मंगलवार, 23 नवंबर 2021

लय और ताल

 लय और ताल

लय बिना संगीत की कल्पना करना संभव नहीं .
भारतीय संगीत में तो ताल के बिना भी संगीत की कल्पना असंभव ही है .
ताल शब्द से जों सबसे पहले चीज़ या शब्द दिमाग में आता है वो है rhythm .
लेकिन भारतीय संगीत में ताल rhythm के सन्दर्भ में वो तकनीक है जिसे जाने और सीखे बिना भारतीय संगीत का कोई भी कलाकार चाहे वो गायक हो ,कोई संगीत वाध्य बजाता हो या कोई भी नृत्य करता हो (ताल शाष्त्र को पढ़े बिना ,जाने बिना) अपने चयनित विषय की पहली पंक्ति भी नहीं सीख पायेगा .क्यों ?
भारतीय संस्कृति 5000 वर्ष पहले से ही एक परिष्कृत संस्कृति है .जब आज के विश्व की अन्य सभ्यताएं जंगलों में रह रही थी तब भारतीय संस्कृति अपने विकास के उस उच्चतम शिखर पर थी . जों आज के 21वीं सदी के लिए भी एक अध्ययन का विषय है .भारतीय संगीत भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तरह बहु आयामी रहा है .
इतिहास करवटें बदलता रहा- इतिहास के घने अन्धकार से निकलने में भारतीय समाज को अपनी पुरानी चेतना शक्ति प्राप्त करने प्रयास करना पड़ा होगा और उसमे समय लगा होगा ,किन्तु भारतीय संगीत का इतिहास तो यही बता है कि इतिहास का कोई भी पन्ना चाहे काले अक्षरों से लिखा हो या स्वर्ण अक्षरों से संगीत ने दोनों पन्नों पर अपना काम बिना किसी पक्षपात के किया . यद्यपि धारणा है कि ब्रिटिश काल में संगीत का पतन हुआ किन्तु मेरी समझ कहती है संगीत इस समय अपने लिए कुछ ठिकाने ढूंढ छिप कर बैठ गया ----पूरी शक्ति से विशाल वट वृक्ष की तरह पनपने के लिए ..उसने विष्णु दिगम्बर पलुस्कर और विष्णु नारायण भातखंडे जैसे संगीत के महा नायकों की कठिन तपस्या से अपने लिए वो राह बना ली जिससे आज वो जनसामान्य का भी उतना अपना है जितना कभी घरानेदारों का होता था .आज का संगीत अपने हर प्यार करने वाले का एकदम अपना है .
ताल के सदर्भ में इतनी बात का क्या फायदा ?
इसका उत्तर सिर्फ़ इतना है कि भारतीय rhythm शाष्त्र लय से आगे या कहें पहले बहुत कुछ है तथा भारतीय संगीत को सीखने की पहली सीढ़ी ताल को समझना है ,इस सीढी को पार कर के ही आप अपनी पसंद का वाध्य बजा सकते हैं ,गा सकते हैं या नाच सकते हैं ...
इतनी महत्वपूर्ण चीज़ ताल है क्या ?
ताल - मात्राओं के समूह को भारतीय संगीत में ताल कहते हैं .
हर ताल कुछ निश्चित संख्या के अंकों ( numbers ) से बनी होती है .
इन्हीं अंकों को मात्रा नाम दिया गया है ,क्यों ? -
क्योंकि मात्रा शब्द हिंदी भाषा का शब्द है ,जों किसी भी चीज़ को नापने के काम आता है या quantity बताने के काम आता है .
ताल में यही मात्रा शब्द ताल की लम्बाई का अनुमान लगाने के काम आता है ,उदहारण के लिए -तीनताल मे 16 मात्रा होती है अर्थात एक से लगाकर सोलह अंक से बनती है तथा दादरा ताल मे एक लगाकर 6 तक अंक होते है जिन्हें संगीत का विद्यार्थी इस तरह बताता है -तीनताल सोलह मात्रा से बनती है तथा दादरा ताल छह मात्रा से बनी होती है अतः यह अनुमान लगाना सरल हो जाता है कि तीनताल दादरा ताल से एक बड़ी ताल है .

ताल एक तरह का imaginary frame है या ढांचा है, जिसमे गीत के बोल फिट किये जाते है .इस तरह गीत का एक स्वरुप या rough ढांचा हमें मिलता है जिसमें लय की सहायता से फिनिशिंग टच (touch ) दिया जाता है ,लय जितनी correct होगी ताल के frame में तैयार गीत के rough ढाँचे की खूबसूरती उतनी ही ज्यादा होगी... ,ताल -concrete है , लय abstract है .
ताल को समझना और प्रस्तुत करना जितना सरल है लय को समझना उतना ही कठिन है ,एक कलाकार का लय पर जितना अधिक अधिकार होगा उसकी कला का जादू उतना ही ज्यादा होगा .
इसे उदहारण द्वारा समझना हो तो -नृत्य में पंडित बिरजू महाराज और गायन में लता मंगेशकर का जों जादू दशकों से संगीत जगत मैं छाया है उसमें
अन्य अनेक कारणों में इन दोनों कालजयी कलाकारों का सबसे बड़ा कारण लय पर असामान्य अधिकार होना है ,इसको मैं इस बात से सिद्ध करना चाहूंगी कि जिसने भी उनकी कला का साक्षात्कार किया किसी भी कारण से तथा किसी भी मन से ,उसके अंतर्मन के उन अंधियारे कोनो मैं रौशनी चमक उठी जिन कोनों का उसे खुद भी कभी भान नहीं था कि ये उसके खुद के हिस्से हैं .उसका जीवन इतनी दूर तक फैला है ,वो इतनी बड़ी दुनियां का मालिक है .

लय संगीत की आत्मा है .
जिस कलाकार का लय पर अधिकार है वो कला के क्षेत्र में नए -नए ब्रह्मांडों की रचना कर सकता है और करता है .किसी भी रचना में महसूस की जाने वाली भावना का एकमात्र कारण उसकी लय है .स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर सुरीली है ,उनके गायन में लय है वो सब है लेकिन वो जिस लय में शब्दों का उच्चारण करती है वो- गीत के शब्दों को ऐसा जीवन दान दान देता है कि वो गीत हमेशा के लिए अमर हो जाता है .
अतः ताल ---
A group of definite  number of Matras is known as Taal.
These definite  number of Matras are divided into number of divisions .
Every taal has definite number of Taali and Khali.
and to understand more about the properties of Taal-
MATRA-every Taal is made up of fix numbers and these numbers are known as Matra.
VIBHAG-The fix Matraas of every Taal is divided into fix divisions known as Vibhaag.
TAALI  /KHALI-while reciting a Taal on hand ,on the beginning of a new division we either clap or slightly bend our one palm ,clap is known as Taali and bending of palm is to show khali.
LAYA-Gati in Hindi or speed in English is known as Laya in music.
Speed =ditance upon time 
There are three types of Laya in music.
Vilambit Laya-it is slower than the speed we mostly adopt in our day to day life to do our daily work.
Madhya Laya-Its the same speed we are mostly accustomed to do our daily work,neither slow nor fast.
Drut Laya-It is faster than the Madhya Laya.

शनिवार, 20 नवंबर 2021

सामान्य बीमारी

सामान्य बीमारी
सिरदर्द प्रायः सभी व्यक्ति सिरदर्द से पीड़ित होता है और कुछ लोग इससे काफी असुविधा महसूस करते हैं। लेकिन अधिकांश लोगों में यह अस्थायी लक्षण होती है। सामान्यतौर पर सिरदर्द अस्थायी होते हैं और अपने-आप ठीक हो जाते हैं। हालांकि यदि दर्द असहनीय हो, तो अपने चिकित्सक से संपर्क करने में संकोच न करें। चिकित्सक को तेज, रूक-रूक कर आनेवाले और बुखार के साथ सिरदर्द की जांच करनी चाहिए। सिरदर्द कब गंभीर होता है? सभी सिरदर्द को चिकित्सकीय इलाज की जरूरत नहीं होती। कुछ सिरदर्द भोजन या मांसपेशियों के तनाव से पैदा होते हैं और घर में ही उनका इलाज किया जा सकता है। अन्य सिरदर्द किसी गंभीर बीमारी के संकेत हैं और उनमें जल्द से जल्द चिकित्सकीय सहायता की जरूरत होती है। यदि आप सिरदर्द के निम्नलिखित लक्षण पायें, तो आप तत्काल आपातकालीन चिकित्सकीय परामर्श लें : तेज और अचानक शुरू हुआ सिरदर्द, जो तेजी से बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के पैदा हुआ हो, सिरदर्द के साथ बेहोशी, उलझन, आपकी दृष्टि में बदलाव या अन्य संबंधित शारीरिक कमजोरी, सिरदर्द के साथ गरदन का अकड़ना और बुखार। यदि आपको सिरदर्द के निम्नलिखित लक्षण का अनुभव हो, तो आपको चिकित्सकीय परामर्श लेना चाहिए: ऐसा सिरदर्द, जो आपको नींद से जगा दे, सिरदर्द के समय या प्रकृति में अस्वाभाविक बदलाव, यदि आप अपने सिरदर्द की प्रकृति के बारे में निश्चित नहीं हैं, तो अपने चिकित्सक से संपर्क कर चिकित्सकीय परामर्श लेना अच्छा है। तनाव व अधकपारी (माइग्रेन) सिरदर्द के प्रकार हैं। अधकपारी और समग्र सिरदर्द नाड़ियों के सिरदर्द के प्रकार हैं। शारीरिक थकान, नाड़ियों के दर्द को बढ़ा देता है। सिर के चारों तरफ की रक्त नलिकाएं और ऊतक मुलायम हो जाते हैं या उनमें सूजन आ जाती है, जिससे आपका सिर, दर्द से ग्रस्त हो जाता है। क्लस्टर सिरदर्द अधकपारी से कम सामान्य है और यह नाड़ियों के सिरदर्द का सबसे सामान्य प्रकार है। क्लस्टर सिरदर्द कम अंतराल पर कई बार पैदा होता है। कभी-कभी यह कई सप्ताह या महीनों तक रहता है। क्लस्टर सिरदर्द पुरुषों में अधिक होता है और काफी तकलीफदेह होता है। पहचान अधिकांश सिरदर्द गंभीर स्थिति के कारण पैदा नहीं होते और उनका इलाज दवा दुकानों में उपलब्ध दवाओं से ही किया जा सकता है। अधकपारी और सिर में अन्य प्रकार के गंभीर दर्द का इलाज नुस्खे के इलाज और चिकित्सक की निगरानी में ही हो सकता है। सिरदर्द संबंधी और जानकारी तनाव से उत्पन्न सिरदर्द सिरदर्द का सबसे सामान्य प्रकार तनाव या मांसपेशियों में सिकुड़न के कारण सिरदर्द है। ऐसे दर्द अक्सर तनाव की लंबी अवधि से संबंधित होते हैं। तनाव के कारण सिरदर्द अक्सर स्थिर और धीमा होता है तथा इसे सिर के अगले हिस्से, माथे या गरदन के पिछले हिस्से में महसूस किया जाता है। तनाव सिरदर्द में लोग अक्सर शिकायत करते हैं कि उनके सिर को किसी रस्सी से कड़ाई से बांध दिया गया है। हालांकि तनाव सिरदर्द लंबी अवधि तक बना रह सकता है, तनावपूर्ण अवधि खत्म होने के साथ ही गायब भी हो जाता है। तनाव सिरदर्द आमतौर पर किसी अन्य शिकायत के साथ संबद्ध नहीं होता और इसमें दर्द के पूर्व लक्षण भी नहीं होते, जैसा कि आमतौर पर अधकपारी में देखा जाता है। सिरदर्द के 90 प्रतिशत मामले में तनाव सिरदर्द ही होता है। जुकाम या नजला (साइनस) से उत्पन्न सिरदर्द जुकाम या नजला सिरदर्द, जुकाम संक्रमण या एलर्जी का परिणाम है। अक्सर सर्दी या फ्लू के कारण साइनस के रास्ते या आपकी नाक के ऊपर और पीछे स्थित हवा के स्थान में सूजन के कारण साइनस सिरदर्द पैदा होता है। जुकाम या नजला जम जाने या संक्रमित होने पर दबाव बढ़ता है, जिससे आपके सिर में दर्द होने लगता है। दर्द आमतौर पर तेज तथा लगातार होता है। यह सुबह में शुरू होता है और आपके नीचे झुकने पर असहनीय हो जाता है। साइनस से उत्पन्न सिरदर्द के सामान्य लक्षण आंखों के चारों तरफ, गाल के ऊपर और सिर के अगले हिस्से में दबाव और दर्द ऊपरी दांत में दर्द का अनुभव बुखार और ठंड लगना चेहरे में सूजन साइनस सिरदर्द में चेहरे का दर्द दूर करने के लिए गर्म और बर्फ, दोनों का सामान्य रूप से उपयोग किया जाता है। अधकपारी (माइग्रेन) से उत्पन्न सिरदर्द अधकपारी से उत्पन्न सिरदर्द हर व्यक्ति में अलग-अलग होता है, लेकिन इसे आमतौर पर सिर के एक या दोनों हिस्सों में तेज दर्द से परिभाषित किया जाता है। इसके साथ कभी-कभी दूसरे लक्षण भी पैदा होते हैं। इसमें जी मिचलाना और उल्टी करना, रोशनी के प्रति संवेदनशीलता और दृष्टि-दोष, सुस्ती, बुखार और ठंड लगना शामिल है। माइग्रेन के सामान्य लक्षण दर्द से पहले दृष्टि दोष सिर के एक तरफ धीमा से लेकर तेज रूक-रूक कर दर्द जी मिचलाना या उल्टी रोशनी और आवाज के प्रति संवेदनशीलता अधकपारी शुरू होने के कई कारण हो सकते हैं, जो व्यक्ति से व्यक्ति में अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ लोग शराब, चॉकलेट, पुरानी खमीर, प्रसंस्कृत मांस और कैफीन जैसे सामान्य खाद्य पदार्थों के प्रति प्रतिक्रिया कर सकते हैं। कैफीन और अल्कोहल के सेवन से भी सिरदर्द हो सकता है। नोट: यदि आपको तेज या खराब सिरदर्द हो, तो अपने लक्षणों, सिरदर्द की गंभीरता और आपने उसका सामना कैसे किया आदि बातों का रिकॉर्ड रखें। चिकित्सक के पास अपने साथ वह रिकॉर्ड भी ले जायें। दमा दमा क्या है दमा एक गंभीर बीमारी है, जो आपकी श्वास नलिकाओं को प्रभावित करती है। श्वास नलिकाएं आपके फेफड़े से हवा को अंदर-बाहर करती हैं। यदि आपको दमा है, तो इन नलिकाओं की भीतरी दीवार में सूजन होता है। यह सूजन नलिकाओं को बेहद संवेदनशील बना देता है और किसी भी बेचैन करनेवाली चीज के स्पर्श से यह तीखी प्रतिक्रिया करता है। जब नलिकाएं प्रतिक्रिया करती हैं, तो उनमें संकुचन होता है और उस स्थिति में आपके फेफड़े में हवा की कम मात्रा जाती है। इससे खांसी, नाक बजना, छाती का कड़ा होना, रात और सुबह में सांस लेने में तकलीफ आदि जैसे लक्षण पैदा होते हैं। दमा को ठीक नहीं किया जा सकता, लेकिन इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है, ताकि दमे से पीड़ित व्यक्ति सामान्य जीवन व्यतीत कर सके। दमे का दौरा पड़ने से श्वास नलिकाएं पूरी तरह बंद हो सकती हैं, जिससे शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को आक्सीजन की आपूर्ति बंद हो सकती है। यह चिकित्सकीय रूप से आपात स्थिति है। दमे के दौरे से मरीज की मौत भी हो सकती है। इसलिए यदि आपको दमा है, तो आप नियमित रूप से चिकित्सक से मिलते रहें। आपके लिए इस पर नियंत्रण पाने के उपाय जानना भी जरूरी है। आपका चिकित्सक आपको दवाएं देगा, ताकि बीमारी नियंत्रण में रह सके। कारण आपके लिए यह जानना जरूरी है कि किन चीजों से आपका दमा उभरता है। इसके अलावा अन्य कारणों की भी जानकारी आपको होनी चाहिए। कुछ लोगों को व्यायाम करने या विषाणु का संक्रमण होने पर ही दमा का दौरा पड़ता है। दमा उभरने के कुछ लक्षण हैं- जानवरों से (जानवरों की त्वचा, बाल, पंख या रोयें से) दीमक (घरों में पाये जाते हैं) तिलचट्टे पेड़ और घास के पराग कण धूलकण सिगरेट का धुआं वायु प्रदूषण ठंडी हवा या मौसमी बदलाव पेंट या रसोई की तीखी गंध सुगंधित उत्पाद मजबूत भावनात्मक मनोभाव (जैसे रोना या लगातार हंसना) और तनाव एस्पिरीन और अन्य दवाएं खाद्य पदार्थों में सल्फाइट (सूखे फल) या पेय (शराब) गैस्ट्रो इसोफीगल रीफ्लक्स विशेष रसायन या धूल जैसे अवयव संक्रमण पारिवारिक इतिहास तंबाकू के धुएं से भरे माहौल में रहनेवाले शिशुओं को दमा होने का खतरा होता है। यदि गर्भावस्था के दौरान कोई महिला तंबाकू के धुएं के बीच रहती है, तो उसके बच्चे को दमा होने का खतरा होता है। मोटापे से भी दमा हो सकता है। अन्य समस्याएं भी हो सकती हैं। लक्षण छींक आना सामान्यतया अचानक शुरू होता है किस्तों मे आता है रात या अहले सुबह बहुत तेज होता है ठंडी जगहों पर या व्यायाम करने से या भीषण गर्मी में तीखा होता है दवाओं के उपयोग से ठीक होता है, क्योंकि इससे नलिकाएं खुलती हैं बलगम के साथ या बगैर खांसी होती है सांस फूलना, जो व्यायाम या किसी गतिविधि के साथ तेज होती है शरीर के अंदर खिंचाव (सांस लेने के साथ रीढ़ के पास त्वचा का खिंचाव) घेंघा रोग अवटुग्रंथि (थायराइड) अवटुग्रंथि (थायराइड) एक छोटी सी ग्रंथि होती है जो तितली के आकार की निचले गर्दन के बीच में होती है। इसका मूल काम होता है कि शरीर के उपापचय (मेटाबोलिज्म) (कोशिकाओं की दर जिससे वह जीवित रहने के लिए आवश्यक कार्य कर सकता हो) को नियंत्रित करे। उपापचय (मेटाबोलिज़्म) को नियंत्रित करने के लिए अवटुग्रंथि (थायराइड) हार्मोन बनाता है जो शरीर के कोशिकाओं को यह बताता है कि कितनी उर्जा का उपयोग किया जाना है। यदि अवटुग्रंथि (थायराइड) सही तरीके से काम करे तो संतोषजनक दर पर शरीर के उपापचय (मेटाबोलिज़म) के कार्य के लिए आवश्यक हार्मोन की सही मात्रा बनी रहेगी। जैसे-जैसे हार्मोन का उपयोग होता रहता है, अवटुग्रंथि (थायराइड) उसकी प्रतिस्थापना करता रहता है। अवटुग्रंथि, रक्त की धारा में हार्मोन की मात्रा को पिट्यूटरी ग्रंथि को संचालित करके नियंत्रित करता है। जब मस्तिष्क के नीचे खोपड़ी के बीच में स्थित पिट्यूटरी ग्रंथि को यह पता चलता है कि अवटुग्रंथि हार्मोन की कमी हुई है या उसकी मात्रा अधिक है तो वह अपने हार्मोन (टीएसएच) को समायोजित करता है और अवटुग्रंथि को बताता है कि क्या करना है। अवटुग्रंथि बीमारी के क्या कारण है? अवटुग्रंथि बीमारी के कई कारण हैं। हाइपोथाइराडिज़्म के कारण निम्नलिखित हैं- थाइरोडिटिस में अवटुग्रंथि सूज जाती है। इससे हार्मोन आवश्यकता से कम बनता है। हशिमोटो का थाइरोडिटिस असंक्राम्य (इम्यून) प्रणाली की बीमारी है जिसमें दर्द नहीं होता। यह वंशानुगत बीमारी है। पोस्टपरटम थाइरोडिटिस प्रसव के बाद 5 से 9 प्रतिशत महिलाओं को होती है। आयोडीन की कमी एक ऐसी समस्या है जो विश्व में लगभग एक करोड़ लोगों को है। अवटुग्रंथि आयोडिन का उपयोग हार्मोन बनाने के लिए करता है। अकार्य अवटुग्रंथि 4000 में एक नवजात शिशु को होता है। यदि इस समस्या का समाधान न किया गया हो तो बच्चा शारीरिक और मानसिक रूप से पिछड़ सकता है। हाइपरथाइराडिज़्म के कारण निम्नलिखित हैं- ग्रेव बीमारी में पूरा अवटुग्रंथि अति सक्रिय हो जाता है और अधिक हार्मोन बनाने लगता है। नोड्यूल्स अवटुग्रंथि में भी अति सक्रिय हो जाता है। थाइरोडिटिस एक ऐसी बीमारी है जिसमें दर्द हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि अवटुग्रंथि(थाइराड) में ही रखे गए हार्मोन निर्मुक्त हो जाए जिससे कुछ सप्ताह या महीनों के लिए हाइपरथारोडिज़्म की बीमारी हो जाए। दर्दरहित थाईरोडिटिस अक्सर प्रसव के बाद महिला में पाया जाता है। अत्यधिक आयोडिन कई औषधियों में पाया जाता है जिससे किसी-किसी में अवटुग्रंथि या तो बहुत अधिक या फिर बहुत कम हार्मोन बनाने लगता है। हाइपोथायरोडिज़्म और हाइपरथायरोडिज़्म के लक्षण क्या-क्या है? हाइपोथायरोडिज़्म के निम्नलिखित लक्षण है: थकावट अक्सर और अधिक मासिक-धर्म स्मरणशक्ति में कमी वजन बढ़ना सूखी और रूखी त्वचा और बाल कर्कश वाणी सर्दी को सह नहीं पाना हाइपरथायरोडिज़्म के निम्नलिखित लक्षण है: चिड़-चिड़ापन/अधैर्यता मांस-पेशियों में कमजोरी/कंपकपीं मासिक-धर्म अक्सर न होना या बहुत कम होना वजन घटना नींद ठीक से न आना अवटुग्रंथि का बढ़ जाना आंख की समस्या या आंख में जलन गर्मी के प्रति संवेदनशीलता यदि अवटुग्रंथि की बीमारी जल्दी पकड़ में आ जाती है तो लक्षण दिखाई देने से पहले उपचार से यह ठीक हो सकता है। अवटुग्रंथि जीवन भर रहता है। ध्यानपूर्वक इसके प्रबंधन से अवटुग्रंथि (थाइराड) से पीड़ित व्यक्ति अपना जीवन स्वस्थ और सामान्य रूप से जी सकते हैं। घुटनों का दर्द कारणः घुटनों का दर्द निम्नलिखित कारणों से हो सकता हैः आर्थराइटिस- लूपस जैसा- रीयूमेटाइड, आस्टियोआर्थराइटिस और गाउट सहित अथवा संबंधित ऊतक विकार बरसाइटिस- घुटने पर बार-बार दबाव से सूजन (जैसे लंबे समय के लिए घुटने के बल बैठना, घुटने का अधिक उपयोग करना अथवा घुटने में चोट) टेन्टीनाइटिस- आपके घुटने में सामने की ओर दर्द जो सीढ़ियों अथवा चढ़ाव पर चढ़ते और उतरते समय बढ़ जाता है। यह धावकों, स्कॉयर और साइकिल चलाने वालों को होता है। बेकर्स सिस्ट- घुटने के पीछे पानी से भरा सूजन जिसके साथ आर्थराइटिस जैसे अन्य कारणों से सूजन भी हो सकती है। यदि सिस्ट फट जाती है तो आपके घुटने के पीछे का दर्द नीचे आपकी पिंडली तक जा सकता है। घिसा हुआ कार्टिलेज (उपास्थि)(मेनिस्कस टियर)- घुटने के जोड़ के अंदर की ओर अथवा बाहर की ओर दर्द पैदा कर सकता है। घिसा हुआ लिगमेंट (ए सी एल टियर)- घुटने में दर्द और अस्थायित्व उत्पन्न कर सकता है। झटका लगना अथवा मोच- अचानक अथवा अप्राकृतिक ढंग से मुड़ जाने के कारण लिगमेंट में मामूली चोट जानुफलक (नीकैप) का विस्थापन जोड़ में संक्रमण घुटने की चोट- आपके घुटने में रक्त स्राव हो सकता है जिससे दर्द अधिक होता है श्रोणि विकार- दर्द उत्पन्न कर सकता है जो घुटने में महसूस होता है। उदाहरण के लिए इलियोटिबियल बैंड सिंड्रोम एक ऐसी चोट है जो आपके श्रोणि से आपके घुटने के बाहर तक जाती है। घर में देखभाल घुटने के दर्द के कई कारण है, विशेषकर जो अति उपयोग अथवा शारीरिक क्रिया से संबंधित है। यदि आप स्वयं इसकी देखभाल करें तो इसके अच्छे परिणाम निकलते हैं। आराम करें और ऐसे कार्यों से बचे जो दर्द बढ़ा देते हैं, विशेष रूप से वजन उठाने वाले कार्य बर्फ लगाएं। पहले इसे प्रत्येक घंटे 15 मिनट लगाएं। पहले दिन के बाद प्रतिदिन कम से कम 4 बार लगाएं। किसी भी प्रकार की सूजन को कम करने के लिए अपने घुटने को यथा संभव ऊपर उठा कर रखें। कोई ऐसा बैंडेज अथवा एलास्टिक स्लीव पहनकर घुटने को धीरे धीरे दबाएं। ये दोनों वस्तुएं लगभग सभी दवाइयों की दुकानों पर मिलती है। यह सूजन को कम कर सकता है और सहारा भी देता है। अपने घुटनों के नीचे अथवा बीच में एक तकिया रखकर सोएं। रक्त चाप रक्त नलिका की भित्ती पर परिचरण रक्त के दबाव को रक्त चाप कहते हैं। धमनियां वह नलिका है जो पंप करने वाले हृदय से रक्त को शरीर के सभी ऊतकों (टिशू) और इंद्रियों तक ले जाते हैं। हृदय, रक्त को धमनियों में पंप करके धमनियों में रक्त प्रवाह को विनियमित करता है और इसपर लगने वाले दबाव को ही रक्तचाप कहते हैं। परंपरा के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्तचाप, सिस्टोलिक/डायास्टोलिक रक्तचाप के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। जैसे कि 120/80। सिस्टोलिक अर्थात ऊपर का नंबर धमनियों में दाब को दर्शाता है। इसमें हृदय की मांसपेशियां संकुचित होकर धमनियों में रक्त को पंप करती हैं। डायालोस्टिक रक्त चाप अर्थात नीचे वाला नंबर धमनियों में उस दाब को दर्शाता है जब संकुचन के बाद हृदय की मांस पेशियां शिथिल हो जाती है। रक्तचाप हमेशा उस समय अधिक होता है जब हृदय पंप कर रहा होता है बनिस्बत जब वह शिथिल होता है। निम्न रक्तचाप क्या है? निम्न रक्तचाप (हाइपरटेंशन) वह दाब है जिससे धमनियों और नसों में रक्त का प्रवाह कम होने के लक्षण या संकेत दिखाई देते हैं। जब रक्त का प्रवाह कफी कम होता हो तो मस्तिष्क, हृदय तथा गुर्दे जैसे महत्वपूर्ण इंद्रियों में ऑक्सीजन और पौष्टिक पदार्थ नहीं पहुंच पाते जिससे ये इंद्रियां सामान्य रूप से काम नहीं कर पाती और इससे यह स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो सकती है। उच्च रक्तचाप के विपरीत, निम्न रक्तचाप की पहचान मूलतः लक्षण और संकेत से होती है, न कि विशिष्ट दाब नंबर के। किसी-किसी का रक्तचाप 90/50 होता है लेकिन उसमें निम्न रक्त चाप के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते हैं और इसलिए उन्हें निम्न रक्तचाप नहीं होता तथापि ऐसे व्यक्तियों में जिनका रक्तचाप उच्च है और उनका रक्तचाप यदि 100/60 तक गिर जाता है तो उनमें निम्न रक्तचाप के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। यदि किसी को निम्न रक्तचाप के कारण चक्कर आता हो या मितली आती हो या खड़े होने पर बेहोश होकर गिर पड़ता हो तो उसे आर्थोस्टेटिक उच्च रक्तचाप कहते हैं। खड़े होने पर निम्न दाब के कारण होने वाले प्रभाव को सामान्य व्यक्ति शीघ्र ही काबू में कर लेता है। लेकिन जब पर्याप्त रक्तचाप के कारण चक्रीय धमनी (कोरोनरी आर्टेरी)( वह धमनी जो हृदय के मांस पेशियों को रक्त की आपूर्ति करती है) में रक्त की आपूर्ति नहीं होती है तो व्यक्ति को सीने में दर्द हो सकता है या दिल का दौरा पड़ सकता है। जब गुर्दों में अपर्याप्त मात्रा में खून की आपूर्ति होती है तो गुर्दे शरीर से यूरिया और क्रिएटाइन जैसे अपशिष्टों (वेस्ट) को निकाल नहीं पाते जिससे रक्त में इनकी मात्रा अधिक हो जाती है। आघात (शॉक) एक ऐसी स्थिति है जिससे जीवन को खतरा हो सकता है। निम्न रक्तचाप की स्थिति में गुर्दे, हृदय, फेफड़े तथा मस्तिष्क तेजी से खराब होने लगते हैं। उच्च रक्तचाप क्या है? 130/80 से ऊपर का रक्तचाप, उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन कहलाता है। इसका अर्थ है कि धमनियों में उच्च चाप (तनाव) है। उच्च रक्तचाप का अर्थ यह नहीं है कि अत्यधिक भावनात्मक तनाव हो। भावनात्मक तनाव व दबाव अस्थायी तौर पर रक्त के दाब को बढ़ा देते हैं। सामान्यतः रक्तचाप 120/80 से कम होनी चाहिए और 120/80 तथा 139/89 के बीच का रक्त का दबाव पूर्व उच्च रक्तचाप (प्री हाइपरटेंशन) कहलाता है और 140/90 या उससे अधिक का रक्तचाप उच्च समझा जाता है। उच्च रक्तचाप से हृदय रोग, गुर्दे की बीमारी, धमनियों का सख्त हो जाने, आंखे खराब होने और मस्तिष्क खराब होने का जोखिम बढ़ जाता है। उच्च रक्त चाप का निदान महत्वपूर्ण है जिससे रक्त चाप को सामान्य करके जटिलताओं को रोकने का प्रयास संभव हो। एक स्वस्थ वयस्क व्यक्ति का सिस्टोलिक रक्तचाप पारा के 90 और 120 मिलिमीटर के बीच होता है। सामान्य डायालोस्टिक रक्तचाप पारा के 60 से 80 मि.मि. के बीच होता है। वर्तमान दिशा-निर्देशों के अनुसार सामान्य रक्तचाप 120/80 होना चाहिए। मोटापा मोटापा के कारण मोटापा और शरीर का वजन बढ़ना ऊर्जा के सेवन और ऊर्जा के उपयोग के बीच असंतुलन के कारण होता है। अधिक चर्बीयुक्त आहार का सेवन करना भी मोटापा का कारण है। कम व्यायाम करना और स्थिर जीवन-यापन मोटापे का प्रमुख कारण है। असंतुलित व्यवहार औऱ मानसिक तनाव की वजह से लोग ज्यादा भोजन करने लगते हैं, जो मोटापा का कारण बनता है। शारीरिक क्रियाओं के सही ढंग से नहीं होने पर भी शरीर में चर्बी जमा होने लगती है। बाल्यावस्था और युवावस्था के समय का मोटापा व्यस्क होने पर भी रह सकता है। शरीर का उचित वजन एक युवा व्यक्ति के शरीर का अपेक्षित वजन उसकी लंबाई के अनुसार होना चाहिए, जिससे कि उसका शारीरिक गठन अनुकूल लगे। शरीर के वजन को मापने के लिए सबसे साधारण उपाय है बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआइ) और यह शरीर के व्यक्ति की लंबाई को दुगुना कर उसमें वजन किलोग्राम से भाग देकर निकाला जाता है। बीएमआई < 18.5 : अस्वस्थ 18.5-23 : साधारण 23.1-30 : ज्यादा वजन > 30 : मोटापा वजन कम करने के लिए लिये उपभोग की जानेवाली खाद्य पदार्थों में यह ध्यान रखना चाहिए कि उनमें प्रोटीन की मात्रा अधिक हो और चर्बी तथा कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम। मोटापा कैसे घटायें तला खाना कम खायें ज्यादा से ज्यादा फल और सब्जी खायें। रेशायुक्त खाद्य पदार्थ का सेवन अधिक से अधिक करें जैसे अनाज, चना और अंकुरित चना। शरीर के वजन को संतुलित रखने के लिए रोजाना कसरत करें। धीरे, परंतु लगातार वजन को कम करें। ज्यादा उपवास से शारीरिक नुकसान हो सकता है। शारीरिक क्षमता को संतुलित रखने के लिए विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए। थोड़-थोड़े अंतराल पर थोड़ा-थोड़ा खाना खायें। भोजन में चीनी, चर्बीयुक्त खाद्य पदार्थ और अल्कोहल कम लें। कम चर्बी वाले दूध का सेवन करें। जुकाम जुकाम कैसे फैलता है? जुकाम छुआ-छूत की बीमारी है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति को जुकाम है और यदि वह छींकता है या अपने नाक को पकड़ने के बाद दूसरे को छूता है तो उस व्यक्ति को भी जुकाम हो जाता है जिसके सामने छींका गया है या जिसे पकड़ा है। इसके अतिरिक्त जुकाम के वायरस पेन, पुस्तक और कॉफी के कप में कई घंटे तक रहते हैं और इस प्रकार के वस्तुओं से भी यह फैल सकता है। खांसी और छींक वास्तव में इसके फैलने के प्रमुख कारण है। क्या सर्दी में बाहर निकलने पर जुकाम लग सकता है? सर्दी में बाहर निकलने पर जुकाम लगने की आशंका बहुत कम है। जुकाम सामान्यतः उस व्यक्ति के संपर्क में आने पर लगता है जिसे जुकाम हो। तापमान से इसका इतना असर नहीं पड़ता। मधुमेह मधुमेह होने पर शरीर में भोजन को ऊर्जा में परिवर्तित करने की सामान्य प्रक्रिया तथा होने वाले अन्य परिवर्तनों का विवरण नीचे दिया जा रहा है- भोजन का ग्लूकोज में परिवर्तित होनाः हम जो भोजन करते हैं वह पेट में जाकर एक प्रकार के ईंधन में बदलता है जिसे ग्लूकोज कहते हैं। यह एक प्रकार की शर्करा होती है। ग्लूकोज रक्त धारा में मिलता है और शरीर की लाखों कोशिकाओं में पहुंचता है। ग्लूकोज कोशिकाओं में मिलता हैः अग्नाशय(पेनक्रियाज) वह अंग है जो रसायन उत्पन्न करता है और इस रसायन को इनसुलिन कहते हैं। इनसुलिन भी रक्तधारा में मिलता है और कोशिकाओं तक जाता है। ग्लूकोज से मिलकर ही यह कोशिकाओं तक जा सकता है। कोशिकाएं ग्लूकोज को ऊर्जा में बदलती हैः शरीर को ऊर्जा देने के लिए कोशिकाएं ग्लूकोज को उपापचित (जलाती) करती है। मधुमेह होने पर होने वाले परिवर्तन इस प्रकार हैं: मधुमेह होने पर शरीर को भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने में कठिनाई होती है। भोजन ग्लूकोज में बदलता हैः पेट फिर भी भोजन को ग्लूकोज में बदलता रहता है। ग्लूकोज रक्त धारा में जाता है। किन्तु अधिकांश ग्लूकोज कोशिकाओं में नही जा पाते जिसके कारण इस प्रकार हैं: इनसुलिन की मात्रा कम हो सकती है। इनसुलिन की मात्रा अपर्याप्त हो सकती है किन्तु इससे रिसेप्टरों को खोला नहीं जा सकता है। पूरे ग्लूकोज को ग्रहण कर सकने के लिए रिसेप्टरों की संख्या कम हो सकती है। कोशिकाएं ऊर्जा पैदा नहीं कर सकती हैः अधिकांश ग्लूकोज रक्तधारा में ही बना रहता है। यही हायपर ग्लाईसीमिआ (उच्च रक्त ग्लूकोज या उच्च रक्त शर्करा) कहलाती है। कोशिकाओं में पर्याप्त ग्लूकोज न होने के कारण कोशिकाएं उतनी ऊर्जा नहीं बना पाती जिससे शरीर सुचारू रूप से चल सके। मधुमेह के लक्षणः मधुमेह के मरीजों को तरह-तरह के अनुभव होते हैं। कुछेक इस प्रकार हैं: बार-बार पेशाब आते रहना (रात के समय भी) त्वचा में खुजली धुंधला दिखना थकान और कमजोरी महसूस करना पैरों में सुन्न या टनटनाहट होना प्यास अधिक लगना कटान/घाव भरने में समय लगना हमेशा भूख महसूस करना वजन कम होना त्वचा में संक्रमण होना हमें रक्त शर्करा पर नियंत्रण क्यों रखना चाहिए ? उच्च रक्त ग्लूकोज अधिक समय के बाद विषैला हो जाता है। अधिक समय के बाद उच्च ग्लूकोज, रक्त नलिकाओं, गुर्दे, आंखों और स्नायुओं को खराब कर देता है जिससे जटिलताएं पैदा होती है और शरीर के प्रमुख अंगों में स्थायी खराबी आ जाती है। स्नायु की समस्याओं से पैरों अथवा शरीर के अन्य भागों की संवेदना चली जा सकती है। रक्त नलिकाओं की बीमारी से दिल का दौरा पड़ सकता है, पक्षाघात और संचरण की समस्याएं पैदा हो सकती है। आंखों की समस्याओं में आंखों की रक्त नलिकाओं की खराबी (रेटीनोपैथी), आंखों पर दबाव (ग्लूकोमा) और आंखों के लेंस पर बदली छाना (मोतियाबिंद) गुर्दे की बीमारी (नैफ्रोपैथी) का कारण, गुर्दा रक्त में से अपशिष्ट पदार्थ की सफाई करना बंद कर देती है। उच्च रक्तचाप (हाइपरटेंशन) से हृदय को रक्त पंप करने में कठिनाई होती है। उच्च रक्तचाप के विषय में और अधिक जानकारीः हृदय धड़कने से रक्त नलिकाओं में रक्त पंप होता है और उनमें दबाव पैदा होता है। किसी व्यक्ति के स्वस्थ होने पर रक्त नलिकाएं मांसल और लचीली होती है। जब हृदय उनमें से रक्त संचार करता है तो वे फैलती है। सामान्य स्थितियों में हृदय प्रति मिनट 60 से 80 की गति से धड़कता है। हृदय की प्रत्येक धड़कन के साथ रक्त चाप बढ़ता है तथा धड़कनों के बीच हृदय शिथिल होने पर यह घटता है। प्रत्येक मिनट पर आसन, व्यायाम या सोने की स्थिति में रक्त चाप घट-बढ़ सकता है किंतु एक अधेड़ व्यक्ति के लिए यह 130/80 एम एम एचजी से सामान्यतः कम ही होना चाहिए। इस रक्त चाप से कुछ भी ऊपर उच्च माना जाएगा। उच्च रक्त चाप के सामान्यतः कोई लक्षण नहीं होते हैं; वास्तव में बहुत से लोगों को सालों साल रक्त चाप बना रहता है किंतु उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं हो पाती है। इससे तनाव, हतोत्साह अथवा अति संवेदनशीलता से कोई संबंध नहीं होता है। आप शांत, विश्रान्त व्यक्ति हो सकते हैं तथा फिर भी आपको रक्तचाप हो सकता है। उच्च रक्तचाप पर नियंत्रण न करने से पक्षाघात, दिल का दौरा, संकुलन हृदय गति रुकना या गुर्दे खराब हो सकते हैं। ये सभी प्राण घातक हैं। यही कारण है कि उच्च रक्तचाप को "निष्क्रिय प्राणघातक" कहा जाता है। कोलेस्ट्रोल के विषय में और अधिक जानकारीः शरीर में उच्च कोलेस्ट्रोल का स्तर होने से दिल का दौरा पड़ने का का खतरा चार गुना बढ़ जाता है। रक्तधारा में अधिक कोलेस्ट्रोल होने से धमनियों की परतो पर प्लेक (मोटी सख्त जमा) जमा हो जाती है। कोलेस्ट्रोल या प्लेक पैदा होने से धमनियां मोटी, कड़ी और कम लचीली हो जाती है जिसमें कि हृदय के लिए रक्त संचारण धीमा और कभी-कभी रूक जाता है। जब रक्त संचार रुकता है तो छाती में दर्द अथवा कंठशूल हो सकता है। जब हृदय के लिए रक्त संचार अत्यंत कम अथवा बिल्कुल बंद हो जाता है तो इसका परिणाम दिल का दौड़ा पड़ने में होता है। उच्च रक्त चाप और उच्च कोलेस्ट्रोल के अतिरिक्त यदि मधुमेह भी हो तो पक्षाघात और दिल के दौरे का खतरा 16 गुना बढ़ जाता है। मधुमेह का प्रबंधन मधुमेह होने के कारण पैदा होने वाली जटिलताओं की रोकथाम के लिए नियमित आहार, व्यायाम, व्यक्तिगत स्वास्थ्य, सफाई और संभावित इनसुलिन इंजेक्शन अथवा खाने वाली दवाइयों (डॉक्टर के सुझाव के अनुसार) का सेवन आदि कुछ तरीके हैं। व्यायामः व्यायाम से रक्त शर्करा स्तर कम होता है तथा ग्लूकोज का उपयोग करने के लिए शारीरिक क्षमता पैदा होती है। प्रतिघंटा 6 कि.मी की गति से चलने पर 30 मिनट में 135 कैलोरी समाप्त होती है जबकि साइकिल चलाने से लगभग 200 कैलोरी समाप्त होती है। मधुमेह में त्वचा की देख-भालः मधुमेह के मरीजों को त्वचा की देखभाल करना अत्यावश्यक है। भारी मात्रा में ग्लूकोज से उनमें कीटाणु और फफूंदी लगने की संभावना बढ़ जाती है। चूंकि रक्त संचार बहुत कम होता है अतः शरीर में हानिकारक कीटाणुओं से बचने की क्षमता न के बराबर होती है। शरीर की सुरक्षात्मक कोशिकाएं हानिकारक कीटाणुओं को खत्म करने में असमर्थ होती है। उच्च ग्लूकोज की मात्रा से निर्जलीकरण(डी-हाइड्रेशन) होता है जिससे त्वचा सूखी हो जाती है तथा खुजली होने लगती है। शरीर की नियमित जांच करें तथा निम्नलिखित में से कोई भी बाते पाये जाने पर डॉक्टर से संपर्क करें त्वचा का रंग, कांति या मोटाई में परिवर्तन कोई चोट या फफोले कीटाणु संक्रमण के प्रारंभिक चिह्न जैसे कि लालीपन, सूजन, फोड़ा या छूने से त्वचा गरम हो उरुमूल, योनि या गुदा मार्ग, बगलों या स्तनों के नीचे तथा अंगुलियों के बीच खुजलाहट हो, जिससे फफूंदी संक्रमण की संभावना का संकेत मिलता है न भरने वाला घाव त्वचा की सही देखभाल के लिए नुस्खेः हल्के साबुन या हल्के गरम पानी से नियमित स्नान अधिक गर्म पानी से न नहाएं नहाने के बाद शरीर को भली प्रकार पोछें तथा त्वचा की सिलवटों वाले स्थान पर विशेष ध्यान दें। वहां पर अधिक नमी जमा होने की संभावना होती है। जैसा कि बगलों, उरुमूल तथा उंगलियों के बीच। इन जगहों पर अधिक नमी से फफूंदी संक्रमण की अधिकाधिक संभावना होती है। त्वचा सूखी न होने दें। जब आप सूखी, खुजलीदार त्वचा को रगड़ते हैं तो आप कीटाणुओं के लिए द्वार खोल देते हैं। पर्याप्त तरल पदार्थों को लें जिससे कि त्वचा पानीदार बनी रहे। घावों की देखभालः समय-समय पर कटने या कतरने को टाला नहीं जा सकता है। मधुमेह की बीमारी वाले व्यक्तियों को मामूली घावों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि संक्रमण से बचा जा सके। मामूली कटने और छिलने का भी सीधे उपचार करना चाहिएः यथाशीघ्र साबुन और गरम पानी से धो डालना चाहिए आयोडिन युक्त अलकोहाल या प्रतिरोधी द्रवों को न लगाएं क्योंकि उनसे त्वचा में जलन पैदा होती है केवल डॉक्टरी सलाह के आधार पर ही प्रतिरोधी क्रीमों का प्रयोग करें विसंक्रमित कपड़ा पट्टी या गाज से बांध कर जगह को सुरक्षित करें। जैसे कि बैंड एड्स निम्नलिखित मामलों में डॉक्टर से संपर्क करें: यदि बहुत अधिक कट या जल गया हो त्वचा पर कहीं पर भी ऐसा लालीपन, सुजन, मवाद या दर्द हो जिससे कीटाणु संक्रमण की आशंका हो रिंगवर्म, जननेंद्रिय में खुजली या फफूंदी संक्रमण के कोई अन्य लक्षण मधुमेह होने पर पैरों की देखभालः मधुमेह की बीमारी में आपके रक्त में ग्लूकोज के उच्च स्तर के कारण स्नायु खराब होने से संवेदनशीलता जाती रहती है। पैरों की देखभाल के कुछ साधारण उपाय इस प्रकार है: पैरों की नियमित जांच करें: पर्याप्त रोशनी में प्रतिदिन पैरों की नजदीकी जांच करें। देखें कि कहीं कटान और कतरन, त्वचा में कटाव, कड़ापन, फफोले, लाल धब्बे और सूजन तो नहीं है। उंगलियों के नीचे और उनके बीच देखना न भूलें। पैरों की नियमित सफाई करें:पैरों को हल्के साबुन से और गरम पानी से प्रतिदिन साफ करें। पैरों की उंगलियों के नाखूनों को नियमित काटते रहें पैरों की सुरक्षा के लिए जूते पहने मधुमेह संबंधी आहार यह आहार भी एक स्वरस्थक व्यहक्ति के सामान्य आहार की तरह ही है, ताकि रोगी की पोषण संबंधी पोषण आवश्यकता को पूरी की जा सके एवं उसका उचित उपचार किया जा सके। इस आहार में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कुछ कम है लेकिन भोजन संबंधी अन्य सिद्धांतो के अनुसार उचित मात्रा में है। मधुमेह संबंधी समस्त आहार के लिए निम्नलिखित खाद्य पदार्थो से बचा जाना चाहिए: जड़ एवं कंद मिठाइयाँ, पुडिंग और चॉकलेट तला हुआ भोजन सूखे मेवे चीनी केला, चीकू, सीताफल आदि जैसे फल आहार नमूना खाद्य सामग्री शाकाहारीभोजन (ग्राम में) मांसाहारी भोजन(ग्राम में) अनाज २०० २५० दालें ६० २० हरी पत्तेदार सब्जियाँ २०० २०० फल २०० २०० दूध (डेयरी का) ४०० २०० तेल २० २० मछली/ चिकन-बगैर त्वचा का - १०० अन्य सब्जियाँ २०० २०० ये आहार आपको निम्न चीजें उपलब्ध कराता है- कैलोरी १६०० प्रोटीन ६५ ग्राम वसा ४० ग्राम कार्बोहाइड्रेट २४५ ग्राम वितरण शाकाहारी मांसाहारी बेड टी, कॉफी या चाय १ कप १ कप नाश्ता मक्खन के साथ टोस्ट कॉफी या चाय १ कप १ कप १ कप १ कप दोपहर का भोजन चावल साम्भर हरी पत्तेदार सब्जी दही टमाटर या खट्टे फल का अचार २ कटोरी १ कटोरी १ कटोरी १/२ कटोरी १ १ टुकड़ा २ कटोरी १ कटोरी १ कटोरी १/२ कटोरी १ १ टुकड़ा चाय या कॉफी उपमा १ कप ३/४ कटोरी १ कप १ कटोरी रात का भोजन फुलका ३ ४ दाल १ कटोरी - दही १/२ कटोरी - मछली/चिकन - २ टुकड़े शोरबे के साथ अन्य सब्जियाँ १ कटोरी १ कटोरी भुना हुआ पापड़ १ १ टमाटर या ककड़ी १ १ सोने से पहले दूध १ कप १ कप बाल झरना बाल झड़ना क्या है ? बालों का झड़ना हल्के से लेकर गंजा होने तक का हो सकता है। बाल गिरने के कई अलग-अलग कारण है। चिकित्सा विज्ञान के आधार पर बालों का झड़ना कई प्रकार के हो सकते हैं, जिनमें ये भी सम्मिलित हैं: लंबी बीमारी, बड़ी शल्य क्रिया अथवा गंभीर संक्रमण जैसे बड़े शारीरिक तनाव से दो या तीन महीने के बाद बालों का झड़ना एक सामान्य प्रक्रिया है। हार्मोन स्तर में आकस्मिक बदलाव के बाद भी यह हो सकता है, विशेषकर स्त्रियों में शिशु को जन्म देने के बाद यह हो सकता है। साधारण तरीके से बाल झड़ते रहते हैं किन्तु गंजापन दिखाई नहीं देता है। औषध के गौण प्रभावः बालों का झड़ना कुछेक औषधियों के खाने के कारण हो सकता है और यह अचानक पूरे सिर पर प्रभावी हो सकता है। चिकित्सकीय बीमारी के लक्षणः बालों का झड़ना चिकित्सा बीमारी का लक्षण हो सकता है जैसे कि अवटुग्रंथि(थाइरॉयड) विकृति, सेक्स हार्मोन में असंतुलन या गंभीर पोषाहार समस्या विशेषकर प्रोटीन, लौह, जस्ता या बायोटीन की कमी। यह कमी खान-पान में परहेज करने वालों और जिन महिलाओं को मासिक धर्म में बहुत ज्यादा रक्त स्राव होता है उनमें यह आम है। सिर की त्वचा (खोपड़ी)- इसमें फफूंद-खोपड़ी में जब विशेष प्रकार की फफूंद से संक्रमण हो जाता है तो बीच बीच में बाल झड़ने लगते हैं। बच्चों में आमतौर पर बीच-बीच के बाल झड़ने का संक्रमण पाया जाता है। वंशानुगत गंजापन- पुरुषों में जिस प्रकार बाल झड़ते रहते हैं अर्थात मांग से बालों का झड़ना और/या सिर के ऊपर से बालों का झड़ना, उसी प्रकार इसमें भी पुरुषों के बाल झड़ते हैं। इस प्रकार बालों का झड़ना आम है और यह किसी भी समय यहां तक कि किशोरावस्था में भी आरंभ हो सकता है। इसके मुख्यतः तीन कारण हैं-वंशानुगत गंजापन, पुरुष हार्मोन और बढ़ती हुई आयु। महिलाओं में, सिर के आगे के भाग को छोड़कर पूरे हिस्से के बाल झड़ने लगते हैं। लक्षणः सामान्यतः हमारे लगभग 50 से 100 बाल हर दिन झड़ते हैं। यदि इससे ज्यादा बाल झड़ते हैं, तो यह चिंता का विषय है। यह भी देखा जा सकता है कि बाल पतले होने लगते है और एक या अधिक जगह पर गंजापन आ जाता है। रोकथामः तनाव कम कर, उचित आहार लेकर, बाल संवारने की उचित तकनीक अपनाकर और यदि संभव हो तो बालों को झड़ने से रोकनेवाली दवाइयों का उपयोग कर बालों के झड़ने की समस्या को रोका जा सकता है। फफूंद संक्रमण की वजह से बालों को झड़ने की समस्या को बालों की सफाई पर ध्यान देकर, दूसरों के ब्रश, कंघी, टोपी आदि का उपयोग न कर बचा जा सकता है। दवाइयों की सहायता से वंशानुगत गंजेपन के कुछ मामलों को रोका जा सकता है। परजीवी (पैरासीटिक) कृमि संक्रमण इसे नेमाटोड संक्रमण भी कहते हैं। विवरण परजीवी (पैरासाइट्स) वह कीटाणु है जो व्यक्ति में प्रवेश करके बाहर या भीतर (ऊतकों या इंद्रियों से) जुड़ जाती है और सारे पोषक तत्व को चूस लेती है। कुछ परजीवी अर्थात कृमि अंततः कमजोर पड़कर व्यक्ति में बीमारी फैलाते हैं। कृमि (गोल कृमि) लंबे, आवरणहीन और बिना हड्डी वाले होते हैं। इनके बच्चे अंडे या कृमि कोष से डिंभक (लारवल) (सेता हुआ नया कृमि) के रूप में बढ़ते हुए त्वचा, मांसपेशियां, फेफड़ा या आंत(आंत या पाचन मार्ग) के उस ऊतक (टिशू) में कृमि के रूप बढ़ते जाते हैं जिसे वे संक्रमित करते हैं। लक्षणः कृमि के लक्षण उसके रहने के स्थान पर निर्भर करते हैं। कोई लक्षण नहीं होता है या नगण्य होता है। लक्षण एकाएक दिखने लगते हैं या कभी-कभी लक्षण दिखाई देने में 20 वर्षों से ज्यादा का समय लग जाता है। एक बार में पूरी तरह निकल जाते हैं या मल में थोड़ा-थोड़ा करके निकलते हैं। पाचन मार्ग (पेट, आंत, जठर, वृहदांत्र और मलाशय) आंत की कृमियों से मिलकर पेट दर्द, कमजोरी, डायरिया, भूख न लगना, वजन कम होना, उल्टी, अरक्तता, कुपोषण जैसे विटामिन (बी 12), खनिज(लौह), वसा और प्रोटीन की कमी को जन्म देती है. मलद्वार और योनि के आसपास खुजली, नींद न आना, बिस्तर में पेशाब और पेट दर्द पिनकृमि के संक्रमण के लक्षण हैं। त्वचा-उभार, पीव लिए हुए फफोले, चेहरे पर बहुत ज्यादा सूजन, विशेषकर आंखों के आसपास एलर्जी संबंधी प्रतिक्रिया-त्वचा लाल हो जाना, त्वचा में खुजली और मलद्वार के चारों ओर खुजली जठर फ्लूकः बढ़ी हुई नाजुक जठर, ज्वर, पेट दर्द, डायरिया, त्वचा पीला पड़ना लसिका युक्त-सूजे हुए हाथी के पाव जैसे या अंडग्रंथि। कारणः ऊतक नेमाटोड्स या गोल कृमि आंतीय कृमि अस्करियासिस (गोल कृमि)- असकरियासिस कृमि के मल में इसके अंडे पाए जाते हैं जो प्रदूषित मृदा/सब्जियों के माध्यम से मनुष्य के भीतर अनजाने में ही चला जाता है। ये कृमि मनुष्य के अंतड़ियों में बढ़ते जाते हैं और रक्त के माध्यम से फेफड़ों आदि जैसे शरीर के अन्य भागों में चले जाते हैं। ये 40 से.मी. तक बढ़ सकते हैं। टेप कृमिः यह कृमि कई भागों में विभक्त होती है। ये पाचन मार्ग में पहुंचकर व्यक्ति के पोषक तत्व को चूसती है फिलारियासिसः विभिन्न समूहों की कृमि जो त्वचा और लसिका ऊतकों में पहुंच जाती है। जोखिम कारक मलीय संदूषित जल अस्वास्थ्यकर स्थितियां मांस या मछली को कच्चा या बिना पकाये खाना पशुओं को अस्वास्थ्यकर वातावरण में पालना कीड़ों व चूहों से संदूषण रोगी और कमजोर व्यक्ति अधिक मच्छरों व मक्खियों का होना खेल के मैदान जहां बच्चे मिट्टी के संपर्क में आते हों और वहां कुछ खाते हों। सामान्य उपचार - तरल पदार्थ आराम परिवार के सभी सदस्यों का परीक्षण और उपचार उपचार पूरा होने तक अंडर वियर, कपड़े, चादर आदि को गर्म पानी से धोना हाथ धोते रहना, बिना पकाया व कच्चा आहार न लेना, फल व सब्जियों को अच्छी तरह धोना और पानी को उबाल कर पीना। निर्जलीकरण (डी-हाइड्रेशन) निर्जलीकरण (डी-हाइड्रेशन ) क्या है? 'शरीर से अत्यधिक मात्रा में तरल पदार्थ समाप्त हो जाना' निर्जलीकरण(डी-हाइड्रेशन) कहलाता है। हमारे शरीर को कार्य करने के लिए निर्धारित मात्रा में कम से कम 8 गिलास के बराबर (एक लीटर या सवा लीटर) तरल पदार्थ शरीर के लिए आवश्यक होता है जो व्यक्ति के कार्य करने की क्षमता और आयु पर निर्भर करता है। परंतु अधिक कार्यशील व्यक्ति को इससे दो या तीन गुना अधिक तरल पदार्थ की आवश्यकता होती है। हम जो तरल पदार्थ लेते हैं, वह उस तरल पदार्थ का स्थान ले लेती है जो हमारे शारीरिक कार्य को करने के लिए आवश्यक होता है। यदि हम, हमारे शरीर की आवश्यकता से कम तरल पदार्थ लेते हैं, तब निर्जलीकरण(डी-हाइड्रेशन) हो जाता है। निर्जलीकरण (डी-हाइड्रेशन ) क्यों होता है? अंतड़ियों में यदि दहन हो रहा हो या उसे नुकसान पहुंच रहा हो अथवा कीटाणु या वायरस के जमा होने की वजह से अंतड़ियां अवशोषण करने की क्षमता से अधिक तरल पदार्थ उत्पन्न कर रहा हो तब आंत के मार्ग में अधिक तरल पदार्थ निकल जाता है जिससे निर्जलीकरण (डी-हाइड्रेशन) होता है। पेय के रूप में तरल पदार्थ कम मात्र में लेने का कारण भूख न लगना या मिचली होना हो सकता है। निर्जलीकरण (डी-हाइड्रेशन ) के क्या लक्षण हैं? निर्जलीकरण (डी-हाइड्रेशन) का विश्वसनीय लक्षण कुछ ही दिनों में वजन का तेजी से कम होना है (कुछ मामलों में कुछ घंटो में)। 10 प्रतिशत से अधिक वजन तेजी से कम होना गंभीर लक्षण माना जाता है। इन लक्षणों को वास्तविक बीमारी से अलग करके देखना काफी मुश्किल काम है। सामान्यतः निर्जलीकरण(डी-हाइड्रेशन) के निम्नलिखित लक्षण हो सकते हैं। अधिक प्यास लगना, मुंह सूखना, कमजोरी व चक्कर आना (विशेषकर जब व्यक्ति खड़ा होता है) मूत्र का गाढ़ा होना या कम पेशाब आना। अत्यधिक निर्जलीकरण (डी-हाइड्रेशन) शरीर का रसायन ही बदल देता है। इसमें गुर्दे खराब हो जाते हैं और ये जीवन के लिए घातक हो सकते हैं। कब्ज कब्ज अमाशय की स्वाभाविक परिवर्तन की वह अवस्था है, जिसमें मल निष्कासन की मात्रा कम हो जाती है, मल कड़ा हो जाता है, उसकी आवृति घट जाती है या मल निष्कासन के समय अत्यधिक बल का प्रयोग करना पड़ता है। सामान्य आवृति और अमाशय की गति व्यक्ति विशेष पर निर्भर करती है। (एक सप्ताह में 3 से 12 बार मल निष्कासन की प्रक्रिया सामान्य मानी जाती है। लक्षण पेट में दर्द होना या सूजन हो जाना कारण कम रेशायुक्त भोजन का सेवन करना शरीर में पानी का कम होना कम चलना या काम करना कुछ दवाओं का सेवन करना बड़ी आंत में घाव या चोट के कारण यानि बड़ी आंत में कैंसर थॉयरायड का कम बनना कैल्सियम और पोटैशियम की कम मात्रा मधुमेह के रोगियों में पाचन संबंधी समस्या कंपवाद (पार्किंसन बीमारी) साधारण उपाय रेशायुक्त भोजन का अत्यधित सेवन करना, जैसे साबूत अनाज ताजा फल और सब्जियों का अत्यधिक सेवन करना पर्याप्त मात्रा में पानी पीना ज्यादा समस्या आने पर चिकित्सक से सलाह लेना चाहिए। कब्ज क्या है ? कब्ज अमाशय की स्वाभाविक परिवर्तन की वह अवस्था है, जिसमें मल निष्कासन की मात्रा कम हो जाती है, मल कड़ा हो जाता है, उसकी आवृति घट जाती है या मल निष्कासन के समय अत्यधिक बल का प्रयोग करना पड़ता है। सामान्य आवृति और अमाशय की गति व्यक्ति विशेष पर निर्भर करती है। (एक सप्ताह में 3 से 12 बार मल निष्कासन की प्रक्रिया सामान्य मानी जाती है। लक्षण पेट में दर्द होना या सूजन हो जाना कारण कम रेशायुक्त भोजन का सेवन करना शरीर में पानी का कम होना कम चलना या काम करना कुछ दवाओं का सेवन करना बड़ी आंत में घाव या चोट के कारण यानि बड़ी आंत में कैंसर थॉयरायड का कम बनना कैल्सियम और पोटैशियम की कम मात्रा मधुमेह के रोगियों में पाचन संबंधी समस्या कंपवाद (पार्किंसन बीमारी) साधारण उपाय रेशायुक्त भोजन का अत्यधित सेवन करना, जैसे साबूत अनाज ताजा फल और सब्जियों का अत्यधिक सेवन करना पर्याप्त मात्रा में पानी पीना ज्यादा समस्या आने पर चिकित्सक से सलाह लेना चाहिए ज्‍वर (बुखार) मनुष्य के शरीर का सामान्‍य तापमान 37 डिग्री.से. या 98.6 फैरेनहाइट होता है। जब शरीर का तापमान इस सामान्‍य स्‍तर से ऊपर हो जाता है तो यह स्थिति ज्‍वर या बुखार कहलाती है। ज्‍वर कोई रोग नहीं है। यह केवल रोग का एक लक्षण है। किसी भी प्रकार के संक्रमण की यह शरीर द्वारा दी गई प्रतिक्रिया है। बढ़ता हुआ ज्‍वर रोग की गंभीरता के स्‍तर की ओर संकेत करता है। कारण निम्‍नलिखित रोग ज्‍वर का कारण हो सकते है- 1. मलेरिया 2. टायफॉयड 3. तपेदिक (टी.बी.) 4. गठिया रोग से संबंधित ज्‍वर 5. खसरा 6. कनफेड़े 7. श्‍वसन संबंधी संक्रमण जैसे न्‍युमोनिया एवं सर्दी, खाँसी, टॉन्सिल, ब्रॉंन्‍कायटिस आदि। 8. मूत्रतंत्र संक्रमण (यूरिनरी ट्रॅक्‍ट इन्‍फेक्‍शन) साधारण ज्‍वर के लक्षण: शरीर का तापमान 37.5 डि.से. या 100 फैरेनहाइट से अधिक सिरदर्द ठंड लगना जोड़ों में दर्द भूख में कमी कब्‍ज होना भूख कम होना एवं थकान इसे पालन करने के सरल उपाय रोगी को अच्‍छे हवादार कमरे में रखना चाहिये बहुत सारे द्रव पदार्थ पीने को दें स्‍वच्‍छ एवं मुलायम वस्‍त्र पहनाऍं पर्याप्‍त विश्राम आवश्‍यक यदि ज्‍वर 39.5 डिग्री से. या 103.0 फैरेनहाइट से अधिक हो या फिर 48 घंटों से अधिक समय हो गया हो तो डॉक्‍टर से परामर्श लें ज्‍वर के दौरान लिये जानेवाले खाद्य पदार्थ- खूब सारा स्‍वच्‍छ एवं उबला हुआ पानी शरीर को पर्याप्‍त कैलोरिज देने के लिये, ग्‍लूकोज, आरोग्‍यवर्धक पेय (हेल्‍थ ड्रिंक्‍स), फलों का रस आदि लेने की सलाह दी जाती है। आसानी से पचनेवाला खाना जैसे चावल की कांजी, साबूदाने की कांजी, जौ का पानी आदि देना चाहिये। दूध, रोटी एवं डबलरोटी (ब्रेड) माँस, अंडे, मक्‍खन, दही एवं तेल में पकाये गये खाद्य पदार्थ न दें जई (ओटस्) जई में वसा एवं नमक की मात्रा कम होती है; वे प्राकृतिक लौह तत्व का अच्‍छा स्रोत है। कैल्शियम का भी उत्तम स्रोत होने के कारण, जई हृदय, अस्थि एवं नाखूनों के लिये आदर्श हैं। ये घुलनशील रेशे (फायबर) का सर्वोत्तम स्रोत हैं। खाने के लिए दी जई के आधा कप पके हुये भोजन में लगभग 4 ग्राम विस्‍कस सोल्‍यूबल फायबर (बीटा ग्‍लूकोन) होता है। यह रेशा रक्‍त में से LDL कोलॅस्‍ट्रॉल को कम करता है, जो कि तथाकथित रूप से ‘’बैड’’ कोलेस्‍ट्रॉल कहलाता है। जई अतिरिक्‍त वसा को शोषित कर लेते हैं एवं उन्‍हें हमारे पाचनतंत्र के माध्‍यम से बाहर कर देते हैं। इसीलिये ये कब्‍ज का इलाज उच्‍च घुलनशील रेशे की मदद से करते हैं एवं गैस्‍ट्रोइंटस्‍टाइनल क्रियाकलापों का नियमन करने में सहायक होते हैं। जई से युक्‍त आहार रक्‍त शर्करा स्‍तर को भी स्थिर रखने में मदद करता है। जई नाड़ी-तंत्र के विकारों में भी सहायक है। जई महिलाओं में रजोनिवृत्ति से संबधित ओवरी एवं गर्भाशय संबंधी समस्‍याओं के निवारण में मदद करता है। जई में कुछ अद्वितीय वसा अम्‍ल (फैटी एसिड्स) एवं ऐन्‍टी ऑक्सिडेन्‍टस् होते हैं जो विटामिन ई के साथ एकत्रित होकर कोशिका क्षति की रोकथाम करता है एवं कर्करोग कैंसर के खतरा को कम करता है। अल्सर पाचन पथ के अस्तर पर घाव अल्सर हैं। अल्सर अधिकतर ड्यूडेनम (आंत का पहला भाग) में होता है। दूसरा सबसे आम भाग पेट है (आमाशय अल्सर)। अल्सर के क्या कारण हैं? जीवाणु का एक प्रकार हेलिकोबैक्‍टर पाइलोरी कई अल्सरों का कारण है। अम्‍ल तथा पेट द्वारा बनाये गये अन्य रस पाचन पथ के अस्तर को जलाकर अल्सर होने में योगदान कर सकते हैं। यह तब होता है जब शरीर बहुत ज्यादा अम्ल बनाता है या पाचन पथ का अस्तर किसी वज़ह से क्षतिग्रस्त हो जाए। व्यक्ति में शारीरिक या भावनात्मक तनाव पहले से ही उपस्थित अल्सर को बढ़ा सकते हैं। अल्सर कुछ दवाओं के निरंतर प्रयोग, जैसे दर्द निवारक दवाओं के कारण भी हो सकता है। अल्सर के संभावित लक्षण जब आप खाते या पीते हैं तो बेहतर महसूस करते है तथा फिर 1 या 2 घंटे बाद स्थिति बदतर (ड्यूडेनल अल्सर) हो जाती है जब आप खाते या पीते हैं तो अच्छा महसूस नहीं करते (पेट का अल्सर) पेट दर्द जो रात में होता है पेट में भारीपन, फूला हुआ, जलन या हल्का दर्द महसूस हो वमन अनपेक्षित रूप से वजन का घटना प्रबंधन के लिए सरल नुस्खे धूम्रपान न करें प्रदाहनाशी दवाओं से बचें जब तक एक चिकित्सक द्वारा न दी जाए कैफीन तथा शराब से बचें मसालेदार भोजन से बचें यदि वे जलन पैदा करते हैं। आपके अल्सर की बिगड़ती हालत के चेतावनी संकेत आपको रक्त वमन हो आप घंटों या दिनों पहले खाये भोजन का वमन करें । आपको असामान्य रूप से कमजोरी या चक्कर महसूस हो। आपके मल में रक्त हो (रक्त आपके मल को काला या राल की तरह बना सकता हैं।) आपको हमेशा मतली हो या लगातार वमन हो आपको अचानक तेज दर्द हो आपका वजन लगातार घट रहा हो दवाई लेने पर भी आपका दर्द दूर नहीं होता हो। आपका दर्द पीठ तक पहुंचे। तंबाकू सेवन के दुष्परिणाम तम्बाकू मुंह, गले, फेफड़ों, पेट, गुर्दे, मूत्राशय आदि जैसे शरीर के विभिन्न भागों के कैंसर के लिए जिम्मेदार होता है। सहायक तथ्य विश्व में मुंह में होने वाले कैंसर के सबसे अधिक मामले भारत में होते हैं, जो तंबाकू की वजह से उत्पन्न होती है। भारत में, कैंसर के लिए तम्बाकू का योगदान पुरुषों तथा महिलाओं में क्रमश: 56.4 प्रतिशत तथा 44.9 प्रतिशत होती है। 90 प्रतिशत से अधिक फेफड़ों के कैंसर तथा फेफड़ों की अन्य बीमारियों का कारण धूम्रपान है। तम्बाकू की वजह से हृदय एवं धमनियों के रोग, हृदयघात (दिल का दौरा), सीने में दर्द, अचानक हृदयगति रूकने से (कार्डिएक) मृत्यु, स्ट्रोक (दिमागी नस फटना), परिधीय संवहनी रोग (पैरों का गैंग्रीन) होते हैं। सहायक तथ्य भारत में फेफड़ों की 82 प्रतिशत अवरोधी बीमारी धूम्रपान की वजह से होती है। तम्बाकू परोक्ष रूप से फेफड़ों में होने वाले क्षय रोग (टी.बी) का कारण है। कभी-कभी धूम्रपान करने वालों में टीबी का खतरा 3 गुना अधिक व्याप्त होताहै। जितना अधिक धूम्रपान किया जाता है,सिगरेट या बीड़ी, उतनी अधिक टी.बी, धूम्रपान करने वालों के बीच व्याप्त है। धूम्रपान/तंबाकू अचानक रक्तचाप बढ़ा देता है एवं हृदय के रक्त का प्रवाह कम कर देता है। वह पैरों को भी रक्त का प्रवाह कम कर देता है जिससे पैरों के मांस में सड़न पैदा कर सकता है। तम्बाकू संपूर्ण शरीर की धमनियों की परत को नुकसान पहुँचाती है। धूम्रपान बच्चों तथा परिवार के अन्य सदस्यों के लिए स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं (अपरोक्ष धूम्रपान) उत्पन्न करता है। धूम्रपान न करने वाला व्यक्ति यदि धूम्रपान (दो पैकेट प्रतिदिन) करने वाले व्यक्ति के साथ रहता है तो वह मूत्र निकोटीन के स्तर के अनुसार तीन सिगरेट के समतुल्य निष्क्रिय धूम्रपान करता है। यह भी पाया गया है कि धूम्रपान / तंबाकू का सेवन मधुमेह का खतरा बढ़ा देता है। तम्बाकू रक्त में अच्छा कोलेस्ट्रॉल कम कर देती है। धूम्रपान करने वालों /तंबाकू का सेवन करने वालों में,धूम्रपान न करने वालों की तुलना में हृदय रोग तथा पक्षाघात होने की 2 से 3 गुना अधिक संभावना होती है। प्रति 8 सेकंड में तंबाकू से संबंधित रोग से 'एक' मृत्यु होती है। सहायक तथ्य भारत में तंबाकू जनित रोग से होने वाली मृत्यु की कुल संख्या 8-9 लाख प्रति वर्ष के बीच होने की संभावना है। तम्बाकू से बचना एक किशोर/किशोरी के जीवनकाल में 20 वर्ष जोड़ देता है। तम्बाकू का उपयोग करने वाले किशोरों/किशोरियों में से आधे की मृत्यु अंततः उससे होती है (लगभग एक चौथाई मध्य आयु में तथा एक चौथाई बुढ़ापे में) यह अनुमान लगाया गया है कि किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत में प्रति वर्ष तंबाकू जनित रोगों से होने वाली मृत्यु की संख्या में सबसे तेज से वृद्धि हो रही है। धूम्रपान / तंबाकू पुरुषों तथा महिलाओं में प्रतिकूल प्रभावों का कारण है सहायक तथ्य इसके सेवन से पुरुषों में नपुंसकता का कारण उत्पन्न हो सकता है। धूम्रपान / तंबाकू का सेवन महिलाओं में एस्ट्रोजन का स्तर कम कर देता है। रजोनिवृत्ति समय से पूर्व हो जाती है। धूम्रपान / तंबाकू का सेवन शारीरिक गतिविधि की क्षमता तथा शारीरिक सहनशीलता को कम कर देता है। धूम्रपान करने तथा गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन करने वाली महिलाओं को स्ट्रोक का अत्यधिक खतरा होता है। जो गर्भवती महिलाएँ धूम्रपान करती हैं उनके बच्चा का समय से पूर्व नष्ट होने, जन्म के समय उसके बच्चे का वजन औसत के कम होने या विकासात्मक समस्याओं वाले बच्चे पैदा होने की या नवजात शिशुओं की मृत्यु ( बिस्तर पर अचानक अस्पष्टीकृत मृत्यु) की अधिक संभावना होती है। तम्बाकू छोड़ने के लाभ तम्बाकू छोड़ने के भौतिक लाभ: आपमें कैंसर और हृदय रोग का खतरा कम हो जाएगा। आपके हृदय पर तनाव कम हो जाएगा। आपके प्रियजनों को आपके धूम्रपान से नुकसान नहीं होगा। आपकी धूम्रपान जनित खाँसी (लगातार रहने वाली खांसी तथा बलगम) गायब होने की संभावना है। आपके दाँत अधिक सफेद तथा चमकदार हो जाएंगें। तम्बाकू छोड़ने के सामाजिक लाभ: आप नियंत्रक होगें - अब सिगरेट आपको नियंत्रित नहीं करेगी। आपकी अपनी आत्म-छवि तथा आत्मविश्वास बेहतर हो जाएंगा। इसके बाद तथा भविष्य में आप अपने बच्चों के लिये एक स्वस्थ पालक (पिता/माता) होगें। आपके पास अन्य चीजों पर खर्च करने के लिए अधिक धन होगा। यह आदत छोड़ने के लिये लिए कभी भी देर नहीं होती मध्य आयु में कैंसर या अन्य गंभीर बीमारी होने से पहले धूम्रपान / तंबाकू छोड़ना भविष्य में तंबाकू से मृत्यु के गंभीर खतरे को टाल देता है। कम आयु में धूम्रपान बंद कर देने के लाभ और अधिक है। एक बार जब आप तम्बाकू छोड दें तो दिल के दौरे का खतरा 3 वर्षों में सामान्यीकृत होकर एक धूम्रपान का सेवन न करने वालों के बराबर हो जाता है। धूम्रपान / तंबाकू छोड़ने के युक्तियां ऐशट्रे, सिगरेट, पान, ज़र्दा छुपाकर आखों तथा मन से दूर रखें। यह एक आसान परंतु मददगार सिगरेट, पान, तथा ज़र्दा आसानी से उपलब्ध न होने दें। सिगरेट, पान तथा ज़र्दा ऐसे स्थान पर रखें जहाँ से आपको लेने के लिये कड़ी मेहनत करनी पडें। उदाहरण के लिये, घर के अन्य कमरे में, वे जगह जहाँ आप बहुधा नहीं जाते हैं, आलमारी में ताले में बंद कर रखना आदि। धूम्रपान करने के लिए या पान/ज़र्दा खाने को उकसाने वाले कारणों को पहचाने तथा उनको दूर करने का प्रयास करें। क्या आपके साथी धूम्रपान करते हैं या पान/ज़र्दा खाते है? शुरुआत में धूम्रपान करने वालों या पान/ज़र्दा खाने वालों से दूर रहने की कोशिश करें या तब दूर रहें जब वे धूम्रपान करें या पान/ज़र्दा खाएं। मुंह में कुछ रखने की कोशिश करें जैसे- च्यूइंगम, चॉकलेट, पिपरमिंट, लॉज़ेंजेस आदि एवं गहरी सांस लेने का प्रयास करें। जब भी आपको तलब लगे तब खड़े होकर या बैठकर गहरी साँस लें। एक ग्लास पानी पीना तथा व्यायाम करना भी तलब को कम करने में मदद करता है। जब आपको तम्बाकू लेने की इच्छा हो तब अपने बच्चों तथा उनके भविष्य के बारे में सोचें कि तंबाकू से होने वाली खतरनाक बीमारी का उनपर क्या असर होगा। आदत खत्म करने के लिये एक तिथि निर्धारित करें। किसी सहयोगी की तलाश करें। सिगरेट/ पान /ज़र्दा के बगैर अपने पहले दिन की योजना बनाएं। जब आपको धूम्रपान/ तम्बाकू की तलब लगें तब यह 4 चीजें करें: कुछ और करें अगली सिगरेट के धूम्रपान / तंबाकू के सेवन में विलम्ब करें गहरी साँस लें पानी पियें स्वयं के लिये सकारात्मक बातों का प्रयोग करें अपने आप को पुरस्कृत करें प्रतिदिन सुकूनदायक तकनीक का प्रयोग करें (योग, चलना, ध्यान, नृत्य, संगीत आदि) कैफीन और अल्कोहल के सेवन को सीमित करें इसके अलावा, सक्रिय बनें एवं स्वस्थ आहार खायें।

बाल्यावस्था :-और बाल्यावस्था की विशेषतायें :-

बाल्यावस्था :- बाल्यावस्था, वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण विकास होता है। फ्रायड यद्यपि यह मानते हैं कि बालक का विकास 5 वर्ष की आयु तक हो जाता है, लेकिन बाल्यावस्था विकास की प्रकिया को गति गति देती है, और एक परिपक्व व्यक्ति के निर्माण की ओर अग्रसर होती है। शैशवावस्था के बाद बाल्यावास्था का आरम्भ होता है। बाल्यावास्था में बालक के व्यक्तित्व निर्माण होता है। बाल्यावास्था में विभिन्न आदतों, व्यवहार, रूचि एवं इच्छाओं का निर्माण होता है। इस अवस्था में बालक में कई तरह के परिवर्तन होए हैं। 6 वर्ष की आयु में बालक का स्वभाव वहुत उग्र होता है। 7 वर्ष की आयु में वह उदासीन होता है और अकले रहना पसन्द करता है। 8 वर्ष की आयु में उसमें अन्य बालकों के साथ सामाजिक सम्बंध स्थापित करने की भावना वहुत प्रबल होती है। 0 से 12 वर्ष तक की आयु में बालक में विद्यालय के प्रति उसका कोई आकर्षण नहीं रहता है। बाल्यावस्था की विशेषतायें :- 1. विकास में स्थिरता :- 6 से 7 वर्ष की आयु के बाद बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। वह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक क्षमता को मजबूती प्रदान करती हैं। फलस्वरूप उसका मस्तिष्क परिपक्व हो जाता है। 2. मानसिक योग्यताओं में वृद्वि :- बाल्यावस्था में बालक की मानसिक क्षमता में निरन्तर वृद्धि होती है। उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्तियों में वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है। 3. जिज्ञासा की प्रबलता :- बाल्यावस्था में बालक की जिज्ञासा बिशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, उनके बारे में प्रश्न पूछ कर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है। 4. वास्तविक ज्ञान का विकास :- बाल्यावस्था में बालक शैशवावस्था के काल्पनिक जीवन को छोड़कर वास्तविक दुनिया में प्रवेश करता है। वह दुनिया की प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होकर उसके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करना चाहता है। 5. रचनात्मक कार्यों में रूचि :- बाल्यावस्था में बालक को रचनात्मक कार्यो में बहुत आनन्द आता है। वह साघारणत: घर से बाहर किसी प्रकार का कार्य करना चाहता है। 6. सहयोग की भावना :- बाल्यावस्था में बालक विद्यालय के छात्रों और अपने दोस्तों के समूह के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है। बाल्यावस्था में बालक में अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे- सहयोग, सदभावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता आदि। 7. नैतिक गुणों का विकास :- बाल्यावस्था के आरम्भ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है। बालक में न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की समझ का विकास होने लगता है। 8. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का निर्माण :- शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होता है, और बाल्यावस्था में बाहरी दुनिया में उसकी रुचि बढ़ जाती है और उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी हो जाता है। 9. संवेगों पर नियंत्रण :- बाल्यावस्था में बालक अपने संवेगों पर अघिकार रखना एवं अच्छी और बुरी भावनाओं में अन्तर करना जान जाता हैं। वह ऐसी भावनाओं को छोड़ देता है, जिसके बारे में उसके माता-पिता, शिक्षक और बड़े लोग बुरा बताते हैं। 10. संग्रहीकरण की प्रवृत्ति :- बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं उनको अनोखी लगने वाली चीजों का संग्रह करने की प्रवृत्ति आ जाती है। बाल्यावस्था में बालक बिशेष रूप से कांच की गोलियों, टिकटों, मशीनों के भागों और पत्थरो के टुकडों का संचय करना पसंद करते हैं। बालिकाओं में चित्रों, खिलौनों, गुडियों और कपडों के टुकडों का संग्रह करने की रुचि पाई जाती है। 11. बाल्यावस्था में बालकों में बिना किसी उददेश्य के इधर-उधर घूमने की लालसा वहुत अघिक होती है। बाल्यावस्था में बालक में विद्यालय से भागने और आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पाई जाती हैं। 12. प्रवृत्ति :- बाल्यावस्था में बालक में काम प्रवृत्ति की भावना न के बराबर होती है। बाल्यावस्था में बालक अपना समय मिलने-जुलने, खेलने-कूदने और पढने-लिखने आदि कार्यों में व्यतीत करता है। 13. सामूहिक प्रवृत्ति :- बाल्यावस्था में बालक की सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपना अधिक से अधिक समय दोस्तों के साथ व्यतीत करने का प्रयास करता है। बालक की सामूहिक खेलों में अत्याधिक रूचि होती है। वह 6 या 7 वर्ष आयु में छोटे समूहों में खेलता है। 14. रूचियों में परिवर्तन :- बाल्यावस्था में बालक के रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। बालक की रुचियाँ वातावरण के साथ बदलती रहती हैं। बाल्यावस्था का महत्व :- ● बाल्यावस्था का काल 6 से 12 वर्ष माना जाता है। इस अवस्था में बालकों तथा बालिकाओं के शरीर में कई तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं की लंबाई, वजन आदि में परिवर्तन होते हैं। ● बाल्यावस्था में हड्डियों में मजबूती तथा दृढता आती है, बाल्यावस्था दांतों में स्थाई पन आने लगता है। बाल्यावस्था में मानसिक विकास भी तीव्र होती है। बाल्यावस्था बालक अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए तरह-तरह के और प्रश्न। ● बाल्यावस्था में बालक के अंदर सूक्ष्म चिंतन की शुरुआत हो जाती है। बाल्यावस्था तक बालक विद्यालय में प्रवेश ले चुका होता है, बाल्यावस्था में बालक में परिवार के साथ-साथ अन्य लोगों के साथ भी उसकी सामाजीकरण प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है। बाल्यावस्था में विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षण का भाव आने लगता है। ● बाल्यावस्था में बालकों के शब्दकोश में भी बहुत वृद्धि होती है। बाल्यावस्था में बालकों के अंदर आत्मनिर्भरता की सोच विकसित होने लगती है, और उनकी आदतों, रूचियों, मनोवृन्ति और रहन-सहन आदि में पर्याप्त अंतर दिखाई देने लगता है। बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप :- बाल्यावस्था शिक्षा के लिए एक बहुत ही उपयोगी अवस्था है। ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन नेे बाल्यावस्था के बारे में बताया है कि “बाल्यावस्था वह समय है, जव व्यक्ति दो आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है।”ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन ● बाल्यावस्था के बारे में स्ट्रेंग ने कहा कि “इस अवस्था में बालको की भाषा में बहुत रूचि होती है।” इसलिए बाल्यावस्था में बालक की भाषा को अधिक से अधिक बड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए ● बाल्यावस्था में बालकों की रुचियों में परिवर्तन आता रहता है, इसलिए उसकी पुस्तकों के विषय में रोचकता और विभिन्नता होनी चाहिए। ● बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिससे बालक की सभी जिज्ञासाओं का उत्तर उसे मिल सके। ● बाल्यावस्था में बालक एवं बालिकाओं को सामूहिक कारण और मिल जुल कर रहना ज्यादा पसंद होता है। इसलिए विद्यालय में सामूहिक कार्यक्रम और खेलों का आयोजन कराना चाहिए। ● बाल्यावस्था में बालक एवं बालिकाओं की रचनात्मक गुणों को निखारने के लिए रचनात्मक कार्यों की प्रतियोगिता और व्यवस्था करनी चाहिए। ● बाल्यावस्था में बालकों में घूमने की तीव्र प्रवृत्ति होती है इसलिए विद्यालयों को पर्यटन और स्काउटिंग का कार्यक्रम भी करवाना चाहिए। किशोरावस्था :- मानव जीवन के विकास की प्रकिया में किशोरावस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। बाल्यावस्था के बाद किशोरावस्था प्रारम्भ होती है, और युवावस्था या प्रौढावस्था से पहले समाप्त होती है। किशोरावस्था को बाल्यावस्था और युवावस्था या प्रौढावस्था के मध्य का सन्धि काल कहते भी कहा जाता है। किशोरावस्था की विशेषताएं :- 1. विकासात्मक विशेषता :- किशोरावस्था को शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। किशोरावस्था में किशोर के शरीर में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्त्तन होते है, जैसे-वजन और लम्बाई में तेजी से बृद्धि, मांसपेशियों और शारीरिक ढाँचे में दृढता। किशोरावस्था में किशोर में दाढी और पूंछे के रोएं आना शुरू हो जाता है, और किशोरियों में मासिक धर्म की शुरुआत होती है। 2. कल्पना की बाहुल्यता :- किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं के मस्तिष्क का सभी दिशाओं में विकास होता है। किशोरावस्था में ही बालक एवं बालिकाओं में अपने सपनों में ही खोये रहनी की प्रवृत्ति बढ़ जाती है, और सोचने समझने और तर्क करने की शक्ति में भी वृद्धि होती है। किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं के बहुत सारे मित्र होते हैं, लेकिन वह केवल एक या दो लोगों से ही घनिष्ठ मित्रता रखना ज्यादा पसंद करते हैं। 3. संवेगों में अस्थिरता :- किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में आवेगों और संवेगों की बहुत प्रबलता होती है। इसलिए वह विभिन्न अवसरों पर विभिन्ग प्रकार का व्यवहार करतें हैं। किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन भी कहा है, क्योकि किशोर इस अवस्था में किशोरों के बहुत से व्यवहार एक शिशु की तरह होते हैं। किशोरावस्था में किशोरों में इतनी उद्विग्नता या व्याकुलता होती है, कि वह एक शिशु के समान अन्य व्यक्तियों और वातावरण से समायोजन नहीं कर पाता है। 4. स्वतंत्रता की भावना :- किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में शारीरिक और मानसिक स्वतंत्रता की भावना बहुत प्रबल होती है। किशोरावस्था में किशोरों मैं बड़ों की आज्ञा मानकर स्वतंत्रत तरीके से काम करने की प्रवृत्ति होती है। किशोरावस्था में यदि किशोरों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया जाता है, तो उनमें विद्रोह की भावना भी उत्पन्न होने लगती है। 5. काम भावना में परिपक्वता :- किशोरावस्था में कमेंद्रियों की परिपक्वता की और कामशक्ति का विकास किशोरावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। किशोरावस्था से पहले की अवस्था अर्थात बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में विषम लिंगों के प्रति आकर्षण होता है। 6. समूह का महत्व :- किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में समूह की महत्वपूर्णता बहुत बड़ जाती है। किशोरावस्था वे अपने समूह को अपने परिवार और विद्यालय से अघिक महत्वपूर्ण मानते हैं। 7. रूचियों में परिवर्तन :- 15 वर्ष की आयु तक किशोरों की रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, लेकिन उसके बाद उनकी रूचियों में धीरे-धीरे स्थिरता आने लगती थी। बालकों को मुख्य रूप से खेलकूद और व्यायाम में विशेष रूचि होती है। वहीं इसके विपरीत बालिकाओं में कढाई-बुनाई, नाच, गाने के प्रति ज्यादा आकर्षण रहता है। 8. समाजसेवा की भावना :- किशोरावस्था में किशोर में समाज सेवा की तीव्र भावना होती है। किशोरावस्था की शुरूआत में बालकों और बालिकाओं में अपने धर्म और ईश्वर में ज्यादा आस्था नहीं होती है, लेकिन धीरे-धीरे उनमें अपने धर्म के प्रति विश्वास उत्पन्न होने लगता है। 9. जीवन दर्शन का निर्माण :- किशोरावस्था के पहले बालक अच्छी और बुरी, सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में तरह-तरह के प्रश्न पूछता है। लेकिन किशोरावस्था में आने पर वह इन सब बातों पर खुद ही सोंच-विचार करने लगता है। किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं में अपनी इच्छा, महत्वकांक्षा, निराशा, असफलता, प्रतिस्पर्धा, प्रेम में असफलता आदि कारणों से अपराध की प्रवृत्ति भी उत्पन्न होने लगती है। 10. व्यवसाय, नौकरी और भविष्य के प्रति चिंता :- किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने और किसी अच्छे स्थान पर पहुंचने की तीव्र इच्छा होती है। किशोरावस्था में किशोर अपने भविष्य और अपने आगे के जीवन की दिशा चुनने की भी चिंता रहती है। किशोरावस्था का महत्व :- किशोरावस्था जीवन का वह समय है, जहा से एक अपरिपक्व व्यक्ति का शारीरिक व मानसिक विकास एक चरम सीमा की ओर आगे बढ़ता है। शारीरिक रूप से एक बालक तब किशोर बनता है उसमें सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता की शुरुआत होती है। यह अवस्था 12-13 से 18 वर्ष की आयु तक मानी जाती है। किशोरावस्था के आरंभ होने की आयु लिंग, प्रजाति, जलवायु, संस्कृति एवं स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। भारत में यह अवस्था औसतन 12 वर्ष से ही शुरू हो जाती है। किशोरावस्था का जीवन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योकि अवस्था में किशोर के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास में जबरदस्त परिवर्तन होते हैं। किशोरावस्था के संदर्भ में स्टेलनले हॉल ने कहा कि- “किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।”स्टेलनले हॉल किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप :- किशोरावस्था जीवन की प्रमुख अवस्था है, इस अवस्था से किशोरों का आगे का जीवन निर्माण होता है, इसलिए किशोरावस्था में माता-पिता और अभिभावकों के साथ-साथ शिक्षा के स्वरूप का भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जिसके बारे में हमने नीचे विस्तार से बताया है :- ● किशोरावस्था में शरीर में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हौते है, जिनके बारे में किशोरों और किशोरियों को उचित जानकारी होना बहुत आवश्यक है, सही शिक्षा के माध्यम से हम किशोरों और किशोरियों के शरीर को सबल और सुडौल बना सकते हैं, इसके लिए विद्यालय को शारीरिक और स्वास्थ्य शिक्षा, विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायाम और विभिन्न प्रकार के खेलकूद आदि का आयोजन करना चाहिए। ● किशोर की मानसिक ऊर्जा का सर्वोत्सम और अधिकतम विकास करने क लिए शिक्षा का स्वरूप उसकी रूचियों, रूझानों और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। ● विद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिससे किशोरावस्था में किशोरों का अच्छा सामाजिक व्यवहार और सम्बधों की कला सीख सकें। ● किशोर अपने आने वाले जीवन के लिए किसी न किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है, पर वह यह नहीं जानता है कि कौन सा व्यवसाय उसके लिए सबसे सर्वोत्तम होगा। विद्यालय में कुछ व्यवसायों की प्रारंभिक शिक्षा दी जानी चाहिए। ● किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं के दिमाग में कई तरह की विरोधी गतिविधियां चलती रहती हैं। विद्यालय में किशोरावस्था में छात्रों को उदार, धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह उचित और अनुचित में अन्तर कर सकें और अपने व्यवहार को समाज कै नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सकें। ● किशोर बालकों और बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का सम्बंध उनकी काम-प्रवृत्ति से होता है। यौन शिक्षा की व्यवस्था होना अति आवश्यक है। ● बालकों और बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी अति आवश्यक है। “लिंग भेद के कारण और इस बिचार से कि बालकों और बालिकाओं के भावी जीवन में समाज में विभिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठयक्रमों में बिभिन्नता होनी चाहिए।” ● किशोर में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए, इसलिए उनके पाठ्यक्रमों को इसके अनुकूल बनाना चाहिए। ● किशोर को न तो बालक समझना चाहिए और न उसके प्रति बालक का सा व्यवहार करना चाहिए, किशोरों से मित्रवत और वयस्कों जैसा व्यवहार करना चाहिए। ● किशोर में उचित महत्व और उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है, जिसको प्राप्त करने की दिशा कभी-कभी किशोरों को गलत रास्ते में ढ़केल देती है। विद्यालय को उनकी उपयोगिता का अनुभव करना चाहिए और उसकी निराशा को दूर करने का उपाय करके उसकी अपराध प्रवृत्ति को कम करना चाहिए।

बाल विकास की अवस्थाएं, विशेषताएं, महत्व एवं शिक्षा का स्वरूप

शैशवावस्था :- बालक के जन्म के पश्चात् से पाँच वर्ष तक की अवस्था शैशवावस्था कहलाती है। यह अवस्था बालक का निर्माण काल होती है। इसी काल में बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। इस अवस्था में बालक का जितना अधिक निरीक्षण और निर्देशन किया जाता है, उतना ही अच्छा और उत्तम उसका विकास और जीवन होता है। जन्म के उपरांत नवजात शिशु के भार, अंगों और गतिविधियों में पांच वर्ष की अवस्था तक परिवर्तन दिखाई देते है। विकास के साथ-साथ इनमें स्थायित्व आने लगता है। शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएं :- शैशवावस्था की विशेषताएं नीचे दी गईं है :- 1. शारीरिक विकास में तीव्रता :- शैशवावस्था के प्रथम तीन वर्षो में शिशु का शारीरिक विकास अति तीव्र गति से होता है। तीन वर्ष के बाद विकास की गति धीमी हो जाती है। उसकी इंद्रियों, आंतरिक अंगों और मांसपेशियों आदि का क्रमिक विकास होता है। 2. मानसिक क्रियाओं की तीव्रता :- शैशवावस्था में शिशु की मानसिक क्रियाओं जैसे-ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण आदि के विकास में पर्याप्त तीव्रता होती है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियां कार्य करने लगती हैं। 3. सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता :- शैशवावस्था में शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्र होती है, और वह अनेक आवश्यक बातों को तुरंत लिख लेता है। 4. कल्पना की सजीवता :- चार वर्ष के बालक की कल्पना में बहुत सजीवता होती है। वह सत्य और असत्य में अन्तर नहीं का पाता है। फलस्वरूप, वह झूठ बोलने जैसा लगता है। 5. दूसरों पर निर्भरता :- जन्म के बाद शिशु कुछ समय तक बहुत असहाय स्थिति में रहता है, उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने क लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। 6. आत्म प्रेम की भावना :- शैशवावस्था में शिशु अपने माता, पिता, भाई, बहन आदि का प्रेम प्राप्त करना चाहता है। पर साथ ही वह यह भी चाहता है कि प्रेम उसके अलावा किसी और को न मिले यदि और किसी के प्रति प्रेम व्यक्त किया जाता हैं, तो उसे उससे ईष्यों होने लगती है। 7. नैतिकता का विकास :- शैशवावस्था में शिशु में अच्छी और बुरी, उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिनमें उसको आनन्द आता है। 8. मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार :- शैशवावस्था में शिशु का अधिकांश व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृतियां होती हैं, यदि उसे भूख लगती है, तो उसे जो भी वस्तु मिलती है, उसी को अपने मुह में रख लेता है। 9. सामाजिक भावना का विकास :- शैशवावस्था के अन्तिम वर्षो में शिशु में सामाजिक भावना का विकास हो जाता है। छोटे भाईयों, बहनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती है। वह 2 से 6 वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपने वस्तुओं और खिलौनों को दूसरे के साथ साझा करता है। 10. दूसरे बालकों में रूचि या अरुचि :- शैशवावस्था में शिशु में दूसरे बालकों के प्रति रूचि या अरूचि हो जाती है। बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रूचि व्यक्त करने लगता है। आरंभ में इस रूचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, लेकिन जल्द हि यह रूचि एवं अरूचि के रूप में प्रकट होने लगता है। 11. संवेगों का प्रदर्शन :- दो वर्ष की आयु तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हौ जाता है। बाल मनोवैज्ञानिकों ने शिशु के मुख्य रूप से चार संवेग माने हैं– भय, क्रोध, प्रेम और पीड़ा। 12. काम-प्रवृत्ति :- बाल-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शैशवावस्था में काम-प्रवृत्ति वहुत प्रबल होती है, पर वयस्को के समान वह उसको व्यक्त नहीं कर पाता है। अपनी माता का स्तनपान करना और यौनागों पर हाथ रखना बालक की काम प्रवृत्ति के सूचक हैं। 13. दोहराने की प्रवृत्ति :- शैशवावस्था में शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। उसमें शब्दों और गतियों को दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है। 14. जिज्ञासा की प्रवृत्ति :- शैशवावस्था में शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपने खिलौने में तरह-तरह के प्रयोग करता है। वह उसको फर्श पर फेंक सकता है। वह उसक भागों को अलग अलग कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह विभिन्न बात्तों और वस्तओं क बारे में “क्यों” और “कैसें” प्रश्न पूछता है। 15. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति :- शैशवावस्था में शिशु में अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति होती है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि के कार्यो और व्यवहार का अनुकरण करता है। 16. अकेले व साथ खेलने की प्रवृति :- शैशवावस्था में शिशु में पहले अकेले और फिर दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है। बहुत छोटे में शिशु अकेले खेलना पसंद करते हैं। अन्त में वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में ज्यादा रुचि लेता है। शैशवावस्था का महत्व :- इस अवस्था में शिशु पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर रहता है उसका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है, जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भविष्य के जीवन की आधारशिला रखता है। व्यक्ति को जो कुछ बनना होता है, वह आरंभ के चार-पांच वर्षों में ही बन जाता है। व्यक्ति में कुल जितना मानसिक विकास होता है, उसका आधा 3 वर्ष की आयु तक में ही हो जाता है। शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता विकास की अन्य किसी अवस्था की तुलना में बहुत अधिक होती है। शैशवावस्था ही वह आधार है जिस पर बालक के आने वाले जीवन का निर्माण किया जा सकता है, इसलिए शैशवावस्था में शिशु को जितना उत्तम और अच्छा निर्देशन दिया जाएगा उसका उतना ही अच्छा विकास होगा। मनोवैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं के संदर्भ में अनेकों अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला है, कि सब अवस्थाओं में शैशवावस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। शैशवावस्था के संबंध में कुछ मनोवैज्ञानिक ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं– बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में इसका क्या स्थान है।ऐडलर के अनुसार व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता हैं
।गुडलर के अनुसार शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप :- 1. शैशवावस्था में शिशु अपने विकास के लिए शान्त, स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण चाहता है । अत: घर और विद्यालय में उसे इस प्रकार का वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए। 2. शैशवावस्था में शिशु अपनी आवश्यकताओं को पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। माता-पिता और शिक्षक को उसे डांटना या पीटना नहीं चाहिए। उन्हे उसके प्रति सदैव प्रेम, शिष्टता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। 3. शैशवावस्था में शिशु सब विषय में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शान्त काना चाहता है, माता-मिता और शिक्षक को उसके प्रश्नों के उत्तर देकर, उसकी जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। 4. शैशवावस्था में शिशु कल्पना की दुनिया में मग्न रहता है, इसलिए उसे ऐसे विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए जो उसे वास्तविकता के निकट लाये। 5. शैशवावस्था में शिशु को आत्म निर्भरता से स्वयं सीखने, काम करने और विकास करने की प्रेरणा मिलती है। अत: उसको स्वतंत्रता प्रदान करके आत्म-निर्भर बनने का अवसर दिया जाना चाहिए।

बाल विकास का अर्थ, आवश्यकता तथा क्षेत्र

विकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। जो संसार के प्रत्येक जीव में पाई जाती है। विकास की यह प्रक्रिया गर्भधारण से लेकर मृत्यु पर्यन्त किसी न किसी रूप में चलती रहती है। इसकी गति कभी तीव्र और कभी मन्द होती है। मानव विकास का अध्ययन मनोविज्ञान की जिस शाखा के अन्तर्गत किया जाता है, उसे बाल-मनोविज्ञान कहा जाता है परन्तु अब मनोविज्ञान की यह शाखा ‘बाल-विकास’ कही जाती है । मनोविज्ञान की इस नवीन शाखा का विकास पिछले पचास वर्षों में सर्वाधिक हुआ है। वर्तमान समय में ‘बाल विकास’ के अध्ययनों में मनोवैज्ञानिकों की रूचि दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है क्योकि इस दिशा में हुए अध्ययनों ने बालकों के जीवन को सुखी, समृद्धिशाली और प्रशसंनीय बनाने में महत्वपूर्ण यागेदान दिया है।

  बाल विकास का अर्थ 

बाल विकास, मनोविज्ञान की एक शाखा के रूप में विकसित हुआ है। इसके अन्तर्गत बालकों के व्यवहार, स्थितियाँ, समस्याओं तथा उन सभी कारणों का अध्ययन किया जाता है, जिनका प्रभाव बालक के व्यवहार पर पड़ता है। वर्तमान युग में अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आर्थिक कारक मानव तथा उसके परिवेश को प्रभावित कर रहे हैं। परिणामस्वरूप बालक, जो भावी समय की आधारशिला होता है, वह भी प्रभावित होता है।

 बाल मनोविज्ञान की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं- 

 क्रो और क्रो के अनुसार- ‘‘बाल मनोविज्ञान वह वैज्ञानिक अध्ययन है जो व्यक्ति के विकास का अध्ययन गभर्काल के प्रारम्भ से किशोरावस्था की प्रारम्भिक अवस्था तक करता है।’’

जेम्स ड्रेवर के अनुसार- ‘‘बाल मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें जन्म से परिपक्वावस्था तक विकसित हो रहे मानव का अध्ययन किया जाता है।’’ 

 3. थॉम्पसन के शब्दों में- ‘‘ बाल-मनोविज्ञान सभी को एक नयी दिशा में संकेत करता है। यदि उसे उचित रूप में समझा जा सके तथा उसका उचित समय पर उचित ढंग से विकास हो सके तो प्रत्येक बालक एक सफल व्यक्ति बन सकता है।’ 

 हरलॉक के अनुसार- ‘‘आज बाल-विकास में मुख्यतः बालक के रूप व्यवहार, रुचियों और लक्ष्यों में होने वाले उन विशिष्ट परिवर्तनों की खोज पर बल दिया जाता है, जो उसके एक विकासात्मक अवस्था से दूसरी विकासात्मक अवस्था में पदार्पण करते समय होते हैं | 

 बाल-विकास में यह खोज करने का भी प्रयास किया जाता है। कि यह परिवर्तन कब होते हैं, इसके क्या कारण हैं और यह वैयक्तिक हैं या सार्वभौमिक।’’ उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि बाल विकास मनोविज्ञान की वह शाखा है, जिसमें विभिन्न विकास अवस्थाओं में मानव के व्यवहार में होने वाले क्रमिक परिवर्तनों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।

  बाल विकास की आवश्यकता

बाल विकास अनुसन्धान का एक क्षेत्र माना जाता है। बालक के जीवन को सुखी और समृद्धिशाली बनाने में बाल-मनोविज्ञान का योगदान प्रशसंनीय है। मनोविज्ञान की इस शाखा का केवल बालकों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध है, जो बालकों की समस्याओं पर विचार करते हैं और बाल मनोविज्ञान की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं। समाज के विभिन्न लोग बाल-मनोविज्ञान से लाभान्वित हो रहे हैं, जैसे- बालक के माता-पिता तथा अभिभावक, बालक के शिक्षक, बाल सुधारक तथा बाल- चिकित्सक आदि। बाल मनोविज्ञान के द्वारा हम बाल- मन और बाल- व्यवहारों के रहस्यों को भली-भाँति समझ सकते है। बाल मनोविज्ञान हमारे सम्मुख बालकों के भविष्य की एक उचित रूपरेखा प्रस्तुत करता है। जिससे अध्यापक एवं अभिभावक बच्चे में अधिगम की क्षमता का सही विकास कर सकते हैं। किस अवस्था में बच्चे की कौन-सी क्षमता का विकास कराना चाहिए, इसका उचित प्रयोग अवस्थानुसार विकास के प्रारूपों को जानने के पश्चात् ही हो सकगेा। उदाहरण के लिए एक बच्चे को चलना तभी सिखाया जाए, जब वह चलने की अवस्था का हो चुका हो, अन्यथा इसके परिणाम विपरीत हो सकते हैं। अतः बाल-मनोविज्ञान की एक व्यावहारिक उपयोगिता यह भी है कि यह बालकों के समुचित निर्देशन के लिए व्यावहारिक उपाय बता सकता है। हम निर्देशन के द्वारा ही बालकों की क्षमताओं और अभिवृत्तियों का उचित रूप से लाभ उठा सकते है। व्यक्तिगत निर्देशन में बालक की व्यक्तिगत कठिनाइयोंऔर दोषों तथा उसकी प्रवत्तियों और उसके व्यक्तित्व से सम्बन्धित विकारों को दूर करने के उपायों की जानकारी बाल-मनोविज्ञान से प्राप्त होती है। इसी प्रकार व्यावसायिक निर्देशन के अन्तर्गत वह बालक को यह संकेत देता है कि वह व्यवसाय को चुनकर जीवन में अधिक से अधिक सफलता प्राप्त कर सकता है। अन्त में निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में बाल-मनोविज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। बाल-मनोविज्ञान के बिना मनोविज्ञान विषय अधूरापन लिये रहता है।

  बाल विकास का क्षेत्र बाल विकास के क्षेत्र

  गर्भधारण अवस्था से युवावस्था तक के मानव की सभी व्यवहार सम्बन्धी समस्याएँ सम्मिलित हैं। इस अवस्था के सभी मानव व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं के अध्ययन में विकासात्मक दृष्टिकोण मुख्य रूप से अपनाया जाता है। इन अध्ययनों में मुख्य रूप से इस बात पर बल दिया जाता है कि विभिन्न विकास अवस्थाओं में कौन-कौन से क्रमिक परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन किन कारणों से, कब और क्यों होते हैं, आदि। बाल-विकास का क्षेत्र दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। बाल विकास विषय के क्षेत्र के अन्तर्गत जिन समस्याओं अथवा विषय सामग्री का अध्ययन किया जाता है वह निम्न पक्रार की हो सकती है।

  वातावरण और बालक- 

बाल-विकास में इस समस्या के अन्तर्गत दो प्रकार की समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। प्रथम यह कि बालक का वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है? द्वितीय यह कि वातावरण बालक के व्यवहार, व्यक्तित्व तथा शारीरिक विकास आदि को किस पक्रार प्रभावित करता है? अतः स्पष्ट है कि बालक का पर्यावरण एक विशेष प्रभावकारी क्षेत्र है।

  बालकों की वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन-

बाल विकास में वैयक्तिक भिन्नताओं तथा इससे सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन भी किया जाता हैं | व्यक्तिगत भेदों की दृष्टि से निम्नलिखित तथ्यों का अध्ययन किया जाता है- शरीर रचना सम्बन्धी भेद, मानसिक योग्यता सम्बन्धी भेद, सांवेगिक भेद, व्यक्तित्व सम्बन्धी भेद, सामाजिक व्यवहार सम्बन्धी भेद तथा भाषा विकास सम्बन्धी भेद आदि।

  मानसिक प्रक्रियाएँ- 

बाल विकास में बालक की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन भी किया जाता है जैसे- प्रत्यक्षीकरण, सीखना, कल्पना, स्मृति, चिन्तन, साहचर्य आदि। इन सभी मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन दो समस्याओं के रूप में किया जाता है। प्रथम यह कि विभिन्न आयु स्तरों पर बालक की यह विभिन्न मानसिक प्रक्रियाएँ किस रूप में पाई जाती है, इनकी क्या गति है आदि। द्वितीय यह कि इन मानसिक प्रक्रियाओं का विकास कैसे होता है तथा इनके विकास को कौन से कारक प्रभावित करते हैं। 

  बालक-बालिकाओं का मापन-

बाल-विकास के क्षेत्र में बालकों की विभिन्न मानसिक और शारीरिक मापन तथा मूल्याकंन से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन भी किया जाता है। मापन से तात्पर्य है कि इन क्षेत्रों में उसकी समस्याएं क्या है और उनका निराकरण कैसे किया जा सकता है?

  बाल व्यवहार और अन्तःक्रियाएँ- 

बाल विकास के अध्ययन क्षेत्र में अनेक प्रकार की अन्तःक्रियाओं का अध्ययन भी होता है। बालक का व्यवहार गतिशील होता है तथा उसकी विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्यताओ और विशेषताओं में क्रमिक विकास होता रहता है। अतः स्वाभाविक है कि बालक और उसके वातावरण में समय-समय पर अन्तःक्रियाएँ होती रहें। एक बालक की ये अन्तःक्रियाएँ सहयोग, व्यवस्थापन, सामाजिक संगठन या संघर्ष, तनाव और विरोधी प्रकार की भी हो सकती है। बाल-मनोविज्ञान में इस समस्या का भी अध्ययन होता है कि विभिन्न विकास अवस्थाओं में बालक की विभिन्न अन्तःक्रियाओं में कौन-कौन से और क्या-क्या क्रमिक परिवर्तन होते हैं तथा इन परिवर्तनों की गतिशीलता किस पक्रार की है ? 

  समायोजन सम्बन्धी समस्याएँ-

बाल विकास में बालक के विभिन्न पक्रारकी समायोजन -समस्याओं का अध्ययन भी किया जाता है। साथ ही इस समस्या का अध्ययन भी किया जाता है कि भिन्न-भिन्न समायोजन क्षेत्रों (पारिवारिक समायोजन, संवेगात्मक समायोजन, शैक्षिक समायोजन, स्वास्थ्य समायोजन आदि) में भिन्न-भिन्न आयु स्तरोंपर बालक का क्या और किस प्रकार का समायोजन है। इस क्षेत्र में कुसमयोजित व्यवहार का भी अध्ययन किया जाता है।

  विशिष्ट बालकों का अध्ययन-

 जब बालक की शारीरिक और मानसिक योग्यताओऔर विशेषताओं का विकास दोषपूर्ण ढंग से होता है तो बालक के व्यवहार और व्यक्तित्व में असमान्यता के लक्षण उत्पन्न हो जाते है। बाल विकास में इन विभिन्न असमानताओं व इनके कारणों और गतिशीलता का अध्ययन होता है। विशिष्ट बालक की श्रेणी में निम्न बालक आते हैं- शारीरिक रूप से अस्वस्थ रहने वाले बालक, पिछड़े बालक, अपराधी बालक एवं समस्यात्मक बालक आदि। 

  अभिभावक बालक सम्बन्ध-

 बालक के व्यक्तित्व विकास के क्षेत्र में अभिवावकों और परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका है। अभिभावक-बालक सम्बन्ध का विकास, अभिभावक, बालक संबंधों के निर्धारक, पारिवारिक संबंधों में ह्रास आदि समस्याओं का अध्ययन बाल-विकास मनोविज्ञान के क्षेत्र के अंतर्गत किया जाता है। इस प्रकार हम कह सकते है कि गर्भावस्था से किशोरावस्था तक की सभी समस्याएँ बाल-विकास की परिसीमा या क्षेत्र में आती हैं।