शनिवार, 21 जून 2025

पञ्चाङ्गम्

sanskritpravah

🔥 ‼️II #पञ्चाङ्गम् II ‼️🔥
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#हिन्दू_पञ्चाङ्ग से आशय उन सभी प्रकार के पञ्चाङ्गों से है जो परम्परागत रूप प्राचीन काल से भारत में प्रयुक्त होते आ रहे हैं। ये चान्द्रसौर प्रकृति के होते हैं। सभी हिन्दू पञ्चाङ्ग, कालगणना की समान संकल्पनाओं और विधियों पर आधारित होते हैं किन्तु मासों के नाम, वर्ष का आरम्भ (वर्षप्रतिपदा) आदि की दृष्टि से अलग होते हैं।
भारत में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख पञ्चाङ्ग ये हैं :-
(१) #विक्रमी_पञ्चाङ्ग - यह सर्वाधिक प्रसिद्ध पञ्चाङ्ग है जो भारत के उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भाग में प्रचलित है।
(२) #तमिल_पञ्चाङ्ग - दक्षिण भारत में प्रचलित है,
(३) #बंगाली_पञ्चाङ्ग - बंगाल तथा कुछ अन्य पूर्वी भागों में प्रचलित है।
(४) #मलयालम_पञ्चाङ्ग - यह केरल में प्रचलित है और सौर पंचाग है।
#हिन्दू_पञ्चाङ्ग का उपयोग भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीन काल से होता आ रहा है और आज भी भारत और नेपाल सहित कम्बोडिया, लाओस, थाईलैण्ड, बर्मा, श्री लंका आदि में भी प्रयुक्त होता है। हिन्दू पञ्चाङ्ग के अनुसार ही हिन्दुओं/बौद्धों/जैनों/सिखों के त्यौहार होली, गणेश चतुर्थी, सरस्वती पूजा, महाशिवरात्रि, वैशाखी, रक्षा बन्धन, पोंगल, ओणम ,रथ यात्रा, नवरात्रि, लक्ष्मी पूजा, कृष्ण जन्माष्टमी, दुर्गा पूजा, रामनवमी, विसु और दीपावली आदि मनाए जाते हैं।

🔥II #पञ्चाङ्गम् II पञ्चाङ्गम् परम्परागत भारतीय कालदर्शक है जिसमें समय के हिन्दू ईकाइयों (वार, तिथि, नक्षत्र, करण, योग आदि) का उपयोग होता है। इसमें सारणी या तालिका के रूप में महत्वपूर्ण सूचनाएँ अंकित होतीं हैं जिनकी अपनी गणना पद्धति है। अपने भिन्न-भिन्न रूपों में यह लगभग पूरे नेपाल और भारत में माना जाता है। असम, बंगाल, उड़ीसा, में पञ्चाङ्गम् को 'पञ्जिका' कहते हैं।

'#पञ्चाङ' का शाब्दिक अर्थ है, 'पाँच अङ्ग' (पञ्च + अङ्ग)। अर्थात पञ्चाङ्ग में वार, तिथि, नक्षत्र, करण, योग - इन पाँच चीजों का उल्लेख मुख्य रूप से होता है। इसके अलावा पञ्चाङ से प्रमुख त्यौहारों, घटनाओं (ग्रहण आदि) और शुभ मुहुर्त का भी जानकारी होती है।

गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं - पहली #चंद्र_आधारित, दूसरी #नक्षत्र_आधारित और तीसरी #सूर्य_आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है।

|| पञ्चाङ्ग श्रवण ||
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तिथिवारं च नक्षत्रं योग: करणमेव च।
यत्रैतत्पञ्चकं स्पष्टं पञ्चांङ्गं तन्निगद्यते।।
जानाति काले पञ्चाङ्गं तस्य पापं न विद्यते।
तिथेस्तु श्रियमाप्नोति वारादायुष्यवर्धनम्।।
नक्षत्राद्धरते पापं योगाद्रोगनिवारणम्।
करणात्कार्यसिद्धि:स्यात्पञ्चाङ्गफलमुच्यते।
पञ्चाङ्गस्य फलं श्रुत्वा गङ्गास्नानफलं लभेत्।।
~ तिथि, वार, नक्षत्र, योग, तथा करण-इन पाँचों का जिसमें स्पष्ट मानादि रहता है,उसे पंचांग कहते हैं। जो यथासमय पंचांग का ज्ञान रखता है, उसे पाप स्पर्श नहीं कर सकता। तिथि का श्रवण करने से श्री की प्राप्ति होती है, वार के श्रवण से आयु की वृद्धि होती है, नक्षत्र का श्रवण पाप को नष्ट करता है, योग के श्रवण से रोग का निवारण होता है, और करण के श्रवण से कार्य की सिद्धि होती है। यह पंचांग श्रवण का फल है। पंचांग के फल को सुनने से गंगा स्नान का फल प्राप्त होता है।

गणना के आधार पर हिंदू पंचांग :-
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√एक वर्ष में १२ महीने होते हैं। 
√प्रत्येक महीने में १५ दिन के दो पक्ष होते हैं;
 - शुक्ल और कृष्ण। 
√प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में २७ नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं। १२ मास का एक वर्ष और ७ दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। 
√महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। यह १२ राशियाँ बारह सौर मास हैं। 
√जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की #संक्रांति होती है। 
√पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। 
√चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से ११ दिन ३ घड़ी ४८ पल छोटा है। इसीलिए हर ३ वर्ष में इसमे एक महीना जोड़ दिया जाता है जिसे #अधिक_मास कहते हैं। 
√इसके अनुसार एक साल को बारह महीनों में बांटा गया है और प्रत्येक महीने में तीस दिन होते हैं। महीने को चंद्रमा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर दो पक्षों यानी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में विभाजित किया गया है। एक पक्ष में लगभग पंद्रह दिन या दो सप्ताह होते हैं। एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। 
√एक दिन को तिथि कहा गया है जो पंचांग के आधार पर उन्नीस घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक होती है। 
√दिन को चौबीस घंटों के साथ-साथ आठ पहरों में भी बांटा गया है। 
√एक प्रहर कोई तीन घंटे का होता है। 
√एक घंटे में लगभग दो घड़ी होती हैं, एक पल लगभग आधा मिनट के बराबर होता है और एक पल में चौबीस क्षण होते हैं। 
√पहर के अनुसार देखा जाए तो चार पहर का दिन और चार पहर की रात होती है।

🔥‼️[1] #तिथि‼️🔥
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हिन्दू काल गणना के अनुसार मास में ३० तिथियाँ होतीं हैं, जो दो पक्षों में बंटीं होती हैं। चन्द्र मास एक अमावस्या के अन्त से शुरु होकर दूसरे अमा वस्या के अन्त तक रहता है। अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र का भौगांश बराबर होता है। इन दोनों ग्रहों के भोंगाश में अन्तर का बढना ही तिथि को जन्म देता है। तिथि की गणना निम्न प्रकार से की जाती है।

#तिथि = चन्द्र का भोगांश - सूर्य का भोगांश / (Divideed by) 12.

🔥 #पक्ष : प्रत्येक महीने में तीस दिन होते हैं। तीस दिनों को चंद्रमा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर दो पक्षों यानी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में विभाजित किया गया है। एक पक्ष में लगभग पंद्रह दिन या दो सप्ताह होते हैं। एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्र की कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं।
i) शुक्ल पक्ष में १-१४ और पूर्णिमा
ii) कृष्ण पक्ष में १-१४ और अमावस्या

चंद्र मास में ३० तिथियाँ होती हैं, जो दो पक्षों में बँटी हैं। शुक्ल पक्ष में एक से चौदह और फिर पूर्णिमा आती है। पूर्णिमा सहित कुल मिलाकर पंद्रह तिथि। कृष्ण पक्ष में एक से चौदह और फिर अमावस्या आती है। अमावस्या सहित पंद्रह तिथि।

30 तिथियों के नाम निम्न हैं:- पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)। पूर्णिमा से अमावस्या तक 15 और फिर अमावस्या से पूर्णिमा तक 30 तिथि होती है। तिथियों के नाम 16 ही होते हैं।

पूर्णिमा के पर्व/व्रत :-
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कुछ मुख्य पूर्णिमा:- कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि।
चैत्र की पूर्णिमा के दिन हनुमान जयंती मनाई जाती है।

वैशाख की पूर्णिमा के दिन बुद्ध जयंती मनाई जाती है।
ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन वट सावित्री मनाया जाता है।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू-पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। 
इसी दिन कबीर जयंती मनाई जाती है।
श्रावण की पूर्णिमा के दिन रक्षाबन्धन का पर्व मनाया जाता है।
भाद्रपद की पूर्णिमा के दिन उमा माहेश्वर व्रत मनाया जाता है।
अश्विन की पूर्णिमा के दिन शरद पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।
कार्तिक की पूर्णिमा के दिन पुष्कर मेला और गुरुनानक जयंती पर्व मनाए जाते हैं।
मार्गशीर्ष की पूर्णिमा के दिन श्री दत्तात्रेय जयंती मनाई जाती है।
पौष की पूर्णिमा के दिन शाकंभरी जयंती मनाई जाती है। 
जैन धर्म के मानने वाले पुष्यभिषेक यात्रा प्रारंभ करते हैं। बनारस में दशाश्वमेध तथा प्रयाग में त्रिवेणी संगम पर स्नान को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
माघ की पूर्णिमा के दिन संत रविदास जयंती, श्री ललित और श्री भैरव जयंती मनाई जाती है। 
माघी पूर्णिमा के दिन संगम पर माघ-मेले में जाने और स्नान करने का विशेष महत्व है।
फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन होली का पर्व मनाया जाता है।

अमावस्या के पर्व/व्रत :
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कुछ मुख्‍य अमावस्या:- भौमवती अमावस्या, मौनी अमावस्या, शनि अमावस्या, हरियाली अमावस्या, दिवाली अमावस्या, सोमवती अमावस्या, सर्वपितृ अमावस्या आदि। 
#शनिवार के दिन आने वाली अमावस्या को #शनिचरी अमावस्या कहते है I

वैशाख अमावस्या : इस तिथि के दिन सर्पदोष से मुक्ति पाने के लिए उज्जैन में पूजा करने का विधान है।
ज्येष्ठ अमावस्या : यह तिथि के दिन आप ज्योतिषाचार्य से शनिदोष निवारण का उपाय करा सकते हैं। इस दिन वट सावित्री की पूजा का भी प्रावधान है।
आषाढ़ अमावस्या : इस अमावस्या के दिन पितरों का तर्पण करते हैं उनकी आत्मा की शांति के लिए। इस दिन स्नान और दान का विशेष महत्व है।
श्रावण अमावस्या : इस तिथि को हरियाली अमावस्या के नाम से जानते हैं। इस तिथि को पितृकार्येषु अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है।
भाद्रपद अमावस्या : इस तिथि को कुशाग्रहणी अमावस्या के नाम से जाना जाता है। इस दिन कुशा को तोड़कर रख लिया जाता है।
कार्तिक अमावस्या : इस तिथि के दिन दीपों का दीपावली पर्व मनाया जाता हैं। इस दिन 14 वर्ष का वनवास पूरा करके श्री राम अयोध्या वापस लौटे थे।
मार्गशीर्ष अमावस्या  : इस तिथि को सोमवती अमावस्या के नाम से जाना जाता है।
माघ अमावस्या : इस तिथि को मौनी अमावस्या के रूप में जाना जाता है। इस दिन गंगा स्नान करके मौन धारण किया जाता है।
फाल्गुन अमावस्या, अश्विन अमावस्या, चैत्र अमावस्या : इस अमावस्या को पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। इस दन दान, तर्पण और श्राद्ध किया जाता है।

वैदिक लोग वेदांग ज्योतिषके आधार पर तिथिको अखण्ड मानते है। क्षीण चन्द्रकला जब बढने लगता है तब अहोरात्रात्मक तिथि मानते है। जिस दिन चन्द्रकला क्षीण होता उस दिन अमावास्या माना जाता है। उसके के दूसरे दिन शुक्लप्रतिपदा होती है। एक सूर्योदय से अपर सूर्योदय तक का समय जिसे वेदाें में अहोरात्र कहा गया है उसी को एक तिथि माना जाता है। प्रतिपदातिथिको १, इसी क्रमसे २,३, ४,५,६,७,८,९,१०,११,१२, १३, १४ और १५ से पूर्णिमा जाना जाता है। इसी तरह पूर्णिमा के दूसरे दिन कृष्णपक्ष का प्रारम्भ होता है और उसको कृष्णप्रतिपदा (१)माना जाता है इसी क्रम से २,३,४,५,६,७,८,९,१०,११,१२, १३,१४ इसी दिन चन्द्रकला क्षीण हो तो कृष्णचतुर्दशी टुटा हुआ मानकर उसी दिन अमावास्या मानकर दर्शश्राद्ध किया जाता है और १५वें दिन चन्द्रकला क्षीण हो तो विना तिथि टुटा हुआ पक्ष समाप्त होता है। नेपाल में वेदांग ज्योतिष के आधार पर "वैदिक तिथिपत्रम्" (वैदिक पंचांग) व्यवहारमे लाया गया है। सूर्य सिद्धान्त के आधार के पंचांगाें के तिथियां दिन में किसी भी समय आरम्भ हो सकती हैं और इनकी अवधि उन्नीस से छब्बीस घण्टे तक हो सकती है।

प्रतिपदा तिथि से लेकर विभिन्न तिथियों के भिन्न-भिन्न स्वामी होते हैं. इन तिथियों का स्वाभाव भी भिन्न होता है. जिस तिथि का जो स्वामी होता है वह तिथि उस इष्ट की पूजा, प्राणप्रतिष्ठा आदि के लिए अनुकूल होती है i                                   

तिथि  - स्वभाव  - स्वामी
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प्रतिपदा : वृद्धिप्रदायक- अग्नि
द्वितीया : शुभदा - ब्रह्मा
तृतीया : बलप्रदायक - गौरी
चतुर्थी  खला - गणेश
पंचमी : लक्ष्मीप्रदा  - नाग
षष्ठी : यशप्रदा - कार्तिकेय (सिद्धि देने वाली)
सप्तम : मित्रवत; मित्रा - सूर्य
अष्टमी : द्वंदवमयी - शिव
नवमी  उग्र - दुर्गा (आक्रामकता देने वाली)
दशमी : सौम्य - यम (शांत)
एकादशी : आनन्दप्रदा - विश्वेदेव (सुख देने वाली)
द्वादशी : यशप्रदा विष्णु
त्रयोदशी : जयप्रदा - कामदेव (विजय देने वाली)
चतुर्दशी : उग्र - शिव (आक्रामकता देने वाली)
पूर्णिमा : सौम्या - चन्द्रमा
अमावस्या : पितर (पूर्वज)

#आध्यात्मिक_विशेषता : सभी तिथियों की अपनी एक आध्यात्मिक विशेषता होती है जैसे :
अमावस्या 'पितृ पूजा' के लिए आदर्श होती है।
चतुर्थी गणपति की पूजा के लिए आदर्श होती है।
पंचमी आदिशक्ति की पूजा के लिए आदर्श होती है।
षष्टी 'कार्तिकेय पूजा' के लिए आदर्श होती है।
नवमी 'राम' की पूजा आदर्श होती है।
एकादशी व द्वादशी विष्णु की पूजा के लिए आदर्श होती है।
त्रयोदशी शिव पूजा के लिए आदर्श होती है।
चतुर्दशी शिव व गणेश पूजा के लिए आदर्श होती है।
पूर्णिमा सभी तरह की पूजा से सम्बन्धित कार्यकलापों के लिए अच्छी होती है।

👉 मन्वादी (मनुवादी) और युगादि तिथियाँ :
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जो तिथियाँ चार युगों सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और सतयुग के प्रारम्भ के समय चल रही थी उनको युगादि तिथियाँ कहते हैं. सतयुग के प्रारम्भ का समय कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी है, त्रेतायुग के प्रारम्भ का समय वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया है, द्वापरयुग के प्रारम्भ का समय माघ माह की अमावस्या है और कलियुग के प्रारम्भ का समय भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी है, जो युगादि तिथियाँ कहलाती है I

प्रत्येक प्रलय के बाद जिस तिथि को पुनः सृष्टि का प्रारम्भ हुआ था वह तिथियाँ मन्वादि तिथियाँ कहलाती हैं. विभिन्न मनुओं के नाम और मन्वादि तिथियाँ निम्नलिखित हैं :-
👉 मनु का नाम मन्वन्तर के प्रारम्भ की तिथियाँ :-
स्वायम्भुव : चैत्रशुक्ल की तृतीया
स्वारोचिष : चैत्र पूर्णिमा
औत्तम, उत्तम : कार्तिक पूर्णिमा
तामस : कार्तिक शुक्ल द्वादशी
रैवत : आषाढ़ शुक्ल द्वादशी
चाक्षुष : आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा
#वैवस्वत : #ज्येष्ठ_शुक्ल_पूर्णिमा
सावर्णि : फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा
दक्षसावर्णि : आश्विन शुक्ल नवमी
ब्रह्मसावर्णि : माघ शुक्ल सप्तमी
धर्मसावर्णि : पौष शुक्ल त्रयोदशी
रूद्रसावर्णि : भाद्रपद शुक्ल तृतीया
देवसावर्णि : श्रावण माह की अमावस्या
इंद्रसावर्णि : श्रावण कृष्ण पक्ष की अष्टमी
 
वर्तमान समय में हम #वैवस्वत_मन्वन्तर में चल रहे हैं. ऊपर दी गई सभी युगादि और मन्वादी तिथियों को उपनयन, शिक्षा प्रारम्भ, विवाह, गृह निर्माण तथा गृहप्रवेश और यात्रा आदि के मुहूर्त में त्याग देना चाहिए. इन तिथियों में पवित्र नदियों में स्नान करना, दान देना तथा हवन करना आदि श्रेष्ठ कार्य शुभ माने गए हैं II

🔥 पांच प्रकार की होती हैं तिथियां, 
किसमें कौन-सा कार्य करना होता है शुभ :
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हिंदू शास्त्रों के अनुसार तिथियों को मुख्य रूप से पांच भागों में बांटा गया है। ये पांच भाग हैं नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा। क्रमानुसार पहली तिथि यानी प्रतिपदा होगी नंदा, द्वितीया भद्रा, तृतीया जया, चतुर्थी रिक्ता और पंचमी पूर्णा। इसके बाद पुनः षष्ठी नंदा, सप्तमी भद्रा.... इस तरह यह क्रम चलता रहेगा। किस तिथि में करें कौन सा कार्य 
i) #नंदा_तिथि: प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी नंदा तिथि कहलाती हैं। इन तिथियों में व्यापार-व्यवसाय प्रारंभ किया जा सकता है। भवन निर्माण कार्य प्रारंभ करने के लिए यही तिथियां सर्वश्रेष्ठ मानी गई हैं। 
ii) #भद्रा_तिथि: द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी भद्रा तिथि कहलाती हैं। इन तिथियों में धान, अनाज लाना, गाय-भैंस, वाहन खरीदने जैसे काम किए जाना चाहिए। इसमें खरीदी गई वस्तुओं की संख्या बढ़ती जाती है। 
iii) #जया_तिथि: तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी जया तिथियां कहलाती हैं। इन तिथियों में सैन्य, शक्ति संग्रह, कोर्ट-कचहरी के मामले निपटाना, शस्त्र खरीदना, वाहन खरीदना जैसे काम कर सकते हैं। 
iv) #रिक्ता_तिथि: चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी रिक्ता तिथियां कहलाती हैं। इन तिथियांें में गृहस्थों को कोई कार्य नहीं करना चाहिए। तंत्र-मंत्र सिद्धि के लिए ये तिथियां शुभ मानी गई हैं। 
v) #पूर्णा_तिथि: पंचमी, दशमी और पूर्णिमा पूर्णा तिथि कहलाती हैं। इन तिथियों में मंगनी, विवाह, भोज आदि कार्यों को किया जा सकता है। 
vi) #शून्य_तिथि : उपरोक्त पांच प्रकार की तिथियों के अलावा कुछ तिथियों को शून्य तिथि माना गया है। इन तिथियों में विवाह कार्य नहीं किए जाते हैं। बाकी अन्य कार्य किए जा सकते हैं। ये तिथियां हैं चैत्र कृष्ण अष्टमी, वैशाख कृष्ण नवमी, ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, आषाढ़ कृष्ण षष्ठी, श्रावण कृष्ण द्वितीया और तृतीया, भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा एवं द्वितीया, आश्विन कृष्ण दशमी और एकादशी, कार्तिक कृष्ण पंचमी एवं शुक्ल चतुर्दशी, अगहन कृष्ण सप्तमी व अष्टमी, पौष कृष्ण चतुर्थी एवं पंचमी, माघ कृष्ण पंचमी और माघ शुक्ल तृतीया।

🔥‼️[2] #वार‼️🔥
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एक वर्ष में बारह महीने होते है, महीने में चार सप्ताह होते है एवं सप्ताह में सात दिन होते है। '#वार' शब्द का अर्थ #अवसर_होता_है; #अर्थात #नियमानुसार_प्राप्त_समय। तद्नुसार '#वार' शब्द का प्रकृत अर्थ यह होता है कि जो #अहोरात्र {सूर्योदय से आरम्भ कर 24 घण्टे अथवा 60 घटी अर्थात पुनः सूर्योदय होने तक} जिस ग्रह के लिए नियमानुसार प्राप्त होता है #अर्थात जो ग्रह जिस अहोरात्र का स्वामी है उसी ग्रह के नाम से वह अहोरात्र अभिहित होता है। उदाहरणार्थ जिस अहोरात्र का स्वामी रवि है वह रविवार एवं जिस अहोरात्र का स्वामी सोम है वह सोमवार इत्यादि होगा। यह खगोल में ग्रहों की स्थिति के अनुसार नहीं है।

एक सप्ताह में सात दिन होते हैं:- सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार और रविवार उपरोक्त दर्शाए गये सप्ताह के सात वार मूलतः अंग्रेजी {ग्रेगोरियन} कैलेंडर की देन हैं इनका भारतीय पञ्चाङ्ग में समावेश कब हुआ ये जानकारी अज्ञात है। वार की गणना मध्यरात्रि के आधार पर की जाती है जबकि भारतीय पञ्चाङ्ग की गणना का आधार सूर्य तथा चंद्र की गति हैं।

👉 ऋग्वेद ज्योतिष : यद्यपि ऋग्वेद ज्योतिष में वारो का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। किन्तु अथर्व ज्योतिष में स्पष्ट रूप से वाराधिपों का उल्लेख किया गया है। 
आदित्य सोमो भौमश्च तथा बुधबृहस्पती I
शनैश्चरश्चैव एते सप्तदिनाधिपाः II
#अर्थात - आदित्य, सोम, भौम, बुध, बृहस्पति, भार्गव अर्थात शुक्र एवं शनि ये क्रमशः वारों के स्वामी होते हैं।

सामान्यत: सप्ताह या हफ्ता सात लगातार दिनों से मिलकर बनता है। एक माह में चार सप्ताह होते हैं और एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। एक सप्ताह या हफ़्ते में सात दिन होते हैं। हिन्दी में ये निम्न नामों से पुकारे जाते हैं।सप्ताह के प्रत्येक दिन पर नौ ग्रहों के स्वामियों में से क्रमश: पहले सात का राज चलता है. जैसे :-
i) #रविवार पर सूर्य का राज चलता है। 
ii) #सोमवार पर चन्द्रमा का राज चलता है। 
iii) #मंगलवार पर मंगल का राज चलता है। 
iv) #बुधवार पर बुध का राज चलता है। 
v) #बृहस्पतिवार पर गुरु का राज चलता है। 
vi) #शुक्रवार पर शुक्र का राज चलता है। 
vii) #शनिवार पर शनि का राज चलता है। 
अन्तिम दो राहु और केतु क्रमश: मंगलवार और शनिवार के साथ सम्बन्ध बनाते हैं।

🔥 #पूर्ण_अहोरात्र : खगोलीय क्रम के अनुसार ग्रहों की होरायें होती है न कि पूर्ण अहोरात्र। प्रत्येक होरा ढाई घटी अर्थात 60 मिनट की होती है। इस प्रकार अहोरात्र अर्थात 24 घण्टे में 24 होरायें होती है। इस क्रम में पहली होरा अहोरात्र के स्वामी की होती है बाद मे खगोलीय क्रम के अनुसार क्रमशः निम्नवर्ती ग्रह की होरा आती है। उदाहरणार्थ यदि प्रथम होरा रवि की हुई तो उस के निम्नवर्ती ग्रहों के अनुसार शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरू, मंगल की होरायें होगी। पचीसवें घण्टे में अर्थात दूसरे दिन प्रातःकाल चन्द्र की होरा होगी। तदनुसार रविवार के दूसरे दिन चन्द्रमा की तीसरे दिन मंगल की, चैथे दिन बुध की, पाॅचवें दिन गुरू की, छठें दिन शुक्र की एवं सातवें दिन शनि की होरा और पुनः रवि की होरा होगी।

🔥 #अहोरात्र_का_स्वामी : निष्कर्ष यह है कि प्रातःकाल जिस ग्रह की होरा होती है, वही ग्रह उस अहोरात्र का स्वामी माना जाता है। अतः वह अहोरात्र उसी ग्रह का ‘‘वार'' माना जाता है। यहाॅ पर शंका हो सकती है कि उपर्युक्त क्रम मानकर यदि ऊपर से चला जाए तो प्रथम दिन शनिवार होना चाहिए एवं नीचे से चला जाये तो प्रथम दिन सोमवार होना चाहिए। किन्तु व्यवहार में रविवार को ही प्रथम वार माना जाता है। इसका समाधान भास्कराचार्य जी ने सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ में निम्न प्रकार से उल्लेख किया है- 
लंका नगर्यामुदयाच्च भानोस्तथैव वारो प्रथमो बभूव। 
मधोः सितोदेर्दिनमास-वर्ष-युगादिकानां युगपत् प्रवृत्तिः।। 
#अर्थात - लंका नगरी में सर्वप्रथम सूर्योदय रविवार को हुआ। अतः चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन, मास, वर्ष एवं युगादि की एक साथ प्रवृत्ति हुई। निष्कर्ष यह निकलता है कि काल गणना का आरम्भ ही रविार से हुआ है। अतः रविवार को ही प्रथम वार मानना युक्तिसंगत हैं।

🔥‼️[3] #नक्षत्र‼️🔥
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आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुड़े हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं।
🔹 #नक्षत्र_परिभाषा :-
- शतपथ ब्राह्मण" में 'नक्षत्र' शब्द का अर्थ न + क्षत्र अर्थात् 'शक्तिहीन' बताया गया है।
- 'निरूक्त' में इसकी उत्पत्ति 'नक्ष्' अर्थात् 'प्राप्त करना' धातु से मानी है। 'नक्त' अर्थात् 'रात्रि' और 'त्र' अर्थात् 'संरक्षक'।
- 'लाट्यायन' और 'निदान सूत्र' में महीने में 27 दिन माने गए हैं। 12 महीने का एक वर्ष है। एक वर्ष में 324 दिन माने गए हैं। नाक्षत्र वर्ष में एक महीना और जुड़ जाने से 354 दिन होते हैं। 'निदान सूत्र' ने सूर्य वर्ष में 360 दिन गिने हैं। इसका कारण सूर्य का प्रत्येक नक्षत्र के लिए 13 दिन बिताना है। इस तरह 13 x 27 = 360 होते हैं।
- चंद्रमा का नक्षत्रों से मिलन 'नक्षत्र योग' और ज्योतिष को 'नक्षत्र विद्या' कहा जाता है। अयोग्य ज्योतिषी को वराहमिहिर ने 'नक्षत्र सूचक' कहा है।

🔹 #नक्षत्रों_की_संख्या :-
निरुक्त - शब्दकोश के अनुसार- ‘नक्षत्र’ आकाश में तारा-समूह को कहते हैं। साधारणतः यह चंद्रमा के पथ से जुडे हैं, किंतु किसी भी तारा समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है, अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य है, नक्षत्रों की विस्तृत जानकारी अर्थववेद, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और वेदांग ज्योतिष में मिलती है। इसके अनुसार 27 नक्षत्रों और अभिजित का उल्लेख विभिन्न वेद, पुराण व उपनिषद में मिलता है। ग्रह और नक्षत्रों के आधार पर ही शुभ और अशुभ का निर्णय होता रहा है। 28 नक्षत्र ये हैं-

👉 1 से 14 : अश्विनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिरा आर्द्रा पुनर्वसु पुष्य अश्लेशा मघा पूर्वा फाल्गुनी उत्तरा फाल्गुनी हस्त चित्रा II
👉 15 से 28 : स्वाति विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूल पूर्वाषाढ़ा उत्तराषाढ़ा श्रवण धनिष्ठा शतभिषा पूर्वा भाद्रपद उत्तरा भाद्रपद रेवती अभिजित II

🔥[ 28वें नक्षत्र का नाम #अभिजित] : अभिजित भारतीय ज्योतिष में वर्णित एक नक्षत्र है। वर्तमान खगोलशास्त्र में वेगा नामक तारे को अभिजित की संज्ञा दी जाती है। तैत्तिरीय संहिता और अथर्ववेद में २८ नक्षत्रों का ज़िक्र है जिनमें अभिजित भी एक है। भचक्र में इसे सबसे अधोवर्ती नक्षत्र माना गया है।[2][3]२७ नक्षत्रों के वर्गीकरण में इसे उत्तराषाढ़ और श्रवण नक्षत्रों के बीच प्रक्षेपित किया जाता है। मुहूर्त के रूप में इसे दोपहर बारह बजे, दो घडी के लिए प्रतिदिन, माना जाता है। श्री राम का जन्म इसी मुहूर्त में हुआ माना जाता है।
नक्षत्र और नक्षत्र मास क्या है
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आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुड़े हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है।
हिंदू कालगणना का आधार नक्षत्र, सूर्य और चंद्र की गति पर आधारित है। इसमें नक्षत्र को समसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। तारों के समूह को नक्षत्र कहते हैं। हमारे आकाश या अंतरिक्ष में 27 नक्षत्र दिखाई देते हैं। 
नक्षत्र का पौराणिक महत्व
पुराणों में इन 27 नक्षत्रों की पहचान दक्ष प्रजापति की बेटियों के तौर पर है। इन तारों का विवाह सोम देव अर्थात चन्द्रमा के साथ हुआ था। चन्द्रमा को इन सभी रानियों में सबसे प्रिय थी रोहिणी, जिसकी वजह से चंद्रमा को श्राप का सामना भी करना पड़ा था। वैदिक काल से हीं नक्षत्रों का अपना अलग महत्व रहा है।
पुराणों के अनुसार ऋषि मुनियों ने आसमान का विभाजन 12 हिस्सों में कर दिया था, जिसे हम 12 अलग-अलग राशियों – मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक,धनु, मकर, कुम्भ, मीन – के नाम से जानते हैं। इसके और सूक्ष्‍म अध्‍ययन के लिए उन्होंने इसको 27 भागों में बांट दिया, जिसके बाद परिणामस्वरुप एक राशि के भीतर लगभग 2.25 नक्षत्र आते हैं। अगर देखा जाये तो चन्द्रमा अपनी कक्षा पर चलता हुआ पृथ्वी की एक परिक्रमा को 27.3 दिन में पूरी करता है। वैदिक ज्योतिषी के अनुसार चन्द्रमा प्रतिदिन तक़रीबन एक भाग (नक्षत्र) की यात्रा करता है। ज्योतिष शास्त्र में सही और सटीक भविष्यवाणी करने के लिए नक्षत्र का उपयोग किया जाता हैं।
नक्षत्र द्वारा किसी व्यक्ति के सोचने की शक्ति, अंतर्दृष्टि और उसकी विशेषताओं का विश्लेषण आसानी से किया जा सकता है और यहां तक ​​कि नक्षत्र आपकी दशा अवधि की गणना करने में भी मदद करता है। लोग ज्योतिषीय विश्लेषण और सटीक भविष्यवाणियों के लिए नक्षत्र की अवधारणा का उपयोग करते हैं। भारतीय ज्योतिषी में, नक्षत्र को चन्द्र महल भी कहा जाता है। वैदिक ज्योतिषी के अनुसार नक्षत्र पंचांग बहुत ही महत्वपूर्ण अंग होता है।
नक्षत्र और राशि के बीच क्या अंतर है?
यदि आप आकाश को 12 समान भागों में विभाजित करते हैं, तो प्रत्येक भाग को राशि कहा जाता है, लेकिन अगर आप आकाश को 27 समान भागों में विभाजित करते हैं तो प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहा जाता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि आकाश किसी भी वृत्तीय आकार की तरह 360 डिग्री का होता है। अब यदि हम 360 डिग्री को 12 भागों में बांटते हैं, तो हमें एक राशि चिन्ह 30 डिग्री के रूप में प्राप्त होता है। इसी प्रकार, नक्षत्रों के लिए, यदि हम 360 डिग्री को 27 भागों बांटते हैं, तो एक नक्षत्र 13.33 डिग्री (लगभग) के रूप में आती है। इसलिए, नक्षत्रों की कुल संख्या 27 और राशियों की कुल संख्या 12 होती है। अगर देखा जाये तो नक्षत्र एक छोटा सा हिस्सा है और राशि एक बड़ा हिस्सा होता है। किसी भी राशि चिन्ह में 2.25 (लगभग) नक्षत्र आते हैं।
नक्षत्र और नक्षत्र मास को जानने के पहले जानिए कि,
सौर मास और चंद्र मास क्या है?
[1] सौरमास:- सूर्य के राशि परिवर्तन को संक्रांति कहते हैं। सौर मास के नववर्ष की शुरुआत मकर संक्रांति से होती है। यह सौरमास प्राय: 30 दिन का होता है। मूलत: सौर वर्ष 365 दिन का होता है। सौरवर्ष के दो भाग है जिन्हें अयन कहते हैं। उत्तरायन और दक्षिणायन सूर्य। सूर्य जब धनु राशि से मकर में जाता है, तब उत्तरायन होता है। सूर्य मिथुन से कर्क राशि में प्रवेश करता है, तब सूर्य दक्षिणायन होता है। उत्तरायन के समय चन्द्रमास का पौष-माघ मास चल रहा होता है।
सौरमास के नाम:- मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्‍चिक, धनु, कुंभ, मकर, मीन।..ये सौरमास के महीनों के नाम है। इन्हें राशि भी कहते हैं। एक राशि में ढाई नक्षत्र भ्रमण करते हैं।
[2] चंद्रमास : चंद्रमा की कला की घट-बढ़ वाले दो पक्षों (कृष्‍ण और शुक्ल) का जो एक मास होता है वही चंद्रमास कहलाता है। चंद्रमास तिथि की घट-बढ़ के अनुसार 29, 30, 28 एवं 27 दिनों का भी होता है। कुल मिलाकर यह चंद्रमास 355 दिनों का होता है। सौर-वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है चंद्र-वर्ष इसीलिए हर 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है। सौरमास 365 दिन का होता है। सौर्य और चंद्र मास में 10 दिन का अंतर आता है। इन दस दिनों को चंद्रमास ही माना जाता है। फिर भी ऐसे बड़े हुए दिनों को 'मलमास' या 'अधिमास' कहते हैं।
चंद्रमास के नाम:- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन।
चंद्र महीनों के नाम पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है :-
1. चैत्र : चित्रा, स्वाति।
2. वैशाख : विशाखा, अनुराधा।
3 .ज्येष्ठ : ज्येष्ठा, मूल।
4. आषाढ़ : पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, सतभिषा।
5. श्रावण : श्रवण, धनिष्ठा।
6. भाद्रपद : पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र।
7. आश्विन : अश्विन, रेवती, भरणी।
8. कार्तिक : कृतिका, रोहणी।
9. मार्गशीर्ष : मृगशिरा, उत्तरा।
10. पौष : पुनर्वसु, पुष्य।
11. माघ : मघा, अश्लेशा।
12. फाल्गुन : पूर्वाफाल्गुन, उत्तराफाल्गुन, हस्त।
नक्षत्र मास क्या है?
आकाश में स्थित तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणत: ये चन्द्रमा के पथ से जुडे हैं। नक्षत्र से ज्योतिषीय गणना करना वेदांग ज्योतिष का अंग है। नक्षत्र हमारे आकाश मंडल के मील के पत्थरों की तरह हैं जिससे आकाश की व्यापकता का पता चलता है। वैसे नक्षत्र तो 88 हैं किंतु चन्द्रपथ पर 27 ही माने गए हैं। जिस तरह सूर्य मेष से लेकर मीन तक भ्रमण करता है, उसी तरह चन्द्रमा अश्‍विनी से लेकर रेवती तक के नक्षत्र में विचरण करता है तथा वह काल नक्षत्र मास कहलाता है। यह लगभग 27 दिनों का होता है इसीलिए 27 दिनों का एक नक्षत्र मास कहलाता है।
नक्षत्र मास के नाम:-
1. आश्विन, 2. भरणी, 3. कृतिका, 4. रोहिणी, 5. मृगशिरा, 6. आर्द्रा 
7. पुनर्वसु, 8. पुष्य, 9. आश्लेषा, 10. मघा, 11. पूर्वा फाल्गुनी, 
12. उत्तरा फाल्गुनी, 13. हस्त, 14. चित्रा, 15. स्वाति, 16. विशाखा, 
17. अनुराधा, 18. ज्येष्ठा, 19. मूल, 20. पूर्वाषाढ़ा, 21. उत्तराषाढ़ा, 
22. श्रवण, 23. धनिष्ठा, 24. शतभिषा, 25.पू र्वा भाद्रपद, 
26. उत्तरा भाद्रपद और 27. रेवती II
नक्षत्रों के गृह स्वामी :-
केतु:- आश्विन, मघा, मूल।
शुक्र:- भरणी, पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा।
रवि:- कार्तिक, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा।
चन्द्र:- रोहिणी, हस्त, श्रवण।
मंगल:- मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा।
राहु:- आर्द्रा, स्वाति, शतभिषा।
बृहस्पति:- पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वा भाद्रपद।
शनि:- पुष्य, अनुराधा, उत्तरा भाद्रपद।
बुध:- आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती।
नक्षत्र - चरणाक्षर -  वश्य - योनि - गण - नाड़ी 
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अश्विनी: चू,चे,चो,ला चतुष्पद अश्व देव आदि
भरणी: ली,लू,ले,लो चतुष्पद गज मनुष्य मध्य
कृत्तिका: अ,इ,उ,ए चतुष्पद मेढ़ा राक्षस अन्त्य
रोहिणी: ओ,वा,वी,वू चतुष्पद सर्प मनुष्य अन्त्य
मृगशिरा: वे,वो,का,की चतुष्पद-मनुष्य सर्प् देव मध्य
आर्द्रा: कु,घ,ड़,छ् मनुष्य श्वान मनुष्य अदि
पुनर्वसु:के,को,हा,ही मनुष्य-जलचर मार्जार देव आदि
पुष्य: हू,हे,हो,डा जलचर मेढा देव मध्य
अश्लेषा: डी,डू,डे,डो जलचर मार्जार राक्षस अन्त्य
मघा: मा,मी,मू,मे चतुष्पद मूषक राक्षस अन्त्य
पूर्वाफाल्गुनी: मो,टा,टी,टू चतुष्पद मूषक मनुष्य मध्य
उत्तराफाल्गुनी: टे,टो,पा,पी चतुष्पद-मनुष्य गौ मनुष्य आदि
हस्त: पू,ष,ण,ठ मनुष्य महिष देव आदि
चित्रा: पे,पो,रा,री मनुष्य व्याघ्र राक्षस मध्य
स्वाती: रू,रे,रो,ता मनुष्य महिष देव अन्त्य
विशाखा: ती,तू,ते,तो मनुष्य-कीट व्याघ्र राक्षस अन्त्य
अनुराधा: ना,नी,नू,ने कीट मृग देव मध्य
ज्येष्ठा: नो,या,यी,यू कीट मृग राक्षस आदि
मूल: ये,यो,भा,भी मनुष्य श्वान राक्षस आदि
पूर्वाषाढ़ा: भू,ध,फ,ढ़ मनुष्य-चतुष्पद वानर मनुष्य मध्य
उत्तराषाढ़ा: भे,भो,जा,जी चतुष्पद नकुल मनुष्य अन्त
श्रवण: खी,खू,खे,खो चतुष्पद-जलचर वानर देव अन्त्य
धनिष्ठा: गा,गी,गू,गे  जलचर-मनुष्य सिंह राक्षस मध्य
शतभिषा: गो,सा,सी,सू मनुष्य अश्व राक्षस आदि
पूर्वाभाद्रपद: से,सो,दा,दी  मनुष्य-जलचर सिंह मनुष्य आदि
उत्तराभाद्रपद: दू,थ,झ,णजलचर गौ मनुष्य मध्य
रेवती: दे,दो,चा,ची जलचर गज देव अन्त्य
अभिजित: जु,जे,जो,ख II

🔥‼️[4] #योग‼️🔥
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पंचाँग का चौथा अंग #योग है I सूर्य-चन्द्र की एक दूसरे से अलग अलग दूरियों पर स्थिति को ही को योग कहते हैं। नित्य योग की गणना गणितीय रूप से चंद्रमा और सूर्य के अनुदैर्ध्य को जोड़कर की जाती है और योग को 13 डिग्री और 20 मिनट से विभाजित किया जाता है। 

How to Calculate Nithya Yoga (Present Yoga) : Add longitude of the Moon to the longitude of the Sun and divide it by 13 degrees 20 minutes to get the Nithya Yoga.
#Nithya_Yoga = (Longitude of Sun + Longitude of Moon) / 13°20′ II  

#योग_क्या_है?
सूर्य-चन्द्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं। योग भी तिथियों की तरह ही सूर्य और चन्द्र के संयोग से बनते हैं। योग संख्या में नक्षत्रों की ही तरह २७ हैं क्योंकि यह भी १३ अंश २० कला की दूरी होने से बनते हैं। योग 27 प्रकार के होते हैं। दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के #नाम_देवता क्रमश: इस प्रकार हैं - 

१. विष्कुंभ - यम
२. प्रिति - विष्णु
३. आयुष्मान - चन्द्र देव
४. सौभाग्य - ब्रह्मा
५. शोभन - बृहस्पति
६. अतिगण्ड - चन्द्र देव
७. सुकर्मा - इन्द्र
८. धृति - जल
९. शूल - नाग देव
१०. गण्ड - अग्नि देव
११. बृद्धि - सूर्य देव
१२. ध्रुव - भूमि देव
१३. व्यघात - पवन देव
१४. हर्षण - भग देव
१५. वज्र - वरुण
१६. सिद्धि - गणेश
१७. व्यतिपात - रुद्र
१८. वरियान - कुबेर
१९. परिध - विश्वकर्मा
२०. शिव - मित्र(सूर्य देव)
२१. सिद्ध - कार्तिकेय
२२. साध्य  सावित्री
२३. शुभ - लक्ष्मी
२४. शुक्ल - पार्वती
२५. ब्रह्म - अश्विनी
२६. इंद्र - पितृ
२७. वैधृति - धृति

#अशुभ_योग_कौन_से_हैं?
27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये 9 अशुभ योग हैं - विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतिपात, परिध और वैधृति।

#शुभ_योग_में_क्या_करें?
शुभ योग में योगानुसार शुभ या मंगल कार्य कर सकते हैं। प्रत्येक कार्य के लिए अलग अलग योग का निर्धारण किया गया है। शुभ योग में यात्रा करना, गृह प्रवेश, नवीन कार्य प्रारंभ करना, विवाह आदि करना शुभ होता है।

#अशुभ_योग_कौन_से_हैं?
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27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये 9 अशुभ योग हैं - विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतिपात, परिध और वैधृति। आपके पंचांग या कैलेंडर में प्रतिदिन आने वाले योग के बारे में जानकारी दी गई होती है। आप उक्त योग देखकर सावधानी रख सकते हैं।

{1} #विष्कुम्भ_योग : इस योग को विष से भरा हुआ घड़ा माना जाता है इसीलिए इसका नाम विष्कुम्भ योग है। जिस प्रकार विष पान करने पर सारे शरीर में धीरे-धीरे विष भर जाता है वैसे ही इस योग में किया गया कोई भी कार्य विष के समान होता है अर्थात इस योग में किए गए कार्य का फल अशुभ ही होते हैं।

{2} #अतिगण्ड_योग : इस योग को बड़ा दुखद माना गया है। इस योग में किए गए कार्य दुखदायक होते हैं। इस योग में किए गए कार्य से धोखा, निराशा और अवसाद का ही जन्म होता है। अत: इस योग में कोई भी शुभ या मंगल कार्य नहीं करना चाहिए और ना ही कोई नया कार्य आरंभ करना चाहिए।

{3} #शूल_योग : शूल एक प्रकार का अस्त्र है और इसके चूभने से बहुत बहुत भारी पीड़ा होती है। जैसे नुकीला कांटा चूभ जाए। इस योग में किए गए कार्य से हर जगह दुख ही दुख मिलते हैं। वैसे तो इस योग में कोई काम कभी पूरा होता ही नहीं परंतु यदि अनेक कष्ट सहने पर पूरा हो भी जाए तो शूल की तरह हृदय में एक चुभन सी पैदा करता रहता है। अत: इस योग में कोई भी कार्य न करें अन्यथा आप जिंदगी भर पछताते रहेंगे।

{4} #गण्ड_योग : इस योग में किए गए हर कार्य में अड़चनें ही पैदा होगी और वह कार्य कभी भी सफल नहीं होगा ना ही कोई मामला कभी हल होगा। मामला उलझता ही जाएगा। इस योग किया गया कार्य इस तरह उलझता है कि व्यक्ति सुलझाते सुलझाते थक जाता है लेकिन कभी वह मामला सही नहीं हो पाता। इसलिए कोई भी नया काम शुरू करने से पहले गण्ड योग का ध्यान अवश्य करना चाहिए।

{5} #व्याघात_योग : किसी प्रकार का होने वाला आघात या लगने वाला धक्का। यदि इस योग में कोई कार्य किया गया तो बाधाएं तो आएगी ही साथ ही व्यक्ति को आघात भी सहन करना होगा। यदि व्यक्ति इस योग में किसी का भला करने जाए तो भी उसका नुकसान होगा। इस योग में यदि किसी कारण कोई गलती हो भी जाए तो भी उसके भाई-बंधु उसका साथ सोचकर छोड़ देते हैं कि उसने यह जानबूझ कर ऐसा किया है।

{6} #वज्र_योग : वज्र का अर्थ होता है कठोर। इस योग में वाहन आदि नहीं खरीदे जाते हैं अन्यथा उससे हानि या दुर्घटना हो सकती है। इस योग में सोना खरीदने पर चोरी हो जाता है और यदि कपड़ा खरीदा जाए तो वह जल्द ही फट जाता है या खराब निकलता है।

{7} #व्यतिपात_योग : इस योग में किए जाने वाले कार्य से हानि ही हानि होती है। अकारण ही इस योग में किए गए कार्य से भारी नुकसान उठाना पड़ता है। किसी का भला करने पर भी आपका या उसका बुरा ही होगा।

{8} #परिध_योग : इस योग में शत्रु के विरूद्ध किए गए कार्य में सफलता मिलती है अर्थात शत्रु पर विजय अवश्य मिलती है।

{9} #वैधृति_योग : यह योग स्थिर कार्यों हेतु ठीक है परंतु यदि कोई भाग-दौड़ वाला कार्य अथवा यात्रा आदि करनी हो तो इस योग में नहीं करनी चाहिए।

🔥 #ज्योतिष_शास्त्र_में_शुभ_मुहूर्त_योग
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ज्योतिष शास्त्र में पंचांग से तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण के आधार पर मुहूर्तों का निर्धारण किया जाता है। जिन मुहूर्तों में शुभ कार्य किए जाते हैं उन्हें शुभ मुहूर्त कहते हैं। इनमें सिद्धि योग, सर्वार्थ सिद्धि योग, गुरु पुष्य योग, रवि पुष्य योग, पुष्कर योग, अमृत सिद्धि योग, राज योग, द्विपुष्कर एवं त्रिपुष्कर यह कुछ शुभ योगों के नाम हैं।

(1) #अमृत_सिद्धि_योग :- अमृत सिद्धि योग अपने नामानुसार बहुत ही शुभ योग है। इस योग में सभी प्रकार के शुभ कार्य किए जा सकते हैं। यह योग वार और नक्षत्र के तालमेल से बनता है। इस योग के बीच अगर तिथियों का अशुभ मेल हो जाता है तो अमृत योग नष्ट होकर विष योग में परिवर्तित हो जाता है। सोमवार के दिन हस्त नक्षत्र होने पर जहां शुभ योग से शुभ मुहूर्त बनता है लेकिन इस दिन षष्ठी तिथि भी हो तो विष योग बनता है।

(2) #सिद्धि_योग :- वार, नक्षत्र और तिथि के बीच आपसी तालमेल होने पर सिद्धि योग का निर्माण होता है। उदाहरण स्वरूप सोमवार के दिन अगर नवमी अथवा दशमी तिथि हो एवं रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, श्रवण और शतभिषा में से कोई नक्षत्र हो तो सिद्धि योग बनता है।

(3) #सर्वार्थ_सिद्धि_योग :- यह अत्यंत शुभ योग है। यह वार और नक्षत्र के मेल से बनने वाला योग है। गुरुवार और शुक्रवार के दिन अगर यह योग बनता है तो तिथि कोई भी यह योग नष्ट नहीं होता है अन्यथा कुछ विशेष तिथियों में यह योग निर्मित होने पर यह योग नष्ट भी हो जाता है। सोमवार के दिन रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, अथवा श्रवण नक्षत्र होने पर सर्वार्थ सिद्धि योग बनता है जबकि द्वितीया और एकादशी तिथि होने पर यह शुभ योग अशुभ मुहूर्त में बदल जाता है।

(4) #पुष्कर_योग :- इस योग का निर्माण उस स्थिति में होता है जबकि सूर्य विशाखा नक्षत्र में होता है और चन्द्रमा कृतिका नक्षत्र में होता है। सूर्य और चन्द्र की यह अवस्था एक साथ होना अत्यंत दुर्लभ होने से इसे शुभ योगों में विशेष महत्व दिया गया है। यह योग सभी शुभ कार्यों के लिए उत्तम मुहूर्त होता है।

(5) #गुरु_पुष्य_योग :- गुरुवार और पुष्य नक्षत्र के संयोग से निर्मित होने के कारण इस योग को गुरु पुष्य योग के नाम से सम्बोधित किया गया है। यह योग गृह प्रवेश, ग्रह शांति, शिक्षा सम्बन्धी मामलों के लिए अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है। यह योग अन्य शुभ कार्यों के लिए भी शुभ मुहूर्त के रूप में जाना जाता है।

(6) #रवि_पुष्य_योग :- इस योग का निर्माण तब होता है जब रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र होता है। यह योग शुभ मुहूर्त का निर्माण करता है जिसमें सभी प्रकार के शुभ कार्य किए जा सकते हैं। इस योग को मुहूर्त में गुरु पुष्य योग के समान ही महत्व दिया गया है।

🔥‼️[5] #करण‼️🔥
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एक तिथि में दो करण होते हैं - एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में। कुल 11 करण होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं।

चन्द्र और सूर्य के भोगांश के अन्तर को 6 से भाग देने पर प्राप्त संख्या करण कहलाती है। दूसरे शब्दों में चन्द्र और सूर्य में 6 अंश के अन्तर के समय को एक करण कहते है।

प्रत्येक तिथि में दो करण होते हैं। अर्थात 30 तिथियों में 60 करण होते है। करणों के नाम इस प्रकार है।

1. बव
2. बालव
3. कौलव
4. तैतिल
5. गर
6. वणिज
7. विष्टि (भद्रा)
8. शकुनि
9. चतुष्पद
10. नाग
11. किस्तुघन
इसमें किस्तुघन से गणना आरम्भ करने पर पहले 7 करण आठ बार क्रम से पुनरावृ्त होते है। अंत में शेष चार करण स्थिर प्रकृति के है।

करण क्या है और किस करण में नहीं करें शुभ कार्य?
करण क्या है?
तिथि का आधा भाग करण कहलाता है। चन्द्रमा जब 6 अंश पूर्ण कर लेता है तब एक करण पूर्ण होता है। एक तिथि में दो करण होते हैं- एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में। कुल 11 करण होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं।
किस्तुघ्न, चतुष्पद, शकुनि तथा नाग ये चार करण हर माह में आते हैं और इन्हें स्थिर करण कहा जाता है। अन्य सात करण चर करण कहलाते हैं। ये एक स्थिर गति में एक दूसरे के पीछे आते हैं। इनके नाम हैं: बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि जिसे भद्रा भी कहा जाता है।

करणों के गुण स्वभाव निम्न प्रकार हैं:-
किस्तुघ्न:- यह स्थिर करण है। इसके प्रतीक माने जाते हैं कृमि, कीट और कीड़े। इसका फल सामान्य है तथा इसकी अवस्था ऊर्ध्वमुखी मानी जाती है।
बव:- यह चर करण है। इसका प्रतीक सिंह है। इसका गुण समभाव है तथा इसकी अवस्था बालावस्था है।

बालव:- यह भी चर करण है। इसका प्रतीक है चीता। यह कुमार माना जाता है तथा इसकी अवस्था बैठी हुई मानी गई है।

कौलव:- चर करण। इसका प्रतीक शूकर को माना गया है। यह श्रेष्ठ फल देने वाला ऊर्ध्व अवस्था का करण माना जाता है।

तैतिल:- यह भी चर करण है। इसका प्रतीक गधा है। इसे अशुभ फलदायी सुप्त अवस्था का करण माना जाता है।
गर:- यह चर करण है तथा इसका प्रतीक हाथी है। इसे प्रौढ़ माना जाता है तथा इसकी अवस्था बैठी हुई मानी गई है।

वणिज:- यह भी चर करण है। इसका प्रतीक गौ माता को माना गया है तथा इसकी अवस्था भी बैठी हुई मानी गई है।

विष्टि अर्थात भद्रा:- यह चर करण है। इसका प्रतीक मुर्गी को माना गया है। इसे मध्यम फल देने वाला बैठी हुई स्थिति का करण माना जाता है।

शकुनि:- स्थिर करण। इसका प्रतीक कोई भी पक्षी है। यद्यपि इसकी अवस्था ऊर्ध्वमुखी है फिर भी इसे सामान्य फल देने वाला करण माना जाता है।
चतुष्पद:- यह भी स्थिर करण है। इसका प्रतीक है चार पैर वाला पशु। इसका भी फल सामान्य है तथा इसकी अवस्था सुप्त मानी जाती है।

नाग:- यह भी स्थिर करण है। इसका प्रतीक नाग या सर्प को माना गया है। इसका फल सामान्य है तथा इसकी अवस्था सुप्त मानी गई है।

उक्त करणों में विष्टि करण अथवा भद्रा को सबसे अधिक अशुभ माना जाता है। किसी भी नवीन कार्य का आरम्भ इस करण में नहीं किया जा सकता। कुछ धार्मिक कार्यों में भी भद्रा का त्याग किया जाता है। सुप्त और बैठी हुई स्थितियां उत्तम नहीं होतीं। ऊर्ध्व अवस्था उत्तम होती हैं।
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रविवार, 1 जून 2025

संस्कृत भाषा की समृद्धि

sanskritpravah



विश्व की सबसे ज्यादा सम्रद्ध भाषा कौनसी है.....?

अंग्रेजी में 'THE QUICK BROWN FOX JUMPS OVER A LAZY DOG' एक प्रसिद्ध वाक्य है। 

जिसमें अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर समाहित कर लिए गए, मज़ेदार बात यह है की अंग्रेज़ी वर्णमाला में कुल 26 अक्षर ही उप्लब्ध हैं जबकि इस वाक्य में 33 अक्षरों का प्रयोग किया गया जिसमे चार बार O और A, E, U तथा R अक्षर का प्रयोग क्रमशः 2 बार किया गया है। इसके अलावा इस वाक्य में अक्षरों का क्रम भी सही नहीं है। जहां वाक्य T से शुरु होता है वहीं G से खत्म हो रहा है। 

अब ज़रा संस्कृत के इस श्लोक को पढिये।-

क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:।
तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।

अर्थात: पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनार कौन? राजा मय! जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।

श्लोक को ध्यान से पढ़ने पर आप पाते हैं की संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन इस श्लोक में दिखाये दे रहे हैं वो भी क्रमानुसार। 

यह खूबसूरती केवल और केवल संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा में ही देखने को मिल सकती है! 

पूरे विश्व में केवल एक संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसमें केवल एक अक्षर से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है, किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में केवल “न” व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया है और गजब का कौशल्य प्रयोग करके भारवि नामक महाकवि ने थोडे में बहुत कहा है-

न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।
नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥

अर्थात: जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है। वन्देसंस्कृतम्! 

एक और उदहारण है।-

दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः
दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः

अर्थात: दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खण्डन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया।

है ना खूबसूरत? इतना ही नहीं, क्या किसी भाषा में *केवल 2 अक्षर* से पूरा वाक्य लिखा जा सकता है? संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में ये करना असम्भव है। माघ कवि ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल “भ” और “र ” दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है। देखिये –

भूरिभिर्भारिभिर्भीराभूभारैरभिरेभिरे
भेरीरे भिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभैरिभा:।

अर्थात- निर्भय हाथी जो की भूमि पर भार स्वरूप लगता है, अपने वजन के चलते, जिसकी आवाज नगाड़े की तरह है और जो काले बादलों सा है, वह दूसरे दुश्मन हाथी पर आक्रमण कर रहा है।

एक और उदाहरण-

क्रोरारिकारी कोरेककारक कारिकाकर।
कोरकाकारकरक: करीर कर्करोऽकर्रुक॥

अर्थात- क्रूर शत्रुओं को नष्ट करने वाला, भूमि का एक कर्ता, दुष्टों को यातना देने वाला, कमलमुकुलवत, रमणीय हाथ वाला, हाथियों को फेंकने वाला, रण में कर्कश, सूर्य के समान तेजस्वी [था]।

पुनः क्या किसी भाषा मे केवल *तीन अक्षर* से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है? यह भी संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में असंभव है!
उदहारण- 

देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां
दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः।।

अर्थात- वह परमात्मा [विष्णु] जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करता है और जो वेदों को नहीं मानते उनको कष्ट प्रदान करता है। वह स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देता है, जिस तरह के नाद से उसने दानव [हिरण्यकशिपु] को मारा था।

अब इस छंद को ध्यान से देखें इसमें पहला चरण ही चारों चरणों में चार बार आवृत्त हुआ है, लेकिन अर्थ अलग-अलग हैं, जो यमक अलंकार का लक्षण है। इसीलिए ये महायमक संज्ञा का एक विशिष्ट उदाहरण है -

विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जतीशमार्गणा:।
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा:॥

अर्थात- पृथ्वीपति अर्जुन के बाण विस्तार को प्राप्त होने लगे, जबकि शिवजी के बाण भंग होने लगे। राक्षसों के हंता प्रथम गण विस्मित होने लगे तथा शिव का ध्यान करने वाले देवता एवं ऋषिगण (इसे देखने के लिए) पक्षियों के मार्गवाले आकाश-मंडल में एकत्र होने लगे।

जब हम कहते हैं की संस्कृत इस पूरी दुनिया की सभी प्राचीन भाषाओं की जननी है तो उसके पीछे इसी तरह के खूबसूरत तर्क होते हैं। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान- सार्थकता" मिलती है अर्थात् अमुक वस्तु की अमुक संज्ञा या नाम क्यों है, यह प्रायः सभी शब्दों में मिलता है। जैसे इस विश्व का नाम संसार है तो इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है-

संसरतीति संसारः गच्छतीति जगत् आकर्षयतीति कृष्णः रमन्ते योगिनो यस्मिन् स रामः इत्यादि।

जहाँ तक मुझे ज्ञान है विश्व की अन्य भाषाओं में ऐसी अभिधानसार्थकता नहीं है। 

Good का अर्थ अच्छा, भला, सुन्दर, उत्तम, प्रियदर्शन, स्वस्थ आदि है किसी अंग्रेजी विद्वान् से पूछो कि ऐसा क्यों है तो वह कहेगा है बस पहले से ही इसके ये अर्थ हैं क्यों हैं वो ये नहीं बता पायेगा।
ऐसी सरल और समृद्ध भाषा जो सभी भाषाओं की जननी है आज अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड रही है बेहद चिंताजनक है।

#आचार्यदीनदयालशुक्ल:

रविवार, 18 मई 2025

गो माता की महिमा

sanskritpravah


नमो नमः 🙏 
आत्मीय बन्धुओं,
सादर अभिवादन 

गो माता के विषय में कुछ दुर्लभ एवं रोचक तथ्य




1- हर व्यक्ति जन्म लेता है गो-पुत्र के रूप में-इसलिये उसका एक *गोत्र* होता है।

2- हर व्यक्ति अपना विवाह मुहूर्त चाहता है *गो धूलि बेला* में।

3- हर व्यक्ति मृत्यु के बाद जाना चाहता है गोलोक धाम, हर आत्मा चाहती है गोलोकवास

4- हर जीव वैतरणी पार करना चाहता है -मृत्यु से पहले *गो दान* करके।

           सोचिये ! हर कामना पूरी करने के लिए गो माता का सहारा लेना पड़ रहा है। लेकिन उसी गो माता की सेवा के लिए समय नही होता है।

   आज हम गो माता के विषय में भारतीय सनातनियों के लिए कुछ रोचक जानकारी प्रस्तुत करते हैं....!!

1. गौ माता जिस जगह खड़ी रहकर आनन्दपूर्वक चैन की सांस लेती है। वहाँ की जगह से वास्तु दोष स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। 

2. जिस जगह गौ माता खुशी से रभांने लगे उस जगह देवी देवता पुष्प वर्षा करते हैं। 

3. गौ माता के गले में घंटी जरूर बांधे, गाय के गले में बंधी घंटी बजने से गौ आरती होती है। 

4. जो व्यक्ति गौ माता की सेवा पूजा करता है उस पर आने वाली सभी प्रकार की *विपदाओं* को गौ माता हर लेती है। 

5. गौ माता के खुर में *नागदेवता* का वास होता है। जहाँ गौ माता विचरण करती है उस जगह *सांप बिच्छू* नहीं आते हैं। 

6. गौ माता के गोबर में लक्ष्मी जी का वास होता है जिस घर को नित्य गोबर से लीपते है वहां कभी *धन की कमी* नहीं होती है।

7. गो माता की जुबान में अमृत होता है जिस वस्तु को गौ की जीभ स्पर्श कर ले वह पवित्र माना गया है।

8. गो माता के पांच विकार (दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर) यह पंचगव्य सभी शारिरिक दोषों का नाश करते हैं।

*सभी सनातनी हिन्दू समाज तक यह जानकारी जरुर शेयर करें।*
🙏🙏🚩🚩🙏🏻🙏🏻🙏🏻
*जय श्री राम जय श्री कृष्णा राधे राधे*


*सादर सधन्यवाद*
*आचार्यदीनदयालशुक्ल:*(संस्कृतशिक्षक:)
शिक्षाप्रमुख: 
*भारतीय ज्योतिष संस्थानं ट्रस्ट वाराणसी उत्तरप्रदेश*
https://sanskritpravaha.blogspot.com/2024/09/blog-post.html

सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

नास्ति मातृसमा छाया

राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च |
पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैताः मातरः स्मृताः ||

नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गति:। 
नास्ति मातृसमं त्राणं, नास्ति मातृसमा प्रिया ॥

माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान, इस दुनिया में कोई जीवनदाता नहीं।

किसी बनावटी डे की जरूरत नहीं
निर्जीव पत्थरों में मातृत्व भर देने की शक्ति सनातन धर्म में ही थी, है और रहेगी 

1. 'यस्य माता गृहे नास्ति, तस्य माता हरितकी।'
(अर्थात, हरीतकी (हरड़) मनुष्यों की माता के समान हित करने वाली होती है।)

2. 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।'
(अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।)

3. 'माता गुरुतरा भूमेरू।'
(अर्थात, माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।)

4. 'नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।'

5. 'मातृ देवो भवः।'
(अर्थात, माता देवताओं से भी बढ़कर होती है।)

6. 'अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः
मातृमान् पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेदः।'

(भावार्थः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तो तभी मनुष्य ज्ञानवान होगा।)

7. 'माँ' के गुणों का उल्लेख करते हुए आगे कहा गया है-
'प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान।'

(अर्थात, धन्य वह माता है जो गर्भावान से लेकर, जब तक पूरी विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।)

8. 'रजतिम ओ गुरु तिय मित्रतियाहू जान।
निज माता और सासु ये, पाँचों मातृ समान।।'

(अर्थात, जिस प्रकार संसार में पाँच प्रकार के पिता होते हैं, उसी प्रकार पाँच प्रकार की माँ होती हैं। जैसे, राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी मूल जननी माता।)

9. 'स्त्री ना होती जग म्हं, सृष्टि को रचावै कौण।
ब्रह्मा विष्णु शिवजी तीनों, मन म्हं धारें बैठे मौन।
एक ब्रह्मा नैं शतरूपा रच दी, जबसे लागी सृष्टि हौण।'

(अर्थात, यदि नारी नहीं होती तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती थी। स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक सृष्टि की रचना करने में असमर्थ बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने नारी की रचना की, तभी से सृष्टि की शुरूआत हुई।)

10. आपदामापन्तीनां हितोऽप्यायाति हेतुताम् ।
मातृजङ्घा हि वत्सस्य स्तम्भीभवति बन्धने ॥
 
(भावार्थ- जब विपत्तियां आने को होती हैं, तो हितकारी भी उनमें कारण बन जाता है । बछड़े को बांधने मे माँ की जांघ ही खम्भे का काम करती है।।

उपाध्यायान दशाचार्य अचार्याणाम शतं पिता
सहस्रं तु पितृनि माता गौरवेणातिरिच्यते।मनुस्मृति  2.148 

भावार्थ : वेदांगों के सहित वेद अध्ययन कराने वाले द्विज आचार्य का दस गुना,आचार्य से पिता का सौ गुना और पिता से माता का स्थान हजार गुना होता है ।

सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

भवान्याष्टकम्





न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥१॥

भवाब्धावपारे महादुःखभीरु
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥२॥

न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम्।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥३॥

न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थ
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित्।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्गतिस्त्वं
गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥४॥

कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः
कुलाचारहीनः कदाचारलीनः।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥५॥

प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित्।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥६॥

विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥७॥

अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः।
विपत्तौ प्रविष्टः प्रनष्टः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥८