सोमवार, 25 मार्च 2024

मुद्राराक्षस की संक्षिप्त कथा

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                              मुद्राराक्षस की संक्षिप्त कथा 




यह 6 अंको का राजनीति - विषयक नाटक है। इसमें मुद्रा (अंगूठी) के द्वारा राक्षस को वश में करने का वर्णन है, अत: इसका नाम मुद्राराक्षस पड़ा। इसमे चाणक्य ने, नंदवंश का नाश किया है और अपनी कूटनीतिक चालों से नन्दवंश के मुख्य मंत्री राक्षस को वह चन्द्रगुप्त का मुख्य मंत्री बना देता है। क्योंकि बिना राक्षस को नियंत्रित किये चन्द्रगुप्त का राज्य स्थिर नहीं हो सकता।


अंक प्रथम चाणक्य स्वयं नन्द्रवंश के नाश की प्रतिज्ञा करते हैं, और नन्द्रवंश के मुख्यमंत्री  राक्षस को अपने वश में करके चन्द्रगुप्त का राज्य सुइट कमुख्य मंत्री बनाकर उसका कर ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं। विषानुसार योजनाएँ बनायी जाती हैं। चाणक्य के प्रयोग से मायकेत के पिता, पर्वतक की हत्या काता राष्ट्रमस ने एक राक्षस है और ने उसे मरवाया गुप्तचर प्रचार "करता है कि है। चाणक्य का जिसका नाम क्षपणक, जीवसिद्धि है का परम राक्षस के परम मित्र बन जाता है दो अन्य मित्र हैं- सेठ चन्दनदास एक जोहरी ओर शकटदास ( एक कायस्था । चाणक्य के एक गुप्तचर को झूठ चन्दनदास के घर स और वह चाणक्य, क्षसू की राक्षस कि एक अंगूठी मिल जाती उस चाणक्य का को दे देता है एक जाली पत्र लिखकर उस मुद्रा से है पेर मुहर लगाकर उन सभी में विद्रोह करा देता है। फिर उसी मुद्रा की सहायता से चन्दनदास (जाहरी) को फाँसी और शकटदास ( कायस्थ) को सपरिवार कारावास की सजा सुना देता हैं।

 

अंक द्वितीय - राक्षस के एक गुप्तचर द्वारा ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त  ' के वध की ' राक्षस की योजना असफल हो गयी हैं और उसके  ही आदमी मारे गए हैं। चाणक्य का ही एक व्यक्ति जिसका नाम सिद्धार्थक है वह शकटदास को बचाकर राक्षस का प्रेमपात्र, बनता है और उसके राक्षस की मुद्रा भी उसे लौटाता है। पश्चात् राक्षस के गुप्तचर के द्वारा चाणक्य और चंद्रगुप्त में मनमुटाव की सूचना राक्षस को दी गई है।


अंक तृतीय - राक्षस को धोखा देने के  लिए चन्द्रगुप्त और चाणक्य के बीच मे कृत्रिम कलह दिखाया जाता है। 'कौमुदी महोत्सव' मनाने की आज्ञा को चाणक्य रोक देता है। परन्तु चन्द्रगुप्त इस स्वीकार नहीं करता और आज्ञा को चन्द्रगुप्त द्वारा चाणक्य को बुलाया जाने पर, चाणक्य कृत्रिम (नकली) कोध करता है और मन्त्री पद से त्याग पत्र प्रस्तुत करता है। राक्षस के गुप्तचर इस घटना को वास्तविक कलह समझते हैं।


अंक चतुर्थ - राक्षस का गुप्तचार सुचना देता है कि चन्द्रगुप्त, और चाणक्य के बीच मन मुटाव हो गया है और चंद्रगुप्त ने चाणक्य को मन्त्रिपद से हटा दिया है। मलयकेतु को विश्वास, हो जाता है कि राक्षस चाणक्य से क्रुद्ध हैं चन्द्रगुप्त से नहीं अतः राक्षस और मलयकेतु चंद्रगुप्त पर आक्रमण करने की योजना बनाते हैं।


अंक-पंचम - चाणक्य अपनी करनीति के द्वारा  राक्षस और मलयकेतु में फुट डालने में समर्थ होता है। चाणक्य   ने शकटदास से एक पत्र लिखवाया जिसमे चन्द्रगुप्त को राजा बनाने की बात लिखी और उस पर राक्षस की मुद्रा लगाकर उसे राक्षस के अन्य मित्रा के पास भेजा। राक्षस का कपटी मित्र सिद्धार्थक उसे ले जाता है। चाणक्य ने पर्वतश्वर के आभूषण गुप्तचरों के द्वारा राक्षस को ही बेच दिया। और जब वह आभूषण राक्षस के पास मिले तो इससे मलयकेतु को विश्वास हो जाता है कि राक्षस ने ही उसके पिता पर्वतेश्वर की हत्या की है।


अंक षष्ठ - अमात्य राक्षस मलयकेतु के सैन्य शिविर से निकल कर पहना आ जाता है। चाणक्य के आदेशानुसार दो व्यक्ति चन्दनदास को पकड़कर वध्यभूमि ले जाते हैं। 'चाणक्य के एक गुप्तचर से राक्षस को कि  सूचना मिलती है कि चन्दनदास को फांसी दी जा रही है। चंदनदास को फाँसी देने के लिए वध्र्यभूमि की ओर ले जाया जा रहा है। आमात्य राक्षसवहाँ पहुँच कर अपने परम मित्र चन्दनदास के प्राणों की रक्षा के लिए आत्म- समर्पण करता है। चाणक्य इस शर्त पर चन्दनदास को छोड़ने के लिए तैयार होता कि राक्षस चन्द्रगुप्त का अमात्य बन जाए। राक्षस तैयार हो जाता है।

 इस प्रकार चाणक्य की कूटनीतिक चाल से राक्षस जैसा अमात्य चंद्रगुप्त के राज्यसभा की सोभा को गौरवान्वित करता है। 

पंचतन्त्र

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पञ्चतन्त्र इतिहास में सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय कथाग्रन्थ हैं। इसकी कथाएँ सभी वर्गों के लोगो को रूचिकर और प्रिय लगती हैं।पञ्चतन्त्र के लेखक का नाम विष्णुशर्मा हैं।

पंचतंत्र का समय इतिहासकारों केअनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य (३४५ ई० पू० - ३०० ई० पू०) के समकालीन माना गया है। इस प्रकार इसके लेखन का समय ३०० ५ ई० पू० के लगभग होगा। प्रो० हर्टल इसका समय लगभग २०० ई० पू० मानते हैं। डा. हर्टल और प्रो० एडगर्तत ने पंचतन्त्र के मूलरूप के लिए बहुत परिश्रम किया है।


पंचतंत्र की कथा और शैली :-

\महिलारोप्य, के राजा अमर शक्ति के तीन मूर्ख पूत्रों को को ६ मास में बुद्धिमान तथा राजनीतिक विद्या में पारंगत बनाने का बीड़ा उठाकर विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र की रचना का कार्य प्रारंभ किया और अपनी प्रतिज्ञा को भी उन्होंने पूरा किया। पंचतन में ५ मुख्य कथाएं हैं। प्रत्येक कथा में अनेक अकथाएँ हैं।

प्रत्येक तंत्र में एक-एक नीति - शिक्षा दी है।

तत्रों के नामादि इस प्रकार हैं :-                             

                                                 अकथाएँ                   श्लोकसंख्या                   कथा

1-मित्रभेद                                        22                         ४६१(461)             शेर और बैल की मित्रता तुडवाना

2- मित्रसंप्राप्ति                                 6                           १९९(199)          काक, कछुआ, मृग और चूहे की कहानी

3- काकोलूकीय                                16                          २५५ (255)          काक और उल्लू की कथा

 4- लब्धप्रणाश                                 11                          ८० (80)              बन्दर और मगर की कथा

5- अपरीक्षितकारक                         14                           ८८ (88)              ब्राहमणी और न्याले की कथा

मित्रभेद में यह ज्ञान दिया गया है कि किस प्रकार दो मित्रों में झगड़ा करा दिया जाए। शेर निगलक और बैल संजीवक घनिष्ट मित्र थे। करतक और दमनक नामक दो गीदड़ो ने उनमें फूट डाल दी और बैल की हत्या करवा दी।

 मित्रसंप्राप्ति में नीतिशिक्षा है कि अनेक उपयोगी मित्र बनाने चाहिए। कौआ, कछुआ, हिरन और चूहा साधनहीन होने पर भी मित्रता के बल पर सुखी रहे।

काकोलूकीय में नीति शिक्षा है कि स्वार्थसद्धि के लिए शत्रु से भी मित्रता कर ले और बाद में उसे धोखा देकर नष्ट कर दे  अर्थात् सन्धि-विग्रह की शिक्षा। कौआ उल्लू 'से मित्रता कर लेता है और बाद में उल्लू के किले में आग लगा देता है।

लब्ध-प्रणाश में नीतिशिक्षा है कि वुद्धिमान् बुद्धि-बल में जीत जाता है और मूर्ख हाथ में आई हुई वस्तु से भी हाथ खो बैठता है। बन्दर और मगर की मित्रता होती है। मगर की पत्नी बन्दर का मीठा दिल चाहती है। बन्दर मगर से यह कहकर जान बचाता है कि मेरा दिल पेड़ पर छूट गया है, अत: किनारे पहुँचा दो। बदर भाग जाता है और मगर मूँह ताकता रह जाता है। हाथ में आई हुई वस्तु भी मुर्खता से हाथ से निकल जाती है। 

अपरीक्षित-कारक की नीति शिक्षा है कि बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताए। ब्राह्मणी ने अपने प्रिय तथा सर्प से शिशु की रक्षा करने वाले नेवले की चट समझ कर हत्या कर दी कि उसने बच्चे को मार डाला है। वह बिना विचारे काम करने से बाद में पछताती है।

पंचतन्त्र का विश्वव्यापी प्रचार

पशुकथा के माध्यम से राजनीति की शास्त्र शिक्षा देने के कारण पंचतन्त्र का विश्वव्यापी प्रचार हुआ है। बाइबिल के बाद इसका ही संसार में सबसे अधिक प्रचार है। इसके लगभग २५० संस्करण विश्व की ५० से अधिक भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से तीन-चौथाई भाषाएँ भारत से बाहर की हैं। एशिया और यूरोप में ही नहीं, अपितु अन्य महाद्वीपों में भी इसका प्रचार प्रसार है।

कादम्बरी की कथा

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कादंबरी की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है।

विदिशा नगरी के राजा थे शुद्रक,जो अत्यंत प्रतापी और कलाविद् थे ।एक दिन प्रातः वे अपनी राज्यसभा में बैठे थे तभी प्रतिहारी ने आदेश प्राप्त कर एक चांडाल कन्या को सभा में प्रवेश कराया । चांडाल कन्या के हाथ में सोने का पिंजरा था ,जिसमें वैशंपायन नाम का शुक था। शुक़ ने अपना दाहिना चरण उठाकर श्लोक द्वारा राजा का अभिवादन किया।
शुक द्वारा राजा शूद्रक के समक्ष कथा का आरंभ - इस शुक के विषय में राजा को महान कौतूहल हुआ और चांडाल कन्या तथा शुक के भोजन एवं विश्राम कर लेने को कहा। शुक ने अपनी कथा सुनाई और बताया कि वह विंध्याटवी में अपने वृद्ध पिता के साथ रहता था ,एक बहेलिए ने अन्य शुकों के साथ उसके पिता का वध कर दिया और नीचे फेक दिया।पिता के पंखों के भीतर छिपकर वह भी नीचे गिरा, किन्तु बच गया।

अपने प्राण बचाने के लिए वह झाड़ियों में छिप गया और बहालिए के जाने के बाद उस मार्ग से जाने वाले ऋषिकुमार हारित उसे दयावश अपने साथ ले कर महर्षि जबिल के आश्रम आये। जाबिल ने अपने शिष्यों को शुक के पूर्व जन्म की कथा कुछ इस प्रकार सुनाई।

जाबिल द्वारा आश्रम के शिष्यों के समक्ष शुक के पूर्वजन्म तथा चंद्रापीड की कथा सुनाना -

उज्जैनी में तारा पीड नाम के राजा थे। उनकी महारानी का नाम विलास्वती था। राजा के महामंत्री का नाम शुकनास और महामंत्री की पत्नी का नाम मनोरमा था।

बहुत दिनों की पूजा अर्चना के बाद राजा तरापीड को पुत्र की प्राप्ति हुई और उसी दिन शूकनास के यहां भी

एक पुत्र ने जन्म लिया ।राजा के पुत्र का नाम चंद्रापी़ड तथा शुखनास के पुत्र का नाम वैशंपायन रखा गया।

दोनों ने साथ साथ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की। चंदरापीड के गुरुकुल से लौटने पर पिता तारापीड ने उसका युवराजयाभिषेक किया। इस अवसर के पूर्व चंद्रापीड मंत्री शुकनास के पास गया और शुकनास ने एक सारगर्भित उपदेश दिया,जो शुकनासोपदेश नाम से प्रसिद्ध है।अभिषेक के बाद चंद्रापीड दिग्विजय यात्रा पर निकला। अनेक राजाओं को परास्त कर वह हिमालय के निकट विश्राम करने के लिए रुका। एक दिन शिकार खेलने के लिए निकलने पर उसने किन्नर

मिथुन को देखा और उत्सुकता वश उनका पीछा करते हुए बहुत दूर निकल गया।किन्नर मिथुन अदृश्य हो गए ,तब जल की खोज में वह अच्छोद सरोवर के पास पहुंचा। वहां जल पीकर अपने अश्व को बांधकर विश्राम करने लगा तभी उसे वीणा की ध्वनि सुनाई पड़ी, जिसकी खोज करते हुए उसने सरोवर के तट पर स्थित शिव के मंदिर में वीणा बजाकर स्तुति करती हुई एक युवती को देखा।उसे देखकर वह चकित हुआ। युवती उसे अपने आश्रम में ले गई और उसने फल आदि से चंद्रापीड का सत्कार किया। चंद्रापीद के आदरपूर्वक प्रश्न करने पर उस युवती ने, जिसका नाम महाश्वेता था, अपनी कथा इस प्रकार सुनाई।



महाश्वेता द्वारा अपनी कथा सुनाना -

महाश्वेता ने बताया कि वह गंधर्व राज हंस तथा गौरी नाम की अप्सरा की पुत्री हैं।एक दिन वह माता के साथ सरोवर पर अाई तो उसे पुष्प की अद्भुत गन्ध मिली तब उसने एक ऋषिकुमार को देखा जिनके कान के ऊपर अद्भुत गन्ध वाला पुष्प था। साक्षात्कार होते ही दोनों एक दूसरे की ओर प्रेम से आकृष्ट हो गए। ऋषिकुमार का नाम पुंडरीक था। उसके साथ उसका मित्र कपिंजल था। महाश्वेता पुंडरीक से पुष्प लेकर अपने भवन चली आयी, किन्तु पुंडरीक उसके विरह में अतिशय संतप्त हो उठे ।कपिंजल ने महाश्वेता से मिलकर आग्रह किया कि अविलंब पुंडरीक से मिलकर उसके प्राणों को बचा लीजिए।रात्रि को जब उपयुक्त समय देखकर महाश्वेता सरोवर के पास पहुंची तब तक पुंडरीक के जीवन का अंत हो चुका था। महाश्वेता पुंडरीक के शरीर से लिपट कर विलाप करने लगी। उसी समय चंद्रमंडल से एक दिव्य पुरुष निकला और पुंडरीक के शव को लेकर आकाश में चला गया। जाते - जाते उसने महाश्वेता से कहा इससे तुम्हारा अवश्य मिलन होगा। तब से महाश्वेता अपने प्रियतम से मिलने की आशा में भगवान शिव की आराधना में लगी हुई है।



कादंबरी की कथा-

रात्रि में विश्राम के समय महाश्वेता ने चंद्रापीड से अपनी सखी कादंबरी के विषय में बताया कि कादंबरी के विषय में बताया कि कादंबरी गंधर्वराज चित्ररथ की पुत्री है और अपने माता-पिता के बार - बार कहने पर भी विवाह के लिए सहमत नहीं हो रही है। दूसरे दिन महाश्वेता चंद्रापीड को साथ लेकर कादम्बरी से मिलने चली गई। वहां चंद्रापीड को साथ लेकर कादंबरी से मिलने गई। वहां चंद्रापीड और कादंबरी में बातें हुई और वे परस्पर प्रगाढ़ प्रेमबंधन में बन्ध गए।
   कादंबरी से मिलकर वापस महाश्वेता की कुटी में आने पर चंद्रपीड को अपनी सेना मिली और पिता का पत्र मिला, जिसमें उसे तत्काल राजधानी बुलाया गया था। चंद्रापीड ने अपनी पानवाली पत्रलेखा को कादंबरी के पास भेजा और स्वयं राजधानी की ओर चला गया। कुछ दिन बाद पत्रलेखा जब लौटकर राजधानी पहुंची तो उसने चंद्रापीड से कादंबरी की विरहदशा का वर्णन किया।

चंद्रापीड को उसी समय यह सूचना मिली कि उसका मित्र वैशंपायन जो महामंत्री शुकनास का पुत्र था अच्छोद सरोवर में स्नान करने के बाद वहां से लौटना नहीं चाहता, वह वहीं पागल की तरह कुछ ढूंढ़ रहा है।

चंद्रापीड उसे वापस ले आने के लिए चल पड़ा।जब वह महाश्वेता की कुटी में पहुंचा तो उसे रोते हुए पाया। महाश्वेता ने बताया कि एक ब्राह्मण युवक उसके पास आकर प्रणय निवेदन करने लगा, जिस पर कुपित हो कर उसने उसे शुक बनने का शाप दे दिया। वह शुक बन गया तब उसे पता चला कि वह चंद्रपीड का मित्र वैसंपायन था। अपने मित्र से बिछुरने और कादंबरी से मिलने की संभावना होने की दु:ख में चंद्रापीड भी तत्काल निर्जीव होकर भूमि पर गिर पड़ा। उधर कादंबरी यह सुनकर की चंद्रापीड महाश्वेता की कुटी में आए हैं बड़ी आशा से मिलने के लिए अायी, किन्तु उसे उसका शव ही मिला। परम दु:ख से व्यथित होकर वह सती होने के लिए उद्यत हुई, किन्तु एक आकाशवाणी ने उसे आश्वस्त किया कि उसका चंद्रापीड से मिलन होगा। वह चंद्रापीड के मृत शरीर की रखवाली करने लगी। उसी समय पत्रलेखा चंद्रापीड के अश्व को लेकर सरोवर में कूद गई। कुछ समय बाद सरोवर में से एक ब्राह्मण युवक निकला, जो पुंडरीक का मित्र कपिञ्जल था। उसने महाश्वेता को बताया कि पुंडरीक पृथ्वी पर वैसम्पायन शुक के नाम से उत्पन्न हुआ है और वह भी एक ऋषि के शाप से इंद्रायुध नाम का आश्व बन गया था। उसी ने महाश्वेता से यह भी बताया कि उसने जिसे शुक बन जाने शाप दिया था वो और कोई नहीं पुंडरीक था, तब महाश्वेता छाती पीट-पीट कर रोने लगी। कपिञ्जल ने उसे अश्वासन दिया कि अब उसके दुखों का अंत निकट है और वह स्वयं आकाश में चला गया। अपने पुत्रों के मृत्यु का समाचार जानकर राजा तारापीद, महारानी विलास्वाती और महामंत्री ‍‍शुकनास

और उनकी पत्नी मनोरमा भी उस स्थान पर आए। तारपीड वहीं तपस्या में लग गए। मूर्छित कादंबरी होश में आई और चंद्रापीड के शरीर की सेवा में लग गई।



शुक का राजा शुद्रक़ से अपने विषय में बताया -

राजा शुद्रक के समीप चांडालकन्या द्वारा लाए गए शुक ने राजा से अपने विषय में आगे की कथा इस प्रकार बताई - महर्षि जाबिल ने जब अपने शिष्यों को मुझसे संबद्ध जा कथा सुनाई उसे मुझे अपना पूर्वजन्म स्मरण हो आया और मुझे यह ज्ञात हो गया कि मैं ही महामंत्री शुकनास का पुत्र वैशंपायन हूं। जब मेरे पंख निकल आए तब मैं अपने मित्र चंद्रापीड को ढूंढने निकला, किन्तु चांडाल द्वारा पकड़ लिया गया।



चांडाल कन्या द्वारा कथा को पूरी करना -

इसके बाद चांडाल कन्या ने राजा को बताया कि राजा को बताया कि राजा शुद्रक ही चंद्रापीड है। वह स्वयं लक्ष्मी है और वैशंपायन उसका पुत्र है। राजा शुद्रक को अपना पूर्व जन्म याद हो आया। उधर महाश्वेता की कुटी में वसंत छा गया और कादंबरी ने जैसे ही चंद्रापीड के शरीर का आलिंगन किया वह ऐसे जीवित हो उठा जैसे नींद से जागा हो। उसी समय शूद्रक ने भी अपना शरीर त्याग दिया। महाश्वेता की कुटी में कुछ ही क्षण में पुंडरीक अपने मुनिकुमार वाले रूप में प्रकट हुआ और उसका महाश्वेता से मिलन हो गया। सर्वत्र आनंद छा गया।

                     इस प्रकार इस कथा का नायक है चंद्रापीड और नायिका है कादंबरी। सहनायक और सहनायिका हैं - पुंडरीक और महाश्वेता। यह तीन जन्मों को मिली जुली कहानी है,जिसका अधिकांश भाग शुक द्वारा महर्षि ज़ाबिल की कथा के अनुसार शुद्रक से कहा जाता है।

                कादंबरी के आरंभ में बाण ने बीस पद्यों में मंगलाचरण सज्जन की प्रशंसा और दुर्जन की निन्दा, अपने वंश के पूर्वजों का आलंकारिक एवं मनोरम वर्णन, तथा कथा के गुणों का उल्लेख किया है। चंद्रापीड की तांबूल करक वाहिनी पत्रलेखा, जो चंद्रापीड के चले आने पर भी कादंबरी के पास रह गई थी, लौटकर चंद्रापीड की राजधानी आती है इस वर्णन के साथ ही कादंबरी कथा का पूर्वभाग समाप्त होता है।