शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

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"जयतुसंस्कृतम्"

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

 

शिव ताण्डव स्तोत्र
जटाटवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌ ॥१॥


जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥


धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥


जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥


सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥


ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिंगभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्‌।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥


करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥


नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥


प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥


अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।
स्मरांतकं पुरातकं भवांतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥


जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥


दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः सम प्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥१२॥


कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥


निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥


प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥१५॥


इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहिनांं सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥१६॥


पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मिंं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥


                             ॥ इति श्रीरावणकृतं शिव ताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

गुरुवार, 10 जून 2021

देववाणीं वेदवाणीं मातरं वन्दामहे ।।

 

देववाणीं वेदवाणीं मातरं वन्दामहे

देववाणीं वेदवाणीं मातरं वन्दामहे । चिरनवीना चिरपुराणीं सादरं वन्दामहे ॥ ध्रु॥ दिव्यसंस्कृतिरक्षणाय तत्परा भुवने भ्रमन्तः । लोकजागरणाय सिद्धाः सङ्घटनमन्त्रं जपन्तः । कृतिपरा लक्ष्यैकनिष्ठा भारतं सेवामहे ॥ १॥ भेदभावनिवारणाय बन्धुतामनुभावयेम । कर्मणा मनसा च वचसा मातृवन्दनमाचरेम । कीर्तिधनपदकामनाभिर्विरहिता मोदामहे ॥ २॥ संस्कृतेर्विमुखं समाजं जीवनेन शिक्षयेम । मानुकूलादर्शं वयं वै पालयित्वा दर्शयेम । जीवनं संस्कृत हितार्थं ह्यर्पितं मन्यामहे ॥ ३॥ वयमसाध्यं लक्ष्यमेतत् संस्कृतेन साधयन्तः । त्यागधैर्यसमर्पणेन नवलमितिहासं लिखन्तः । जन्मभूमिसमर्चनेन सर्वतः स्पन्दामहे ॥ ४॥ भारताः सोदराः स्मो भावनेयं हृदि निधाय । वयं संस्कृतसैनिकाः सज्जीता नैजं विहाय । परमवैभवसाधनाया वरमहो याचामहे ॥ ५॥ देववाणीं वेदवाणीं मातरं वन्दामहे चिरनवीनां चिरपुराणीं सादरं वन्दामहे ॥



अवनितलं पुनरवतीर्णा स्यात्

 

अवनितलं पुनरवतीर्णा स्यात्

अवनितलं पुनरवतीर्णा स्यात् संस्कृतगङ्गाधारा । धीरभगीरथवंशोऽस्माकं वयं तु कृतनिर्धाराः ॥ निपततु पण्डितहरशिरसि प्रवहतु नित्यमिदं वचसि प्रविशतु वैयाकरणमुखं पुनरपि वहताज्जनमनसि पुत्रसहस्रं समुद्धृतं स्यात् यान्तु च जन्मविकाराः ॥ ग्रामं ग्रामं गच्छाम संस्कृतशिक्षां यच्छाम सर्वेषामपि तृप्तिहितार्थं स्वक्लेशं न हि गणयेम कृते प्रयत्ने किं न लभेत एवं सन्ति विचाराः ॥ या माता संस्कृतिमूला यस्या व्याप्तिस्सुविशाला वाङ्मयरूपा सा भवतु लसतु चिरं सा वाङ्माला सुरवाणीं जनवाणीं कर्तुं यतामहे कृतिशूराः ॥ - डाॅ नारायणभट्टः

गरुडगमनस्तुतिः।

गरुडगमनस्तुतिः।


              गरुडगमन तव चरणकमलमिह मनसि लसतु मम नित्यम्

मनसि लसतु मम नित्यम् ।
मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ ध्रु.॥

जलजनयन विधिनमुचिहरणमुख विबुधविनुत-पदपद्म
मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ १॥

भुजगशयन भव मदनजनक मम जननमरण-भयहारिन्
मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ २॥

शङ्खचक्रधर दुष्टदैत्यहर सर्वलोक-शरण
मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ ३॥

अगणित-गुणगण अशरणशरणद विदलित-सुररिपुजाल
मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ ४॥

भक्तवर्यमिह भूरिकरुणया पाहि भारतीतीर्थम्
मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ ५॥

इति जगद्गुरु श‍ृङ्गेरी पीठाधिपति भारतीतीर्थस्वामिना विरचितं महाविष्णुस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।