वी की तिथि अंकित है । इसमें गुप्तों की वंशावली घटोत्कच के समय से मिलती है तथा गुप्तवंश को ‘घटोत्कचवंश’ कहा गया है ।

vii. गढ़वा शिलालेख:

इलाहाबाद जिले (उ. प्र.) की करछना तहसील में गढ़वा नामक स्थान है । यहाँ से स्कन्दगुप्त के शासन-काल का अन्तिम अभिलेख मिला है जिसमें गुप्त संवत् 148 = 467 ईस्वी की तिथि अंकित है । इसमें निष्कर्ष निकलता है कि उक्त तिथि तक उसका शासन समाप्त हो गया था ।

(2) सिक्के:

अभिलेखों के अतिरिक्त स्कन्दगुप्त के कुछ स्वर्ण एवं रजत सिक्के भी मिलते हैं । स्वर्ण सिक्कों के मुख भाग पर धनुष-बाण लिये हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर पद्मासन में विराजमान लक्ष्मी के साथ-साथ ‘श्रीस्कन्दगुप्त’ उत्कीर्ण है । कुछ सिक्कों के ऊपर गरुड़ध्वज तथा उसकी उपाधि ‘क्रमादित्य’ अंकित है ।
रजत सिक्के उसके पूर्वजों जैसे ही हैं । इनके मुख भाग पर वक्ष तक राजा का चित्र तथा पृष्ठ भाग पर गरुड़, नन्दी तथा वेदी बनी हुई है । इनके ऊपर स्कन्दगुप्त की उपाधियाँ ‘परमभागवत’ तथा ‘विक्रमादित्य’ उत्कीर्ण मिलती हैं ।

2. स्कन्दगुप्त का उत्तराधिकार-युद्ध(Succession War of Sakandgupta):

रमेशचन्द्र मजूमदार जैसे कुछ विद्वानों की धारणा है कि कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र पुरुगुप्त गुप्तवंश का राजा बना तथा स्कन्दगुप्त ने उसकी हत्या कर राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया ।



त्तराधिकार के इस युद्ध के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं:

(1) भितरी मुद्रालेख में पुरुगुप्त की माता अनन्त देवी को महादेवी कहा गया है परन्तु स्कन्दगुप्त के लेखों में उसकी माता का नाम नहीं मिलता । इसी लेख में पुरुगुप्त को कुमारगुप्त का ‘तत्पादानुध्यात’ कहा गया है जबकि स्कन्दगुप्त के लिये इस उपाधि का प्रयोग नहीं मिलता ।

इससे यही सिद्ध होता है कि पुरुगुप्त की माता ही प्रधान महिषी थी तथा उसका पुत्र होने के नाते पुरुगुप्त ही राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी था । ‘तत्पादानुध्यात’ से भी उसका कुमारगुप्त का तात्कालिक उत्तराधिकारी होना सिद्ध होता है ।

(2) स्कन्दगुप्त के भितरी लेख में उत्कीर्ण एक श्लोक के अनुसार- ‘पिता की मृत्यु के बाद वंशलक्ष्मी चंचल हो गयी । इसको उसने (स्कन्दगुप्त ने) अपने बाहुबल से पुन: प्रतिष्ठित किया । शत्रु का नाश कर प्रेम-अश्रु युक्त अपनी माता के पास वह उसी प्रकार गया जिस प्रकार कंस का नाश करने वाले कृष्ण अपनी माता देवकी के पास गये थे ।’ इससे आभासित होता है कि वंशलक्ष्मी राजकुमारों के विद्रोह के कारण ही चंचल हुई तथा स्कन्दगुप्त ने अपने पराक्रम से अपने भाइयों को जीतकर राजगद्दी पर अधिकार कर लिया ।

(3) स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख में एक स्थान पर उल्लिखित मिलता है- ‘सभी राजकुमारों को परित्याग कर लक्ष्मी ने स्वयं उसका वरण किया’ (व्यपेत्य सर्वान् मनुजेन्द्रपुत्रान् लक्ष्मी स्वयं यं वरयाञ्चकार) ।
इससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि स्कन्दगुप्त शासन का वैध उत्तराधिकारी नहीं था तथा स्कन्दगुप्त ने दायाद युद्ध द्वारा राजसिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया था । स्कन्दगुप्त की एक प्रकार की स्वर्ण मुद्राओं, जिन्हें लक्ष्मीप्रकार कहा गया है, के ऊपर भी यह दृश्य अंकित मिलता है ।
इनके मुख भाग पर दाईं ओर लक्ष्मी तथा बाईं ओर राजा का चित्र है । लक्ष्मी राजा को कोई वस्तु प्रदान करती हुई चित्रित की गई है । यह भी लक्ष्मी द्वारा स्कन्दगुप्त के वरण का प्रमाण है । यदि उपर्युक्त तर्कों की आलोचनात्मक समीक्षा की जाये तो प्रतीत होगा कि इनमें कोई बल नहीं है ।

स्कन्दगुप्त की माता का उसके अभिलेखों में उल्लेख न मिलने से तथा उसके महादेवी न होने से हम ऐसा निष्कर्ष कदापि नहीं निकाल सकते कि वह राज्य का वैधानिक उत्तराधिकारी नहीं था । प्राचीन भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जहाँ शासकों की मातायें प्रधान महिषी थीं लेकिन न तो उनके नाम के पूर्व ‘महादेवी’ का प्रयोग मिलता है ओर न ही उनका उल्लेख उनके पुत्रों के लेखों में हुआ है ।

जैसे चन्द्रगुप्त द्वितीय की प्रधान महिषी कुबेरनागा के नाम के पूर्व महादेवी का प्रयोग नहीं मिलता । इसी प्रकार हर्ष के लेखों में भी उसकी माता यशोमती का उल्लेख नहीं मिलता । परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि हर्ष शासन का वैधानिक उत्तराधिकारी नहीं था । जहाँ तक ‘तत्पादानुध्यात’ शब्द का प्रश्न है इसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘उसके चरणों का ध्यान करता हुआ ।’
इससे केवल पुरुगुप्त की पितृभक्ति सूचित होती है, न कि उसका उत्तराधिकारी चुना जाना । पुनश्च यह शब्द राजकुमारों के अतिरिक्त अन्य कर्मचारी भी धारण करते थे । चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि के सामन्त ने भी अपने को ‘तत्पादानुध्यात’ कहा है ।
भितरी लेख में जिन शत्रुओं का उल्लेख हुआ है वे वाह्य शत्रु थे, न कि आन्तरिक । यदि वे राजपरिवार के शत्रु होते तो वंशलक्ष्मी के चंचल होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता । इस लेख में पुष्यमित्रों तथा हूणों का भी उल्लेख मिलता है । अत: वंशलक्ष्मी को चलायमान करने वाले ये ही थे जिन्हें स्कन्दगुप्त ने पराजित किया । ऐसी स्थिति में किसी प्रकार के गृह-युद्ध का प्रश्न ही नहीं उठता ।
जूनागढ़ के लेख में लक्ष्मी द्वारा स्कन्दगुप्त के वरण की जो बात कही गयी है वह मात्र काव्यात्मक है, न कि उससे का सिंहासन का अपहर्त्ता होना सूचित होता है । कई प्राचीन ग्रन्थों तथा लेखों में इस प्रकार के वर्णन प्राप्त होते हैं ।

हर्षचरित में लक्ष्मी द्वारा हर्ष के वरण किये जाने का वर्णन है (स्वयमेव श्रिया परिगृहीत:) । एरण से प्राप्त गुप्त संवत् 165 वाले स्तम्भ में कहा गया है कि ‘महाराज मातृविष्णु का स्वयं लक्ष्मी ने ही वरण किया था ।’

इसी प्रकार के कुछ अन्य उदाहरण भी हैं । जूनागढ़ की पंक्ति में हम अधिक से अधिक यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि स्कन्दगुप्त अपने सभी भाइयों में योग्य था । अत: उसके पिता ने उसे उसी प्रकार अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया जिस प्रकार चन्द्रगुप्त प्रथम ने को किया था ।

यह कथन सिंहासन के लिये सर्वाधिक योग्य व्यक्ति के चयन का एक उदाहरण माना जा सकता है । आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में भी उल्लेख मिलता है कि स्कन्दगुप्त कुमारगुप्त के बाद गद्दी पर बैठा था । यहाँ समुद्र, विक्रम, महेन्द्र तथा सकाराद्य क्रमशः समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त तथा स्कन्दगुप्त के लिये ही प्रयुक्त हुआ है । इस प्रकार यह सम्पूर्ण प्रश्न अत्यधिक उलझा हुआ है ।

वास्तविकता जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि स्कन्दगुप्त के शासन के प्रारम्भिक वर्ष नितान्त अशान्तपूर्ण रहे । परन्तु सौभाग्य से तलवार के धनी स्कन्दगुप्त में वे सभी गुण विद्यमान थे जो तत्कालीन परिस्थितियों निपटने के लिये आवश्यक होते ।

अपनी वीरता एवं पराक्रम के बल पर उसने कठिनाइयों के बीच से अपना मार्ग प्रशस्त किया । अपने पिता के ही काल में वह पुष्यमित्रों को परास्त कर अपनी वीरता का परिचय दे चुका था । राजा होने पर उसके समक्ष एक दूसरी विपत्ति आई जो पहली की अपेक्षा अधिक भयावह थी । यह हूणों का प्रथम भारतीय आक्रमण था जिसने गुप्त साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया ।

हूण-आक्रमण:

हूण, मध्य एशिया में निवास करने वाली एक बर्बर जाति थी । जनसंख्या की वृद्धि एवं प्रसार की आकांक्षा से वे अपना मूल निवास-स्थान छोड़कर नये प्रदेशों की खोज में निकल पड़े । आगे चलकर उनकी दो शाखायें हो गयीं, पश्चिमी शाखा तथा पूर्वी शाखा ।

पश्चिमी शाखा के हूण आगे बढ़ते हुये रोम पहुँचे जिनकी ध्वंसात्मक कृतियों से शक्तिशाली रोम-साम्राज्य को गहरा धक्का लगा । पूर्वी शाखा के हूण क्रमशः आगे बढ़ते हुये आक्सस नदी-घाटी में बस गये । इसी शाखा ने भारत पर अनेक आक्रमण किये ।

हूणों का प्रथम आक्रमण स्कन्दगुप्त के समय में हुआ । यू. एन. राय के अनुसार इसका नेता खुशनेवाज था जिसने ईरान के ससानी शासकों को दबाने के बाद भारत पर आक्रमण किया होगा । यह युद्ध बड़ा भयंकर था ।

उसकी भयंकरता का संकेत भितरी स्तम्भलेख में हुआ है जिसके अनुसार- ‘हूणों के साथ युद्ध-क्षेत्र में उतरने पर उसकी भुजाओं के प्रताप से पृथ्वी कांप गयी तथा भीषण आवर्त (बवण्डर) उठ खड़ा हुआ ।’ दुर्भाग्यवश इस युद्ध का विस्तृत विवरण हमें प्राप्त नहीं होता ।

तथापि इतना स्पष्ट है कि स्कन्दगुप्त द्वारा हूण बुरी तरह परास्त किये गये तथा देश से बाहर खदेड़ दिये गये । इसका प्रमाण हमें स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है जिसमें हूणों को ‘म्लेच्छ’ कहा गया है । इसके अनुसार पराजित होने पर वे अपने देशों में स्कन्दगुप्त की कीर्ति का गान करने लगे । म्लेच्छ-देश से तात्पर्य गन्धार से लगता है जहाँ पराजित होने के बाद हूण नरेश ने शरण ली होगी ।

कुछ अन्य साक्ष्यों से भी इस विजय का संकेत परोक्ष रूप से हो जाता है । चन्द्रगोमिन् ने अपने व्याकरण में एक सूत्र लिखा है- ‘जार्टों (गुप्तों) ने हूणों को जीता’ (अजयत जार्टों (गुप्तों) हुणान्) । यहाँ तात्पर्य स्कन्दगुप्त की हूण-विजय से ही है.

युद्ध स्थल:

यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि स्कन्दगुप्त का हूणों के साथ युद्ध किस स्थान पर हुआ था । भितरी लेख में जिस स्थान पर हूण-युद्ध का वर्णन है उसके बाद ‘श्रोत्रेषु गांगध्वनि:’ अर्थात् दोनों कानों में गंगा की ध्वनि सुनाई पड़ती थी, उल्लिखित मिलता है ।
इस आधार पर बी. पी. सिन्हा की धारणा है कि यह युद्ध गंगा की घाटी में लड़ा गया था । उनके अनुसार स्कन्दगुप्त की- ‘प्रारम्भिक कठिनाइयों का लाभ उठाते हुए हूण गंगा नदी के उत्तरी किनारे तक जा पहुँचे थे ।’

जगन्नाथ, ने ‘गांगध्वनि:’ के स्थान पर ‘सांर्गध्वनि:’ पाठ बताया है तथा डी. सी. सरकार ने भी इसका समर्थन किया । उनके अनुसार यहाँ धनुषों की टंकार से तात्पर्य है । इस प्रकार यह शब्द युद्ध-स्थल का सूचक नहीं है ।

आर. पी. त्रिपाठी ने कल्हण की राजतरंगिणी से उदाहरण देकर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि ‘गांगध्वनि:’ शब्द का प्रयोग लेख में युद्ध की भयंकरता को इंगित करने के लिये किया गया है । राजतरंगिणी में एक युद्ध के प्रसंग में एक स्थान पर विवरण मिलता है कि- ‘विशाल लकड़ी के लट्‌ठों की गाँठों के टूटने से उत्पन्न चटचट का रव ऐसा लगता था मानो पृथ्वी के ऊपर ताप से खौलती हुई गंगा की ध्वनि हो ।’

इसी प्रकार की परिस्थिति में भितरी के लेखक ने भी ‘गांगध्वनि’ का प्रयोग किया है । ऐसा लगता है कि कवि ने यहाँ गांगध्वनि की समता बाणों की रगड़ से उत्पन्न भीषण ध्वनि से की है । यह एक भयंकर स्थिति को सूचित करने का आलंकारिक प्रयोग है तथा सम्भवत: गंगा से तात्पर्य आकाश गंगा से है, न कि पृथ्वी की गंगा से । बाणों के प्रयोग से आकाश का स्पष्ट संकेत मिलता है ।

इस प्रकार ‘गांगध्वनि’ को आधार मानकर यह निष्कर्ष निकालना कि स्कन्दगुप्त तथा हूणों के बीच युद्ध गंगा की घाटी में हुआ था, तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता है । अत्रेयी विश्वास के अनुसार यह मानना अधिक उचित प्रतीत होता है कि स्कन्दगुप्त ने हूणों के साथ युद्ध अपने साम्राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर किया होगा ।

उपेन्द्र ठाकुर का विचार है कि हूण-युद्ध या तो सतलज नदी के तट पर या पश्चिमी भारत के मैदानों में लड़ा गया था । जूनागढ़ लेख हमें बताता है कि स्कन्दगुप्त इसी प्रदेश की रक्षा के लिये सर्वाधिक चिन्तित था ।

तदनुसार ‘इस प्रदेश का शासक नियुक्त करने के लिये स्कन्दगुप्त ने कई दिन तथा रात तक विचार करने के उपरान्त इसकी रक्षा का भार पर्णदत्त को सौंपा था । जिस प्रकार देवता वरुण को पश्चिमी दिशा का स्वामी नियुक्त कर निश्चिन्त हो गये थे उसी प्रकार वह पर्णदत्त को पश्चिमी दिशा का रक्षक नियुक्त करके आश्वस्त हो गया था ।

इस प्रकार स्कन्दगुप्त तथा हूणों के बीच हुए युद्ध का स्थान निश्चित रूप से निर्धारित कर सकना कठिन है । विभिन्न मत-मतान्तरों को देखते हुए पश्चिमी भारत के किसी भाग को ही युद्ध-स्थल मानना अधिक तर्कसंगत लगता है ।

युद्ध-स्थल कहीं भी रही हो, स्कन्दगुप्त ने उन्हें पराजित कर अपने साम्राज्य से बाहर खदेड़ दिया । वे गन्धार तथा अफगानिस्तान में बस गये जहां हूण ईरान के ससानी राजाओं के साथ संघर्ष में उलझ गये । 484 ईस्वी में ससानी नरेश फिरोज की मृत्यु के बाद ही हूण भारत की ओर उन्मुख हो सके । हूणों को पराजित करना तथा उन्हें देश से बाहर भगा देना निश्चित रूप से एक महान् सफलता थी जिसने गुप्त साम्राज्य को एक भीषण संकट से बचा लिया ।

भारत के ऊपर हूणों के परवर्ती आक्रमणों तथा अन्य देशों में उनकी ध्वंसात्मक कृतियों को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि स्कन्दगुप्त द्वारा उनका सफल प्रतिरोध उस युग की महानतम उपलब्धियों में से था ।

इस वीर कृत्य ने उसे समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय के समान ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण करने का अधिकार दे दिया । स्कन्दगुप्त ने हूणों को 460 ईस्वी के पूर्व ही पराजित किया होगा क्योंकि इस तिथि के कहौम लेख से पता लगता है कि उसके राज्य में शान्ति थी । इसके बाद के इन्दौर तथा गढ़वा लेखों से भी उसके साम्राज्य की शान्ति और समृद्धि सूचित होती है । अत: स्पष्ट है कि हूणों का आक्रमण उसके शासन के प्रारम्भिक वर्षों में ही हुआ होगा ।

3. स्कन्दगुप्त का विजयें (Victories of Sakandgupta):

जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि स्कन्दगुप्त की ‘गरुड़ध्वजांकित राजाज्ञा नागरूपी उन राजाओं का मर्दन करने वाली थी जो मान और दर्प से अपने फन उठाये रहते थे ।’ इस आधार पर फ्लीट ने निष्कर्ष निकाला है कि स्कन्दगुप्त ने नागवंशी राजाओं को भी पराजित किया था ।

परन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते । सम्भव है इस कथन का संकेत मित्रों तथा हूणों के लिये ही हो । ऐसा प्रतीत होता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक उलझनों का लाभ उठाकर दक्षिण से वाकाटकों ने भी उसके राज्यों पर आक्रमण किया तथा कुछ समय के लिये मालवा पर अधिकार कर लिया ।

वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन को बालाघाट लेख में कोशल, मेकल तथा मालवा का शासक बताया गया है । किन्तु स्कन्दगुप्त ने शीघ्र इस प्रदेश के ऊपर अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया तथा जीवनपर्यन्त उसका शासक बना रहा । वाकाटक उसे कोई क्षति नहीं पहुँचा सके ।

4. स्कन्दगुप्त का साम्राज्य विस्तार(Empire Expansion of Sakandgupta):

मित्रों तथा हूणों के विरुद्ध सफलताओं के अतिरिक्त स्कन्दगुप्त की अन्य किसी उपलब्धि के विषय में हमें ज्ञात नहीं । उसके अभिलेखों और सिक्कों के व्यापक प्रसार से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने अपने पिता एवं पितामह के साम्राज्य को पूर्णतया अक्षुण्ण बनाये रखा ।

जूनागढ़ लेख सौराष्ट्र प्रान्त पर उसके अधिकार की पुष्टि करता है । उसकी विविध प्रकार की रजत मुद्राओं से पता चलता है कि साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर उसका शासन था । गरुड़ प्रकार के सिक्के पश्चिमी भारत, वेदी प्रकार के सिक्के मध्य भारत तथा नन्दी प्रकार के सिक्के काठियावाड़ में प्रचलित करवाने के निमित्त उत्कीर्ण करवाये गये थे ।

इस प्रकार सम्पूर्ण उत्तर भारत पर उसका आधिपत्य था । उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक के विस्तृत भूभाग पर शासन करने वाला वह अन्तिम महान् गुप्त सम्राट था ।

शासन-प्रबन्ध:

स्कन्दगुप्त न केवल एक वीर योद्धा था, अपितु वह एक कुशल शासक भी था । अभिलेखों से उसकी शासन-व्यवस्था के विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं । विशाल साम्राज्य प्रान्तों में विभाजित था ।

प्रान्त को देश, अवनी अथवा विषय कहा गया है । प्रान्त पर शासन करने वाले राज्यपाल को ‘गोप्ता’ कहा गया है । पर्णदत्त सौराष्ट्र प्रान्त का राज्यपाल था । वह स्कन्दगुप्त के पदाधिकारियों में सर्वाधिक योग्य था और उसकी नियुक्ति स्कन्दगुप्त ने खूब सोच-विचार कर की थी ।

ऐसा प्रतीत होता है कि सौराष्ट्र के ऊपर हूणों के आक्रमण का डर था । इसी कारण स्कन्दगुप्त ने अपने सबसे योग्य तथा विश्वासपात्र अधिकारी को वहां का राज्यपाल नियुक्त किया था । सर्वनाग अन्तर्वेदी (गंगा-यमुना के बीच का दोआब) का शासक था । कौशाम्बी में उसका राज्यपाल था जिसका उल्लेख वहाँ से प्राप्त एक प्रस्तर मूर्ति में मिलता है ।

प्रमुख नगरों का शासन चलाने के लिये नगरप्रमुख नियुक्त किये जाते थे । सुराष्ट्र की राजधानी गिरनार का प्रशासक चक्रपालित था जो पर्णदत्त का पुत्र था । स्कन्दगुप्त का शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी एवं समृद्ध थी । किसी को कोई कष्ट नहीं था ।

तभी तो जूनागढ़ अभिलेख का कथन है कि- ‘जिस समय वह शासन कर रहा था, उसकी प्रजा में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो धर्मच्युत् हो अथवा दु:खी, दरिद्र, आपत्तिग्रस्त, लोभी या दण्डनीय होने के कारण अत्यन्त सताया गया हो ।’
लोकोपकारिता के कार्य:

स्कन्दगुप्त एक अत्यन्त लोकोपकारी शासक था जिसे अपने प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी । वह दीन-दुखियों के प्रति दयावान था । प्रान्तों में उसके राज्यपाल भी लोकोपकारी कार्यों में सदा संलग्न रहते थे ।

जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के शासन-काल में भारी वर्षा के कारण ऐतिहासिक सुदर्शन झील का बाँध टूट गया । क्षण भर के लिये वह रमणीय झील सम्पूर्ण लोक के लिये दुदर्शन यानी भयावह आकृति वाली बन गयी । इससे प्रजा को महान कष्ट होने लगा ।

इस कष्ट के निवारणार्थ सुराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने, जो गिरनार नगर का नगरपति था, दो माह के भीतर ही अतुल धन का व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया ।

लेख के अनुसार यह बाँध सौ हाथ लम्बा तथा अरसठ हाथ चौड़ा था । इससे प्रजा ने सुख की सांस ली तथा स्वभाव से ही अदुष्ट सुदर्शन झील शाश्वत रूप में स्थिर हो गयी । यहाँ उल्लेखनीय है कि सुदर्शन झील का निर्माण प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के सुराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने पश्चिमी भारत में सिचाई की सुविधा के लिये करवाया था ।

अशोक के राष्ट्रीय यवन जातीय तुषास्प ने उस झील पर बाँध का निर्माण करवाया था । यह बाँध प्रथम बार शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन (130-150 ईस्वी) के समय टूट गया जिसका पुनर्निर्माण उसने अतुल धन व्यय करके अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में करवाया था ।

5. स्कन्दगुप्त का धर्म एवं धार्मिक नीति(Religion and Religious Policy of Sakandgupta):

अपने पूर्वजों की भाँति स्कन्दगुप्त भी एक धर्मनिष्ठ वैष्णव था तथा उसकी उपाधि “परमभागवत” की थी । उसने भितरी में भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित करवायी थी । गिरनार में चक्रपालित ने भी सुदर्शन झील के तट पर विष्णु की मूर्ति स्थापित करवाई थी । परन्तु स्कन्दगुप्त धार्मिक मामलों में पूर्णरूपेण उदार एवं सहिष्णु था ।

उसने अपने साम्राज्य में अन्य धर्मों को विकसित होने का भी अवसर दिया । उसकी प्रजा का दृष्टिकोण भी उसी के समान उदार था । इन्दौर के लेख में सूर्य-पूजा का उल्लेख मिलता है । कहौम लेख से पता चलता है कि मद नामक एक व्यक्ति ने पाँच जैन तीर्थकंरों की पाषाण-प्रतिमाओं का निर्माण करवाया था । यद्यपि वह एक जैन था तथापि ब्राह्मणों, श्रमणों एवं गुरुओं का सम्मान करता था । इस प्रकार स्कन्दगुप्त का शासन धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता का काल रहा ।

6. स्कन्दगुप्त का मूल्यांकन (Evaluation of Sakandgupta):

स्कन्दगुप्त एक महान् विजेता एवं कुशल प्रशासक था जो अपने समय के सर्वथा उपयुक्त सिद्ध हुआ । अपनी वीरता एवं पराक्रम के बल पर उसने अपने वंश की विचलित राजलक्ष्मी को पुन: प्रतिष्ठित कर दिया ।

कुमारगुप्त के पुत्रों में वह सर्वाधिक योग्य एवं बुद्धिमान था, तभी तो जूनागढ़ अभिलेख में वर्णन मिलता है कि- ‘सभी राजकुमारों को छोड़कर लक्ष्मी ने स्वयं उसका वरण किया ।’ वीरता के गुण उसमें बचपन से ही कूट-कूट कर भरे हुये थे ।

राजकुमार के रूप में ही उसने मित्र जैसी भयंकर शत्रु जाति को पराजित किया था तथा राजा होने पर हूणों के गर्व को चूर्ण कर उन्हें देश के बाहर भगा दिया । यदि स्कन्दगुप्त जैसे पराक्रम का व्यक्ति गुप्त साम्राज्य की गद्दी पर आसीन नहीं होता तो वह हूणों द्वारा पूर्णतया छिन्न-भिन्न कर दिया जाता ।

हूणों द्वारा इस देश के विनाश को लगभग आधी शती तक रोक कर उसने महान् सेवा की और अपने इस वीर कृत्य के कारण वह ‘देश-रक्षक’ के रूप में जाना गया । यदि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानियों की दासता से देश को मुक्त किया तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विदेशी शकों की शक्ति का विनाश किया तो स्कन्दगुप्त ने अहंकारी हूणों के गर्व को चूर्ण कर दिया ।

नि:सन्देह वह गुप्तवंश का एकमात्र वीर (गुप्तवंशैक वीर:) था जिसका चरित्र निर्मल तथा उज्जवल था । उसकी प्रजा उससे इतनी अधिक उपकृत थी कि- ‘उसकी अमल कीर्ति का गान बालक से लेकर प्रौढ़ तक प्रसन्नतापूर्वक सभी दिशाओं में किया करते थे ।’

उसका शासन उदारता, दया एवं बुद्धिमत्ता से भरा हुआ था जिसमें भौतिक एवं सांस्कृतिक उन्नति अबाध गति से होती रही । बौद्ध ग्रन्थ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के लेखक ने भी स्कन्दगुप्त को ‘श्रेष्ठ, बृद्धिमान तथ धर्मवत्सल’ शासक कहा ।
उसकी मृत्यु के समय तक गुप्त-साम्राज्य की सीमायें पूर्णतया सुरक्षित रहीं । इस प्रकार स्कन्दगुप्त एक महान् विजेता, मुक्तिदाता, अपने वंश की प्रतिष्ठा का पुनर्स्थापक तथा अन्ततोगत्वा एक प्रजावत्सल सम्राट था । वस्तुतः वह गुप्त वंश के महानतम राजाओं की श्रृंखला में अन्तिम कड़ी था । उसकी मृत्यु के साथ ही गुप्त-साम्राज्य विघटन एवं विभाजन की दिशा में अग्रसर हुआ ।
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स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ शिलालेख

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अर्थशास्त्र में लिखी कई बातें कई प्राचीन ग्रंथों में भी पाई जाती हैं। देश के प्रायः हरेक भाग में कई कालखंडों के कई शिलालेख पाए गए हैं जिनमें बांधों, तालाबों, तटबंधों के रखरखाव और प्रबंधन की सूचनाएं खुदी हुई हैं। जूनागढ़ (गुजरात) में दो शिलालेखों में बाढ़ से नष्ट तटबंध की मरम्मत के बारे में दिलचस्प सूचनाएं हैं।


पहला शिलालेख शक् संवत् 72 (150-151 ई.) का है, शक शासक रुद्रदमन का इस शिलालेख में महाक्षत्रप रुद्रदमन द्वारा सुदर्शन झील की मरम्मत आदि के दिलचस्प विवरण हैं। शुरू में इस झील का निर्माण चंद्रगुप्त मौर्य के अधिकारी पुष्यगुप्त ने करवाया था। बाद में अशोक के शासन में इसमें और सुधार किया गया। यवन राजा तुशाष्य ने इस झील से नहर निकलवाया। यह झील उर्जयत (गिरनार) में उर्जयत पहाड़ी से निकले सुवर्णसिकता और पालसिनी झरनों के पानी को जमा करके बनाई गई थी। 150-151 ई. से थोड़ा पहले उर्जयत पहाड़ी के सुवर्णसिकता, पालसिनी और दूसरे झरनों में बाढ़ के कारण तटबंधों में दरार पड़ गई और सुदर्शन झील समाप्त हो गई। बांध को फिर से बनाने का काम राजा रुद्रदमन के पल्लव मंत्री सुविसाख ने किया। सुविसाख की नियुक्ति सुवर्ण और सौराष्ट्र प्रांतों का शासन चलाने के लिए की गई थी।

शिलालेख से कई बातें सामने आती हैं। झील के पानी का उपयोग राजा तुशाष्य द्वारा खुदवाई गई नहरों से सिंचाई के लिए होता था। चार शताब्दी बाद उसकी मरम्मत एक पहलव या पल्लव सामंत ने करवाई। दोनों ही काम विदेशियों ने किए। इस तरह यह शिलालेख केवल बांध ही नहीं, झील का भी एक रिकॉर्ड है। इससे पता चलता है कि ई.पू. चौथी शताब्दी में भी लोग बांध, झील और सिंचाई प्रणाली का निर्माण जानते थे।

तीन सौ साल बाद मरम्मत आदि का काम पूरा होने पर 455-456 ई. में सुदर्शन झील भारी बरसात के कारण फिर टूट गई। 456 ई. में चक्रपालित के आदेश पर इस विशाल दरार की मरम्मत करके तटबंधों को दो महीने में दुरुस्त किया गया। सम्राट स्कंदगुप्त (455-467 ई.) के काल के जूनागढ़ के एक शिलालेख से पता चलता है कि चक्रपालित ने सुदर्शन झील के तटबंध की मरम्मत करवाई।

दोनों शिलालेखों में कई समान बातें दर्ज हैं। दोनों में झील का नाम सुदर्शन तातक या ताड़क बताया गया है। यह भी बताया गया है कि झील पालसिनी नदी (रुद्रदमन के शिलालेख में सुवर्णसिकता नाम भी दिया गया है) और दूसरे झरनों पर सेतुबंधन या तटबंध बनाकर तैयार की गई। कौटिल्य ने भी तटबंध के लिए सेतु शब्द का प्रयोग किया है। सेतु और सेतुबंधन शब्द कई संस्कृत ग्रंथों में भी मिलते हैं। रुद्रदमन के शिलालेख में दूसरे शब्द जो प्रयोग किए गए हैं वे हैं- नहर के लिए प्रणाली, कचरा बंधारा के लिए परिवह, झील से गाद की सफाई के लिए मिधविधान। प्रत्येक शिलालेख ने दरार का पूरा नाप-जोख बताया है और तटबंध के पुनर्निर्माण में लगे समय का पूरा ब्यौरा दिया है। इन तटबंधों को शुरू में मिट्टी से बनाया गया था जिनके दोनों तरफ पत्थर लगाए गए थे। देश भर में निर्माण का यह ठोका-बजाया तरीका तब तक अपनाया जाता रहा जब तक सीमेंट और कंक्रीट नहीं आ गए। सुदर्शन झील पर अपने अनुसंधान के दौरान प्रख्यात इतिहासज्ञ आर.एन. मेहता ने कचरा बंधारा का पता लगाया जिसे जोगनियो पहाड़ी को काटकर बनाया गया था। इसे स्थानीय भाषा में डुंगर कहा जाता है। ऐसे कचरा बंधारे पहाड़ों में कई जगह पाए जा सकते हैं। तटबंध के नष्ट हो जाने के कारण सुदर्शन झील शायद आठवीं या नौंवी ई. में बेकार हो गई और फिर से प्रयोग में नहीं लाई जा सकी। इस तरह इसका जीवन काफी लंबा करीब एक हजार वर्षों का रहा।

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त


कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन और आलोचना

 प्राचीन भारतीय राजदर्शन में राज्य के सावयव रूप का उल्लेख मिलता है। तत्कालीन विद्वान् राज्य को एक सजीव प्राणी मानते थे। 'ऋग्वेद' में संसार की कल्पना विराट् पुरुष के रूप में की गई है और उसके अवयवों द्वारा सृष्टि के विभिन्न रूपों का बोध कराया गया है । मनुभीष्म,शुक्र आदि प्राचीन मनीषियों ने राज्य की कल्पना एक ऐसे जीवित जाग्रत शरीर के रूप में की है जिसके 7 अंग होते हैं। कौटिल्य ने भी राज्य के आंगिक स्वरूप का समर्थन किया और राज्य को सप्त प्रकृतियुक्त माना ।
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कौटिल्य के अनुसार राज्य की ये सात प्रकृतियाँ अथवा अंग इस प्रकार हैं-

स्वामी (राजा)अमात्य (मन्त्री),जनपद,दुर्ग,कोष,दण्ड तथा मित्र 
कौटिल्य के अनुसार राज्य रूपी शरीर के उपर्युक्त सात अंग होते हैं और ये सब मिलकर राजनीतिक सन्तुलन बनाए रखते हैं। राज्य केवल उसी दशा में अच्छी प्रकार कार्य कर सकता है जब ये सातों अंग पारस्परिक सहयोग तथा उचित रूप से अपना-अपना कार्य करें।


कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त :-  


कौटिल्य ने अपने सप्तांग सिद्धान्त में राज्य के सात अंगों का उल्लेख किया हैजो निम्न प्रकार है


(1) स्वामी (राजा):-

कौटिल्य ने राज्य के अन्तर्गत 'स्वामी' (राजा) को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। कौटिल्य के अनुसार राजा ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो उच्च कुल में जन्मा होधर्म में रुचि रखने वाला होदूरदर्शी हो,सत्यवादी होमहत्त्वाकांक्षी होपरिश्रमी हो,गुणीजनों की पहचान तथा उनका आदर करने वाला होशिक्षा प्रेमी होयोग्य मन्त्रियों को रखने वाला तथा सामन्तों पर नियन्त्रण रखने वाला हो । कौटिल्य के अनुसार राजा में विवेक व परिस्थिति देखकर कार्य करने की क्षमताप्रजा की सुरक्षा व पोषण की क्षमतामित्र-शत्रु की पहचान तथा चापलूसों को पहचानने की योग्यता होनी चाहिए।
कौटिल्य के अनुसार राजा को सैन्य संचालन,सेना को युद्ध की शिक्षा,सन्धिविग्रहशत्रु की कमजोरी का पता लगाने की कुशलतादूरदर्शी आदि गुणों से युक्त होना चाहिए। वह तेजस्वीआत्मसंयमीकामक्रोधलोभमोह आदि से दूर रहने वाला,मृदुभाषी किन्तु दूसरों की मीठी बातों में न आने वाला,दूसरों की हँसी न उड़ाने वाला होना चाहिए। कौटिल्य के अनुसार राजा को दण्डनीतिराज्य संचालनसैनिक शिक्षामानवशास्त्रइतिहासधर्मशास्त्रअर्थशास्त्र आदि विद्याओं का ज्ञाता होना चाहिए।


(2) अमात्य:-

 कौटिल्य के अनुसार राज्य का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग अमात्य अथवा मन्त्री है,जिसके बिना राजा द्वारा शासन संचालन कठिन ही नहीं,असम्भव है। चूँकि राजकार्य बहुत अधिक होते हैं और राजा सब कार्य स्वयं नहीं कर सकताअतः उसे ये कार्य अमात्यों से कराने चाहिए । कौटिल्य ने अमात्य का महत्त्व स्पष्ट करते हुए कहा है कि राज्य एक रथ है। जिस प्रकार रथ एक पहिये से नहीं चल सकताउसी प्रकार मन्त्रियों की सहायता के बिना राजा अकेले राज्य का संचालन नहीं कर सकता। अमात्य की नियुक्ति के सम्बन्ध में कौटिल्य ने कहा है कि राजा को योग्य तथा निष्ठावान व्यक्तियों को ही अमात्य के पद पर नियुक्त करना चाहिए। अपने सम्बन्धियोंसहपाठियों और परिचितों को भी अमात्य के पद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए यदि वे पदानुरूप योग्यता न रखते हों । प्रमादी,शराबी,व्यसनी,अहंकारी तथा वेश्यागामी व्यक्ति को भी अमात्य के रूप में नियुक्त नहीं करना चाहिए,क्योंकि ऐसा व्यक्ति विश्वास के योग्य नहीं होता और विभिन्न प्रलोभनों में फँसकर राज्य के गोपनीय तथ्यों को प्रकट कर देता हैजो राज्य और राजादोनों के लिए अहितकर सिद्ध होता है।
अमात्यों की संख्या कितनी होइसका निर्धारण करने का कार्य कौटिल्य ने राजा पर छोड़ दिया है। वह राजकार्य की आवश्यकतानुसार उनकी नियुक्ति कर सकता है। लेकिन कौटिल्य का सुझाव है कि राजकार्य हेतु मन्त्रणा करने वालों की संख्या सीमित होनी चाहिएक्योंकि अधिक लोगों से की गई मन्त्रणा से गोपनीयता के भंग होने का खतरा रहता है।
कौटिल्य का यह भी सुझाव है कि राजा राजकार्य के संचालन हेतु अमात्यों से परामर्श करेकिन्तु यदि उसे उनके द्वारा दिया गया परामर्श राज्य हित के अनुकूल न लगे,तो ऐसी स्थिति में वह अपने विवेकानुसार निर्णय लेने हेतु स्वतन्त्र है।


(3) जनपद:-

कौटिल्य ने राज्य का तीसरा अंग जनपद बतलाया है। जनपद के अभाव में राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसके अन्तर्गत कौटिल्य ने जनता व भूमि को सम्मिलित किया है। उसका कहना है कि जनता को स्वामिभक्तकरों को चुकाने वाली व सम्पन्न होना चाहिए । भूमि के सम्बन्ध में कौटिल्य का कहना है कि उसमें वनतालाबखानेनदीउपजाऊ मिट्टीसैनिककिलेपर्वतपशु और पक्षी होने चाहिए।
कौटिल्य ने जनपद की स्थापना का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उसका मत है कि राजा को या तो दूसरे देशों से मनुष्यों को बुलाकर अथवा अपने राज्य की जनसंख्या बढ़ाकर नये जनपदों की स्थापना करनी चाहिए। प्रशासनिक दृष्टि से जनपद स्थानीय,द्रोणमुख,खार्वटिक और संग्रहण में बँटा होना चाहिए। एक गाँव की जनसंख्या के सम्बन्ध में कौटिल्य का मत है कि एक गाँव में कम-से-कम 100 और अधिक-से-अधिक 500 घर होने चाहिए।


(4) दुर्ग:-

कौटिल्य ने कहा है कि राज्य के लिए दुर्ग भी उतने ही आवश्यक हैं जितनी जनताभूमि अथवा राजा ।कौटिल्य के अनुसार आक्रमण करने की दृष्टि से और अपने राज्य की सुरक्षा के लिए दुर्ग आवश्यक हैं। दुर्ग मजबूत तथा सुरक्षित होने चाहिएजिनमें भोजन-पानी और गोला-बारूद का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।

सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक दुर्गों को कौटिल्य ने अग्र चार भागों में बाँटा है।

 (i) औदक दुर्ग-चारों ओर से स्वाभाविक जल (नदी,तालाब आदि) से घिरा/ टापू की भाँति प्रतीत होने वाला दुर्ग।
(ii) पार्वत दुर्ग-पर्वत की कन्दराओं अथवा बड़े-बड़े पत्थरों की दीवारों से निर्मित दुर्ग।
(iii) धान्वन दुर्ग-जल और घास रहित भूमि (मरुस्थल) में स्थित दुर्ग।
(iv) वन दुर्ग-चारों ओर दलदल अथवा काँटेदार झाड़ियों से घिरा दुर्ग।


(5) कोष:-

 कौटिल्य ने कोष को भी राज्य का आवश्यक अंग बतलाया हैक्योंकि कोष राज्य की समस्त गतिविधियों का आधार है। कौटिल्य के अनुसार राजा को अपने कोष में निरन्तर वृद्धि करते रहना चाहिए। इस हेतु उसे कृषकों से उपज का छठा भाग,व्यापारिक लाभ का दसवाँ भाग,पशु व्यापार से अर्जित लाभ का पचासवाँ भाग तथा सोना आदि कर के रूप में प्राप्त करना चाहिए । कोष के सम्बन्ध में कौटिल्य का निर्देश है कि राजा को कोष धर्मपूर्वक एकत्रित करना चाहिए । कर उतने ही लगाने चाहिए जिसे जनता आसानी से दे सके।


(6) दण्ड (सेना):-

कौटिल्य दण्ड को राजा की एक उल्लेखनीय प्रकृति मानता है। दण्ड से तात्पर्य सेना से है। उनके अनुसार दण्ड राज्य की सम्प्रभुता को प्रदर्शित करता है। कौटिल्य के अनुसार राजा की शक्ति उसकी सेना,गुप्तचर विभागपुलिस तथा न्याय व्यवस्था में प्रकट होती है। कौटिल्य का मत है कि राज्य की सुरक्षा के लिए सेना का विशेष महत्त्व है। जिस राजा के पास अच्छा सैन्य बल होता है,उसके मित्र तो मित्र बने ही रहते हैं,साथ ही शत्रु भी मित्र बन जाते हैं । सैनिक अस्त्र-शस्त्र प्रयोग में निपुणवीरस्वाभिमानी और राष्ट्रभक्त होने चाहिए। कौटिल्य के अनुसार सैनिकों को अच्छा वेतन व अन्य सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिएजिससे वे निश्चिन्त होकर देश-सेवा में तत्पर रहें।


(7) मित्र :-

सप्तांग सिद्धान्त के अन्तर्गत कौटिल्य ने कहा है कि राजा को अपने पड़ोसी राज्यों से मित्रता करनी चाहिएजिससे आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता प्राप्त की जा सके। मित्र वंश-परम्परागतविश्वसनीय तथा हितैषी हों और राजा व उसके राज्य को अपना समझते हों । परन्तु कौटिल्य ने यह भी कहा है कि मित्र बनाने से पहले राजा को उन्हें परखना चाहिएजिससे वे धोखा न दे सकें।

कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त की आलोचना :-

कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त की अग्रलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है

 (1) कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त से हमें राज्य के शरीर सिद्धान्त का आभास मिलता है। आलोचकों के अनुसार राज्य को एक शरीर मानना अनुचित है।
(2) कौटिल्य ने दुर्ग,कोष,सेना और मित्र को राज्य का आवश्यक अंग माना है। यह बात सत्य है कि ये सभी अंग राज्य के लिए आवश्यक हैं परन्तु इन्हें राज्य का आधारभूत तत्त्व नहीं माना जा सकता। आलोचकों के अनुसार प्रत्येक राज्य में सेना पाई जाती हैउस पर बल दिया जाता हैकिन्तु सेना के अभाव में किसी राज्य का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता।
(3) आलोचकों के अनुसार सम्प्रभुतासरकारजनसंख्या और भूभाग आधुनिक राज्य के आवश्यक अंग हैं । परन्तु कौटिल्य ने कहीं भी इनका स्पष्ट वर्णन नहीं किया है।
(4) कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित सप्तांग सिद्धान्त राजतन्त्रात्मक शासन के लिए ही उपयुक्त है। इसमें प्रजातन्त्र की पूर्ण उपेक्षा की गई है।

https://sanskritvarta.in/2023/02/20/there-are-many-opportunities-in-sanskrit-dr-madan-kumar-jhavarya/