सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

sanskritpravah







गुरुकुल में क्या पढ़ाया जाता था ??

sanskritpravah

गुरुकुल में क्या पढ़ाया जाता था ??
यह जान लेना अति आवश्यक है।




◆ अग्नि विद्या ( metallergy )

◆ वायु विद्या ( flight ) 

◆ जल विद्या ( navigation ) 

◆ अंतरिक्ष विद्या ( space science ) 

◆ पृथ्वी विद्या ( environment )

◆ सूर्य विद्या ( solar study ) 

◆ चन्द्र व लोक विद्या ( lunar study ) 

◆ मेघ विद्या ( weather forecast ) 

◆ पदार्थ विद्युत विद्या ( battery ) 

◆ सौर ऊर्जा विद्या ( solar energy ) 

◆ दिन रात्रि विद्या ( day - night studies )

◆ सृष्टि विद्या ( space research ) 

◆ खगोल विद्या ( astronomy) 

◆ भूगोल विद्या (geography ) 

◆ काल विद्या ( time ) 

◆ भूगर्भ विद्या (geology and mining ) 

◆ रत्न व धातु विद्या ( gems and metals ) 

◆ आकर्षण विद्या ( gravity ) 

◆ प्रकाश विद्या ( solar energy ) 

◆ तार विद्या ( communication ) 

◆ विमान विद्या ( plane ) 

◆ जलयान विद्या ( water vessels ) 

◆ अग्नेय अस्त्र विद्या ( arms and amunition )

◆ जीव जंतु विज्ञान विद्या ( zoology botany ) 

◆ यज्ञ विद्या ( material Sc)

● वैदिक विज्ञान
( Vedic Science )

◆ वाणिज्य ( commerce ) 

◆ कृषि (Agriculture ) 

◆ पशुपालन ( animal husbandry ) 

◆ पक्षिपालन ( bird keeping ) 

◆ पशु प्रशिक्षण ( animal training ) 

◆ यान यन्त्रकार ( mechanics) 

◆ रथकार ( vehicle designing ) 

◆ रतन्कार ( gems ) 

◆ सुवर्णकार ( jewellery designing ) 

◆ वस्त्रकार ( textile) 

◆ कुम्भकार ( pottery) 

◆ लोहकार ( metallergy )

◆ तक्षक ( guarding )

◆ रंगसाज ( dying ) 

◆ आयुर्वेद ( Ayurveda )

◆ रज्जुकर ( logistics )

◆ वास्तुकार ( architect)

◆ पाकविद्या ( cooking )

◆ सारथ्य ( driving )

◆ नदी प्रबन्धक ( water management )

◆ सुचिकार ( data entry )

◆ गोशाला प्रबन्धक ( animal husbandry )

◆ उद्यान पाल ( horticulture )

◆ वन पाल ( horticulture )

◆ नापित ( paramedical )

इस प्रकार की विद्या गुरुकुल में दी जाती थीं।

इंग्लैंड में पहला स्कूल 1811 में खुला 
उस समय भारत में 732000 गुरुकुल थे।
खोजिए हमारे गुरुकुल कैसे बन्द हुए ? 

और मंथन जरूर करें वेद ज्ञान विज्ञान को चमत्कार छूमंतर व मनघड़ंत कहानियों में कैसे बदला या बदलवाया गया। वेदों के नाम पर वेद विरुद्ध हिंदी रूपांतरण करके मिलावट की ।

अपरा विधा- भेाैतिक विज्ञान को व अपरा विधा आध्यात्मिक विज्ञान को कहा गया है। इन दोनों में १६ कलाओं का ज्ञान होता है।

तैत्तिरीयोपनिषद , भ्रगुवाल्ली अनुवादक ,५, मंत्र १, में ऋषि भ्रगु ने बताया है कि-

विज्ञान॑ ब्रहोति व्यजानात्। विज्ञानाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। विज्ञानेन जातानि जीवन्ति। विज्ञान॑ प्रयन्त्यभिस॑विशन्तीति।
 
अर्थ- तप के अनातर उन्होंने ( ऋषि ने) जाना कि वास्तव मैं विज्ञान से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं। उत्पत्ति के बाद विज्ञान से ही जीवन जीते हैं। अंत में प्रायान करते हुए विज्ञान में ही प्रविष्ठ हो जाते हैं।

तैत्तिरीयोपनिषद ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवादक ८, मंत्र ९ में लिखा है कि-

 विज्ञान॑ यज्ञ॑ तनुते। कर्माणि तनुतेऽपि च। विज्ञान॑ देवा: सर्वे। ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते। विज्ञान॑ ब्रह्म चेद्वेद।

अर्थ- विज्ञान ही यज्ञों व कर्मों की वृद्धि करता है। सम्पूर्ण देवगण विज्ञान को ही  श्रेष्ठ ब्रह्म के रूप में उपासना करते हैं। जो विज्ञान को ब्रह्म स्वरूप में जानते हैं, उसी प्रकार से चिंतन में रत्त रहते हैं, तो वे  इसी शरीर से पापों से मुक्त होकर सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि प्राप्त करते हैं। उस विज्ञान मय देव के अंदर ही वह आत्मा ब्रह्म रूप है। उस  विज्ञान मय आत्मा से भिन्न उसके अन्तर्गत वह आत्मा ही ब्रह्म स्वरूप है।

( संसार के सभी जीव शिल्प विज्ञान के द्वारा ही जीवन यापन करते हैं।)

★ वेद ज्ञान है शिल्प विज्ञान है

त्रिनो॑ अश्विना दि॒व्यानि॑ भेष॒जा त्रिः पार्थि॑वानि॒ त्रिरु॑ दत्तम॒द्भ्यः। 
आ॒मान॑ श॒योर्ममि॑काय सू॒नवे त्रि॒धातु॒ शर्म॑ वहतं शुभस्पती॥

ऋग्वेद (1.34.6)

हे (शुभस्पती) कल्याणकारक मनुष्यों के कर्मों की पालना करने और (अश्विना) विद्या की ज्योति को बढ़ानेवाले शिल्पि लोगो ! आप दोनों (नः) हम लोगों के लिये (अद्भ्यः) जलों से (दिव्यानि) विद्यादि उत्तम गुण प्रकाश करनेवाले (भेषजा) रसमय सोमादि ओषधियों को (त्रिः) तीनताप निवारणार्थ (दत्तम्) दीजिये (उ) और (पर्थिवानि) पृथिवी के विकार युक्त ओषधी (त्रिः) तीन प्रकार से दीजिये और (ममकाय) मेरे (सूनवे) औरस अथवा विद्यापुत्र के लिये (शंयोः) सुख तथा (ओमानम्) विद्या में प्रवेश और क्रिया के बोध करानेवाले रक्षणीय व्यवहार को (त्रिः) तीन बार कीजिये और (त्रिधातु) लोहा ताँबा पीतल इन तीन धातुओं के सहित भूजल और अन्तरिक्ष में जानेवाले (शर्म) गृहस्वरूप यान को मेरे पुत्र के लिये (त्रिः) तीन बार (वहतम्) पहुंचाइये ॥

भावार्थ- मनुष्यों को चाहिये कि जो जल और पृथिवी में उत्पन्न हुई रोग नष्ट करनेवाली औषधी हैं उनका एक दिन में तीन बार भोजन किया करें और अनेक धातुओं से युक्त काष्ठमय घर के समान यान को बना उसमें उत्तम २ जव आदि औषधी स्थापन कर देश देशांतरों में आना जाना करें।

विश्वकर्मा कुल श्रेष्ठो धर्मज्ञो वेद पारगः।
सामुद्र गणितानां च ज्योतिः शास्त्रस्त्र चैबहि।।
लोह पाषाण काष्ठानां इष्टकानां च संकले।
सूत्र प्रास्त्र क्रिया प्राज्ञो वास्तुविद्यादि पारगः।।
सुधानां चित्रकानां च विद्या चोषिठि ममगः।
वेदकर्मा सादचारः गुणवान सत्य वाचकः।। 

(शिल्प शास्त्र) अर्थववेद

भावार्थ – विश्वकर्मा वंश श्रेष्ठ हैं विश्वकर्मा वंशी धर्मज्ञ है, उन्हें वेदों का ज्ञान है। सामुद्र शास्त्र, गणित शास्त्र, ज्योतिष और भूगोल एवं खगोल शास्त्र में ये पारंगत है। एक शिल्पी लोह, पत्थर, काष्ठ, चान्दी, स्वर्ण आदि धातुओं से चित्र विचित्र वस्तुओं सुख साधनों की रचना करता है। वैदिक कर्मो में उन की आस्था है, सदाचार और सत्यभाषण उस की विशेषता है।

 यजुर्वेद के अध्याय २९ के मंत्र 58 के ऋषि जमदाग्नि है इसमे बार्हस्पत्य शिल्पो वैश्वदेव लिखा है। वैश्वदेव में सभी देव समाहित है।

शुल्वं यज्ञस्य साधनं शिल्पं रूपस्य साधनम् ॥

(वास्तुसूत्रोपनिषत्/चतुर्थः प्रपाठकः - ४.९ ॥)

अर्थात - शुल्ब सूत्र यज्ञ का साधन है तथा शिल्प कौशल उसके रूप का साधन है।

शिल्प और कुशलता में बहुत बड़ा अन्तर है ( एक शिल्प विद्या द्वारा किसी प्रारूप को बनाना और दूसरा कुशलता पूर्वक उसका उपयोग करना , ये दोनो अलग अलग है 

कुशलता 

जैसे शिल्प द्वारा निर्मित ओजारो से नाई कुशलता से कार्य करता है , शिल्पी द्वारा निर्मित यातायन के साधन को एक ड्राईवर कुशलता पूर्वक चलता है आदि 

सामान्यतः जिस कर्म के द्वारा विभिन्न पदार्थों को मिलाकर एक नवीन पदार्थ या स्वरूप तैयार किया जाता है उस कर्म को शिल्प कहते हैं । ( उणादि० पाद०३, सू०२८ ) किंतु विशेष रूप निम्नवत है

१- जो प्रतिरूप है उसको शिल्प कहते हैं "यद् वै प्रतिरुपं तच्छिल्पम" (शतपथ०- का०२/१/१५ ) 

२- अपने आप को शुद्ध करने वाले कर्म को शिल्प कहते हैं 

(क)"आत्मा संस्कृतिर्वै शिल्पानि: " (गोपथ०-उ०/६/७)

(ख) "आत्मा संस्कृतिर्वी शिल्पानि: " (ऐतरेय०-६/२७) 

३- देवताओं के चातुर्य को शिल्प कहकर सीखने का निर्देश है (यजुर्वेद ४ / ९, म० भा० )

 ४- शिल्प शब्द रूप तथा कर्म दोनों अर्थों में आया है -

(क)"कर्मनामसु च " (निघन्टु २ / १ )

(ख) शिल्पमिति रुप नाम सुपठितम्" (निरुक्त ३/७)

५ - शिल्प विद्या आजीविका का मुख्य साधन है। (मनुस्मृति १/६०, २/२४, व महाभारत १/६६/३३ )

६- शिल्प कर्म को यज्ञ कर्म कहा गया है।

( वाल्मि०रा०, १/१३/१६, व संस्कार विधि, स्वा० द० सरस्वती व स्कंद म०पु० नागर६/१३-१४ )

।।पांचाल_ब्राह्मण।।

शिल्पी ब्राह्मण नामान: पञ्चाला परि कीर्तिता:।
(शैवागम अध्याय-७)
अर्थात-पांच प्रकार के श्रेष्ठ शिल्पों के कर्ता होने से शिल्पी ब्राह्मणों का नाम पांचाल है।
 
पंचभि: शिल्पै:अलन्ति भूषयन्ति जगत् इति पञ्चाला:। (विश्वकर्म वंशीय ब्राह्मण व्यवस्था-भाग-३, पृष्ठ-७६-७७)
अर्थात- पांच प्रकार के शिल्पों से जगत को भूषित करने वाले शिल्पि ब्राह्मणों को पांचाल कहते हैं।

ब्रह्म विद्या ब्रह्म ज्ञान  (ब्रह्मा को जानने वाला) जो की चारो वेदों में प्रमाणित है जो वैदिक गुरुकुलो में शिक्षा दी जाती थी ये (metallergy) जिसे अग्नि विद्या या लौह विज्ञान (धातु कर्म) कहते है , ये वेदों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मकर्म ब्रह्मज्ञान है पृथ्वी के गर्भ से लौह निकालना और उसका चयन करना की किस लोहे से , या किस लोहे के स्वरूप से,  सुई से लेकर हवाई  जहाज, युद्ध पोत  जलयान, थलयान, इलेक्ट्रिक उपकरण , इलेक्ट्रॉनिक उपकरण , रक्षा करने के आधुनिक हथियार , कृषि के आधुनिक उपकरण , आधुनिक सीएनसी मशीन, सिविल इन्फ्रास्ट्रक्चर सब (metallergy) अग्नि विद्या ऊर्फ लोहा विज्ञान की देन है हमारे वैदिक ऋषि सब वैज्ञानिक कार्य करते थे वेदों में इन्हीं विश्वकर्मा शिल्पियों को ब्राह्मण की उपाधि मिली है जो वेद ज्ञान विज्ञान से ही संभव है चमत्कारों से नहीं वेद ज्ञान विज्ञान से राष्ट्र निर्माण होता है  पाखण्ड से नहीं, इसी को विज्ञान कहा गया है बिना शिल्प विज्ञान के हम सृष्टि विज्ञान की कल्पना भी नहीं कर सकते इसलिए सभी विज्ञानिंक कार्य इन्ही सुख साधनों से संभव है इसलिए वैदिक शिल्पी विश्वकर्मा ऋषियों द्वारा भारत की सनातन संस्कृति विश्वगुरु कहलाई
भगवान (विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों) ने अपने रचनात्मक कार्यों से इस ब्रह्मांड का प्रसार किया है। जो सभी वैदिक ग्रंथों में प्रमाणित है

अन्तरविषयसंशोधनार्थं नूतनाः सक्रियविषयाः ग्रहीतव्याः ये समाजाय उपयोगिनो भविष्यन्ति।

sanskritpravah

अन्तरविषयसंशोधनार्थं नूतनाः सक्रियविषयाः ग्रहीतव्याः ये समाजाय उपयोगिनो भविष्यन्ति।

संगोष्ठी में पुस्तक का विमोचन करते हुए मञ्चस्थ अतिथिगण

जयपुरम्। राष्ट्रियशिक्षानीतिः २०२० विश्वस्य प्रतिष्ठितविश्वविद्यालयानाम् अग्रे देशस्य विश्वविद्यालयाः आनयिष्यन्ति। एतत् एव एपेक्स विश्वविद्यालयस्य संयुक्त आश्रयेण संजय शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयेन ७-८ अक्टोबर् २०२३ दिनाङ्के आयोजितस्य अन्तर्राष्ट्रीयगोष्ठीयाः मुख्यातिथिः एआईसीटीई इत्यस्य सल्लाहकारः डॉ. ममता आर० अग्रवालः अवदत् यत् अस्माभिः अस्माकं छात्राणां कृते सज्जीकरणस्य आवश्यकता वर्तते आगामिनां ६० वर्षाणां आव्हानानि। सज्जतां कर्तुं। अस्य द्विदिवसीयस्य अन्तर्राष्ट्रीयगोष्ठ्याः विषयः आसीत् अन्तरविषयसंलयनं आरक्षस्य भविष्यं नेविगेट् करणं संगोष्ठ्याः उद्घाटनं एपेक्स विश्वविद्यालयस्य निदेशकः वेदशु जुनिवालः, कुलपतिः डॉ. ओ.पी. छंगनी, रजिस्ट्रार डॉ. पंकज कुमारशर्मा, महाविद्यालयप्राचार्या सुनीताभार्गव: सहितं दीपप्रज्वलनसमये महाविद्यालयस्य प्राध्यापकः डॉ. रतनकुमार भारद्वाजः आह्वानं कृत्वा भारतीयसंस्कृतेः मूर्तरूपं दत्तवान्। तेनोक्तं यत् महाविद्यालये संस्कृतसंवर्धनाय अनौपचारिकसंस्कृतशिक्षणकेन्द्रमपि सञ्चाल्यते तत्र अधिकाधिकशोधार्थिन: भवन्तु। अस्मिन् द्विदिवसीय-अन्तर्राष्ट्रीय-गोष्ठ्यां भारत-विदेशयोः शिक्षाविदः भागं गृहीतवन्तः । संगोष्ठ्याः उद्घाटनसत्रे विशेषातिथिः एमिटी विश्वविद्यालयस्य कुलपतिः प्रो. अमित जैन इत्यनेन उक्तं यत् अन्तरविषयसंशोधनार्थं नूतनाः सक्रियविषयाः ग्रहीतव्याः ये समाजाय उपयोगिनो भविष्यन्ति।गोष्ठ्याः विशेषातिथिः, न्यायविदः तथा कुलपतिः डॉ अमित कुमार जैन वदति यत् जीवनस्य एतादृशविषयेषु चर्चा भविष्यति। देशस्य समग्रविकासे संस्कृत विषये शोधस्य महती भूमिका भविष्यति।

 M.N.I.T. जयपुरस्य सहायकप्रोफेसर डॉ. इमैनुएल शुभाकर-पिल्लई इत्यनेन उक्तं यत् शोधकाले सर्वाधिकं समस्या अस्ति यत् जनाः स्वज्ञानक्षेत्रात् परं न गच्छन्ति। अनुसन्धानं सर्वदा नवीनतायाः, सटीकतायाश्च आरम्भः भवति । जलाशयः परिवर्तनस्य अनुकूलतां प्राप्तुं समर्थः भवितुमर्हति । वरिष्ठ शोधार्थी प्रो. गौतमः अवदत् यत् स्वस्य व्यक्तिगतं व्यावसायिकं च अहङ्कारं दूरीकृत्य एव शोधं कर्तुं शक्यते। सः अवदत् यत् छात्राणां समीचीनदिशि नेतुम् विशेषज्ञतायाः, अनुमोदनस्य, सहानुभूतेः च आवश्यकता वर्तते।फोर बिजनेस स्कूलस्य मुख्यकार्यकारी देवेन्द्र पाठकः अवदत् यत् भारते २०१७ तः २०२२ पर्यन्तं द्विकोटि: शोधं प्राप्तं किन्तु शोधस्य गुणवत्ता तावत् न अस्ति । सः इत्थमपि अपि अवदत् यत् संस्कृत विषये शोधकार्यं कुर्वतां जनानां संख्या अस्माकं विश्वविद्यालये न्यूना भवति। ते समाजस्य समस्यानां समाधानार्थं द्वयोः भिन्नयोः कार्यक्षेत्रयोः मिलित्वा कार्यं कर्तव्यं भविष्यति इति उक्तवान्, यथा चन्द्रयानस्य सफलता अपि सम्भवति स्म यतोहि तस्मिन् वैज्ञानिकाः अभियंताः च मिलित्वा कार्यं कृतवन्तः। 

अस्मिन् द्विदिनात्मके संगोष्ठ्यां तकनीकी-अन्तर्विषय-संलयनविषये विविधाः विषयविशेषज्ञाः सर्वेभ्यः प्रतिभागिभ्यः स्वविचारैः लाभान्विताः अभवन् । अस्मिन् द्विदिनात्मके अन्तर्राष्ट्रीयगोष्ठीयां प्रायः ६० शोधपत्राणि पठितानि आसन् ।

मंगलवार, 26 सितंबर 2023

पण्डितराज जगन्नाथ जी का लवंगी से प्रेम


sanskritpravah


“पण्डितराज जगन्नाथ”

सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध था, दूर दक्षिण में गोदावरी तट के एक छोटे राज्य की राज्यसभा में एक विद्वान् ब्राह्मण सम्मान पाता था, नाम था जगन्नाथ शास्त्री ।
साहित्य के प्रकांड विद्वान्, दर्शन के अद्भुत ज्ञाता।

इस छोटे से राज्य के महाराज चन्द्रदेव के लिए जगन्नाथ शास्त्री सबसे बड़े गर्व थे। कारण यह, कि जगन्नाथ शास्त्री कभी किसी से शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होते थे। दूर दूर के विद्वान् आये और पराजित हो कर जगन्नाथ शास्त्री की विद्वता का ध्वज लिए चले गए।

पण्डित जगन्नाथ शास्त्री की चर्चा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में होने लगी थी। उस समय दिल्ली पर मुगल शासक शाहजहाँ का शासन था। शाहजहाँ मुगल था, सो भारत की प्रत्येक सुन्दर वस्तु पर अपना अधिकार समझना उसे जन्म से सिखाया गया था।

पण्डित जगन्नाथ की चर्चा जब शाहजहाँ के कानों तक पहुँची तो जैसे उसके घमण्ड को चोट लगी।
“मुगलों के युग में एक तुच्छ ब्राह्मण अपराजेय हो, यह कैसे सम्भव है?”

शाह ने अपने दरबार के सबसे बड़े मौलवियों को बुलवाया और जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को शास्त्रार्थ में पराजित करने के आदेश के साथ महाराज चन्द्रदेव के राज्य में भेजा—
“जगन्नाथ को पराजित कर उसकी शिखा काट कर मेरे कदमों में डालो….”

शाहजहाँ का यह आदेश उन चालीस मौलवियों के कानों में स्थायी रूप से बस गया था।
सप्ताह भर पश्चात मौलवियों का दल महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में पण्डित जगन्नाथ को शास्त्रार्थ की चुनौती दे रहा था।

गोदावरी तट का ब्राह्मण और अरबी मौलवियों के साथ शास्त्रार्थ, पण्डित जगन्नाथ नें मुस्कुरा कर सहमति दे दी। मौलवी दल ने अब अपनी शर्त रखी-
“पराजित होने पर शिखा देनी होगी…”।

पण्डित की मुस्कराहट और बढ़ गयी-
“स्वीकार है, पर अब मेरी भी शर्त है। आप सब पराजित हुए तो मैं आपकी दाढ़ी उतरवा लूंगा ।”

मुगल दरबार में “जहाँ पेंड़ न खूंट वहाँ रेंड़ परधान” की भांति विद्वान कहलाने वाले मौलवी विजय निश्चित समझ रहे थे, सो उन्हें इस शर्त पर कोई आपत्ति नहीं हुई।

शास्त्रार्थ क्या था ; खेल था। अरबों के पास इतनी आध्यात्मिक पूँजी कहाँ जो वे भारत के समक्ष खड़े भी हो सकें। पण्डित जगन्नाथ विजयी हुए, मौलवी दल अपनी दाढ़ी दे कर दिल्ली वापस चला गया…

दो माह बाद महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में दिल्ली दरबार का प्रतिनिधिमंडल याचक बन कर खड़ा था- “महाराज से निवेदन है कि हम उनकी राज्य सभा के सबसे अनमोल रत्न पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को दिल्ली की राजसभा में सम्मानित करना चाहते हैं। यदि वे दिल्ली पर यह कृपा करते हैं तो हम सदैव आभारी रहेंगे”।

मुगल सल्तनत ने प्रथम बार किसी से याचना की थी। महाराज चन्द्रदेव अस्वीकार न कर सके। पण्डित जगन्नाथ शास्त्री दिल्ली के हुए। शाहजहाँ नें उन्हें नया नाम दिया “पण्डितराज” ।
दिल्ली में शाहजहाँ उनकी अद्भुत काव्यकला का दीवाना था, तो युवराज दारा शिकोह उनके दर्शन ज्ञान का भक्त ।
दारा शिकोह के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव पण्डितराज का ही रहा, और यही कारण था कि मुगल वंश का होने के बाद भी दारा मनुष्य बन गया।

मुगल दरबार में अब पण्डितराज के अलंकृत संस्कृत छंद गूंजने लगे थे। उनकी काव्यशक्ति विरोधियों के मुह से भी वाह-वाह की ध्वनि निकलवा लेती। यूँ ही एक दिन पण्डितराज के एक छंद से प्रभावित हो कर शाहजहाँ ने कहा-
“अहा! आज तो कुछ मांग ही लीजिये पंडितजी, आज आपको कुछ भी दे सकता हूँ।”

पण्डितराज ने आँख उठा कर देखा, दरबार के कोने में एक हाथ माथे पर और दूसरा हाथ कमर पर रखे खड़ी एक अद्भुत सुंदरी पण्डितराज को एकटक निहार रही थी। अद्भुत सौंदर्य, जैसे कालिदास की समस्त उपमाएं स्त्री रूप में खड़ी हो गयी हों।

पण्डितराज ने एक क्षण को उस रूपसी की आँखों मे देखा, मस्तक पर त्रिपुंड लगाए शिव की तरह विशाल काया वाला पण्डितराज उसकी आँख की पुतलियों में झलक रहा था।

पण्डित ने मौन के स्वरों से ही पूछा- “चलोगी ?”
लवंगी की पुतलियों ने उत्तर दिया- “अविश्वास न करो पण्डित! प्रेम किया है!”…

पण्डितराज जानते थे यह एक नर्तकी के गर्व से जन्मी शाहजहाँ की पुत्री ‘लवंगी’ थी।
एक क्षण को पण्डित ने कुछ सोचा, फिर ठसक के साथ मुस्कुरा कर कहा-

न याचे गजालिं न वा वाजिराजन्
न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदाचित्।
इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुम्भा,
लवंगी कुरंगी दृगंगी करोतु।।

एक ही क्षण में तलवारें निकल गयीं। क्योंकि आज तक के इतिहास में कभी मुगलों ने अपनी कन्या नहीं दी थी। परन्तु

शाहजहाँ मुस्कुरा उठा!
कहा-
“लवंगी तुम्हारी हुई पण्डितराज।”

यह भारतीय इतिहास की एकमात्र घटना है, जब किसी मुगल ने किसी हिन्दू को बेटी दी थी ।

लवंगी अब पण्डित राज की पत्नी थी।
युग बीत रहा था। पण्डितराज दारा शिकोह के गुरु और परम् मित्र के रूप में ख्यात थे। समय की अपनी गति है। शाहजहाँ के पराभव, औरंगजेब के उदय और दारा शिकोह की निर्मम हत्या के पश्चात पण्डितराज के लिए दिल्ली में कोई स्थान नहीं रहा।
पण्डित राज दिल्ली से बनारस आ गए, साथ थी उनकी प्रेयसी लवंगी।

बनारस तो बनारस है, वह अपने ही ताव के साथ जीता है। बनारस किसी को इतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर लेता। और यही कारण है कि बनारस आज भी बनारस है, नहीं तो अरब की तलवार जहाँ भी पहुँची वहाँ की सभ्यता-संस्कृति को खा गई। यूनान, मिश्र, फारस, इन्हें सौ वर्ष भी नहीं लगे समाप्त होने में, बनारस हजार वर्षों तक प्रहार सहने के बाद भी “ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा….” गा रहा है।

बनारस ने एक स्वर से पण्डितराज को अस्वीकार कर दिया। कहा-
“लवंगी आपके विद्वता को खा चुकी, आप सम्मान के योग्य नहीं।”

तब बनारस के विद्वानों में पण्डित अप्पय दीक्षित और पण्डित भट्टोजि दीक्षित का नाम सबसे प्रमुख था, पण्डितराज का विद्वत समाज से बहिष्कार इन्होंने ही कराया। पर पण्डितराज भी पण्डितराज थे, और लवंगी उनकी प्रेयसी। जब कोई कवि प्रेम करता है तो कमाल करता है।
पण्डितराज ने कहा-
“लवंगी के साथ रह कर ही बनारस की मेधा को अपनी सामर्थ्य दिखाऊंगा।”

पण्डितराज ने अपनी विद्वता दिखाई भी, पंडित भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित काव्य “प्रौढ़ मनोरमा” का खंडन करते हुए उन्होंने “प्रौढ़ मनोरमा कुचमर्दनम” नामक ग्रन्थ लिखा। बनारस में धूम मच गई, पर पण्डितराज को बनारस ने स्वीकार नहीं किया।

पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई, पण्डित अप्पय दीक्षित द्वारा रचित “चित्रमीमांसा” का खंडन करते हुए “चित्रमीमांसाखंडन” नामक ग्रन्थ रच डाला।
बनारस अब भी नहीं पिघला, बनारस के पंडितों ने अब भी स्वीकार नहीं किया पण्डितराज को।

पण्डितराज दुखी थे, बनारस का तिरस्कार उन्हें तोड़ रहा था।
आषाढ़ की सन्ध्या थी। गंगा तट पर बैठे उदास पण्डितराज ने अनायास ही लवंगी से कहा- गोदावरी चलोगी लवंगी? वह मेरी मिट्टी है, वह हमारा तिरस्कार नहीं करेगी।

लवंगी ने कुछ सोच कर कहा- गोदावरी ही क्यों, बनारस क्यों नहीं? स्वीकार तो बनारस से ही करवाइए पंडितजी।
पण्डितराज ने थके स्वर में कहा- “अब किससे कहूँ, सब कर के तो हार गया…”

लवंगी मुस्कुरा उठी, “जिससे कहना चाहिए उससे तो कहा ही नहीं। गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती। गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया।”

पण्डितराज की आँखें चमक उठीं। उन्होंने एकबार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था- “प्रेम किया है पण्डित! संग कैसे छोड़ दूंगी?”

पण्डितराज उसी क्षण चले, और काशी के विद्वत समाज को चुनौती दी-“आओ कल गंगा के तट पर, तल में बह रही गंगा को सबसे ऊँचे स्थान पर बुला कर न दिखाया, तो पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग अपनी शिखा काट कर उसी गंगा में प्रवाहित कर देगा……”

पल भर को हिल गया बनारस, पण्डितराज पर अविश्वास करना किसी के लिए सम्भव नहीं था। जिन्होंने पण्डितराज का तिरस्कार किया था, वे भी उनकी सामर्थ्य जानते थे।

अगले दिन बनारस का समस्त विद्वत समाज दशाश्वमेघ घाट पर एकत्र था।
पण्डितराज घाट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ गए, और #गंगालहरी का पाठ प्रारम्भ किया। लवंगी उनके निकट बैठी थी।

गंगा बावन सीढ़ी नीचे बह रही थीं। पण्डितराज ज्यों ज्यों श्लोक पढ़ते, गंगा एक एक सीढ़ी ऊपर आतीं। बनारस की विद्वता आँख फाड़े निहार रही थी।

गंगालहरी के इक्यावन श्लोक पूरे हुए, गंगा इक्यावन सीढ़ी चढ़ कर पण्डितराज के निकट आ गयी थीं। पण्डितराज ने पुनः देखा लवंगी की आँखों में, अबकी लवंगी बोल पड़ी- “क्यों अविश्वास करते हो पण्डित? प्रेम किया है तुमसे…”
पण्डितराज ने मुस्कुरा कर बावनवाँ श्लोक पढ़ा। गंगा ऊपरी सीढ़ी पर चढ़ीं और पण्डितराज-लवंगी को गोद में लिए उतर गईं।

बनारस स्तब्ध खड़ा था, पर गंगा ने पण्डितराज को स्वीकार कर लिया था।
तट पर खड़े पण्डित अप्पय जी दीक्षित ने मुंह में ही बुदबुदा कर कहा- “क्षमा करना मित्र, तुम्हें हृदय से लगा पाता तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझता, पर धर्म के लिए तुम्हारा बलिदान आवश्यक था। बनारस झुकने लगे तो सनातन नहीं बचेगा।”

युगों बीत गए। बनारस है, सनातन है, गंगा है, तो उसकी लहरों में पण्डितराज भी हैं।
साभार

सोमवार, 7 अगस्त 2023

sanskritpravah

।।श्रीहरिः।।

माहेश्वरसूत्रमें ईश्वरका रूप



 माहेश्वरसूत्र—अइउण्, ऋलृक्, एओङ्, ऐऔच्, हयवरट्, लण्, ञमङणनम्, झभञ्, घढधष्, जबगडदश्, खफछठथचटतव्, कपय्, शषसर्, हल् ।

          रुद्रके डमरूसे उत्पन्न माहेश्वरसूत्रोंसे सर्वप्रपञ्चका प्रादुर्भाव हुआ है । माहेश्वरसूत्रोंका रहस्य जाननेसे सर्वप्रपञ्चका रहस्य खुल जाता है । भाषाके स्वरोंका वास्तविक गूढ़ अर्थ नन्दिकेश्वरकी ‘काशिका’ में प्राप्य है । सङ्गीतके स्वरोंका और भाषाके स्वरोंका सम्बन्ध ‘रुद्रडमरूद्भवसूत्रविवरण’ में मिलता है । माहेश्वरसूत्रका प्रथम सूत्र ‘अ इ उ ण्’ है । प्रथम स्वर ‘अ’ कण्ठमें स्थित है, उसका उच्चारण बिना प्रयत्नके होता है । अकार सर्वस्वरोंका आधार एवं कारण है—

               अकारो वै सर्ववाक्

          ‘अ’ निर्गुण ब्रह्मका द्योतक है ।

अकारो ब्रह्मरूपः स्यान्निर्गुणः सर्ववस्तुषु ।
                         ( नन्दिकेश्वरः )

अक्षराणामकारोऽस्मि ( गीता )

          सङ्गीतमें ‘अ’ का रूप आधारभूत स्वर षड्‌ज है । इसके बिना किसी भी स्वरका अस्तित्व नहीं है । 

‘अ इ उ ण् सरिगाः स्मृताः ।’ ( रुद्रडमरू० २६ )

          दूसरे स्वर ‘इ’ का स्थान तालु है । प्राणके बाहर निकालनेकी प्रवृत्ति ‘इ’ शब्दका कारण है । ‘इ’ शक्ति या प्रवृत्ति आदिका द्योतक है । उसको ‘कामबीज’ भी कहते हैं—

इकारः सर्ववर्णानां शक्तित्वात्कारणं मतम् ।
                         ( नन्दिकेश्वरः ७ )

          शक्तिका द्योतक होनेसे ‘इ’ कार सर्व वर्णोंका कारण है । 

अकारो ज्ञप्तिमात्रं स्यादिकारश्चित्कला मता ।
                         ( नन्दिकेश्वरः ९ )

          अकार ज्ञानस्वरूप मात्र है, इकार ज्ञानसाधन चित् है ।

शक्तिं विना महेशानि प्रेतत्वं तस्य निश्चितम् ।
शक्तिसंयोगमात्रेण कर्मकर्ता सदाशिवः ॥

          शक्तिरूप इकारके बिना शिव ‘शव’ होता है । शक्ति-संयोगमात्रसे सदाशिव कर्म कर सकते हैं । 

          सङ्गीतमें ‘इ’ शिवका वाहन, वीर्य एवं शक्तिरूप ऋषभ होता है । उसके श्रवणसे वीर-रस उत्पन्न होता है; उसका भाव बलवान्, शक्तिमान् विदित होता है । 

          जब कण्ठ, जिह्वा आदि ‘इ’ कारके उच्चारणके लिये तैयार किये जायें और बिना किसी भी अंशके बदले ‘अ’ के उच्चारणका प्रयत्न होता है, तब फलरूप ‘उ’ कार निकलता है । ‘उ’ कार ‘इ’ से परिच्छिन्न ‘अ’ का स्वरूप है । उसका अर्थ होता है शक्तिपरिच्छिन्न ब्रह्म अर्थात् सगुण ब्रह्म । 

उकारो विष्णुरित्याहुर्व्यापकत्वान्महेश्वरः ।
                         ( नन्दिकेश्वरः ९ )

          उकार विष्णुनामक सर्वव्यापक ईश्वरका स्वरूप है । 

          सङ्गीतमें ‘उ’ कार गान्धार स्वर है ( आधुनिक सङ्गीतका कोमल गान्धार ) । वह शृंगार-रस एवं करुण-रसको उत्पन्न करता है । विष्णुदर्शनकी सुन्दरताका अनुभव गान्धार स्वरसे कहा जा सकता है । गान्धार वाक्‌का वाहन है, दिव्य गन्धोंसे भरा है ।

गां धारयति [ गां वाचं धारयति ] इति गान्धारः ॥
                              ( क्षीरस्वामी )

          वाक्‌का वाहन होनेसे गान्धार कहा जाता है । 

नानागन्धवहः पुण्यो गान्धारस्तेन हेतुना ॥
                              ( ना० शि० )

          शुद्ध होने एवं अनेक गन्धका वाहन होनेसे गान्धार कहा जाता है । 

तीन ग्राम

          तीन स्वर सर्व सङ्गीतके आधार होनेसे तीन ग्रामोंके आधारभूत स्वर माने जाते हैं—

स ग्रामस्त्विति विज्ञेयस्तस्य भेदास्त्रयः स्मृताः ।
ॱॱॱॱॱॱषड्‌ज‌ऋषभगान्धारास्त्रयाणां जन्महेतवः ॥
                   ( भरतमुनिप्रणीत गीतालंकार )

          तीन ग्राम हैं, जिनके आधार षड्‌ज, ऋषभ और गान्धार हैं । ऋषभ ग्राम अन्य दोनोंके बीचमें होनेसे ‘मध्यग्राम’ या ‘मध्यमग्राम’ कहा जाता है ।

ब्रह्म-मायास्वरूप ‘ऋलृक्’

          माहेश्वरसूत्रका दूसरा सूत्र नपुंसक स्वरोंका सूत्र है । उनकी प्रधानता नहीं होती । सङ्गीतमें दोनों स्वर ‘काकली’ एवं ‘अन्तर’ नामसे प्रसिद्ध हैं—

सप्तैव ते स्वराः प्रोक्तास्तेषु ऋ लृ नपुंसकौ ॥

          ‘ऋ’ मूर्धन्य स्वर है । इसका अर्थ ऋत अर्थात् परमेश्वर है । ‘ऋ परमेश्वरः इत्यत्र’—

ऋतं सत्यपरं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम्’ इति श्रुतिप्रमाणम् ।

‘तं तत्पदार्थं परं ब्रह्म ऋ सत्यमित्यर्थः ।’
                         ( अभिमन्यु-टीका ) 

          सङ्गीतमें ऋ अन्तर स्वर कहा जाता है, जो आधुनिक शुद्ध गान्धार है । उसका शान्त रस है । 

          ‘लृ’ दन्त्य स्वर है । यह परमेश्वरकी वृत्ति या शक्ति है । दाँत मायाके संकेत हैं—

दन्ताः सत्ताधरास्तत्र मायाचालक उच्यते ॥

          शक्तिमान् अपनी शक्तिसे अभिन्न होता है । जैसे चन्द्र चन्द्रिकासे या शब्द अर्थसे अभिन्न है, वैसे ही ऋ लृसे वास्तवमें अभिन्न है । 

वृत्तिवृत्तिमतोरत्र भेदलेशो न विद्यते ।
चन्द्रचन्द्रिकयोर्यद्वद्यथा वागर्थयोरपि ॥
                         ( नन्दिकेश्वरः ११ )

          सङ्गीतमें लृ ‘काली’ नामसे प्रसिद्ध है । वह आधुनिक शुद्ध निषाद है, जिसका भाव शृंगार है । अर्थात् वृत्तिरूप काम — सोऽकामयत ।

ज्ञान-विज्ञान ‘ए ओ ङ्’

          उच्चारणके केवल पाँच स्थान हैं, इसलिये शुद्ध स्वर केवल पाँच होते हैं । वैसे ही शैव सङ्गीतमें आधारभूत ग्राम पाँच स्वरोंके हैं । 

          अकार एवं इकारका मिला हुआ रूप एकार है । इकार अर्थात् शक्तिमें अकार अर्थात् ब्रह्मका प्रवेश एकारका अर्थ है । इसलिये एकार ज्ञानस्वरूप है अर्थात् परमतत्त्वकी प्राप्तिका द्योतक है । टीकाकार अभिमन्यु एकारको—

सम्प्रज्ञानस्वरूपः प्रज्ञानात्मा स्वयं प्रविश्य तद्रूपेण वर्त्तत इति ।

          —कहते हैं । 

          सङ्गीतमें एकार मध्यम स्वर कहा जाता है । उसका रस शान्त रस है । चन्द्रमा उसकी मूर्ति है । 

     ‘ए ओ ङ् मपौ’ ( रुद्रडमरू० २६ )

          अकार एवं उकारका मिला हुआ रूप ओकार है । अकार अर्थात् परब्रह्मका उकार अर्थात् उनसे उत्पन्न प्रपञ्चमें प्रवेश ‘ओ’ का स्वरूप है । 

     तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशदिति । 

          ‘अ’ निर्गुणरूप है और ‘उ’ सगुणरूप । सगुणमें निर्गुण ‘ओ’ का रहस्य है । अत‌एव ‘ओ’ कारसे प्रणव बनता है । निर्गुण-सगुणकी वास्तविक अद्वितीयताका द्योतक ओकार है । 

          सङ्गीतमें ‘ओ’ पञ्चम स्वर कहा जाता है । स्वर-क्रममें पाँचवाँ स्वर होनेसे एवं कारण-तत्त्व आकाशका द्योतक होनेसे पञ्चम स्वरका मूर्तरूप सूर्य है । पञ्चम स्वर सुननेसे सब जीव आनन्दपूर्ण हो जाते हैं । 

विश्वमें दिव्यरूप ( ऐ औ च् )

          ‘ए’ कारमें ‘अ’ कारका मिला हुआ रूप ‘ऐ’ कार है । ‘ओ’ कारमें ‘अ’ कारका मिला हुआ रूप ‘औ’ कार है । अतः ‘ए’ अर्थात् ज्ञानसे ‘अ’ अर्थात् परब्रह्मका सम्बन्ध ऐकार है, सङ्गीतमें ‘ऐ’ धैवत स्वर कहा जाता है । 

     ‘ध नि ऐ औच्’ ( रुद्रडमरू० ) 

          धैवत स्वरके दो रूप होते हैं । एक रूप शान्त पूर्ण मृदु रस और दूसरा रूप क्रियास्वरूप है । 

          ‘औ’ कार अर्थात् ‘ओ’ में ‘अ’ का मिला हुआ स्वरूप विश्वमें परमतत्त्वकी व्यापकताका द्योतक है । 

          सङ्गीतमें ‘औ’ कार निषाद नामसे प्रसिद्ध है । आधुनिक सङ्गीतका यह कोमल निषाद है, यह अन्तिम स्वर या स्वरोंकी पराकाष्ठा माना जाता है । 

निषीदन्ति स्वराः सर्वे निषादस्तेन कथ्यते ।
                              ( बृहद्देशी )

          जो उपनिषदोंका तत्त्व है, वही निषाद कहा जाता है । वासुदेव उसका नाम भी है । 

          इसी तरह व्याकरण एवं सङ्गीतके स्वरोंके अर्थका समन्वय होता है । अत्यन्त संक्षेपमें उसका रूप यहाँ बतलाया गया है । फिर स्वरोंके बाद व्यञ्जनों एवं श्रुतियोंके अर्थ भी मिलते हैं । लेख-विस्तारके भयसे इसका विस्तार यहाँ नहीं किया!!