सोमवार, 7 अगस्त 2023

sanskritpravah

।।श्रीहरिः।।

माहेश्वरसूत्रमें ईश्वरका रूप



 माहेश्वरसूत्र—अइउण्, ऋलृक्, एओङ्, ऐऔच्, हयवरट्, लण्, ञमङणनम्, झभञ्, घढधष्, जबगडदश्, खफछठथचटतव्, कपय्, शषसर्, हल् ।

          रुद्रके डमरूसे उत्पन्न माहेश्वरसूत्रोंसे सर्वप्रपञ्चका प्रादुर्भाव हुआ है । माहेश्वरसूत्रोंका रहस्य जाननेसे सर्वप्रपञ्चका रहस्य खुल जाता है । भाषाके स्वरोंका वास्तविक गूढ़ अर्थ नन्दिकेश्वरकी ‘काशिका’ में प्राप्य है । सङ्गीतके स्वरोंका और भाषाके स्वरोंका सम्बन्ध ‘रुद्रडमरूद्भवसूत्रविवरण’ में मिलता है । माहेश्वरसूत्रका प्रथम सूत्र ‘अ इ उ ण्’ है । प्रथम स्वर ‘अ’ कण्ठमें स्थित है, उसका उच्चारण बिना प्रयत्नके होता है । अकार सर्वस्वरोंका आधार एवं कारण है—

               अकारो वै सर्ववाक्

          ‘अ’ निर्गुण ब्रह्मका द्योतक है ।

अकारो ब्रह्मरूपः स्यान्निर्गुणः सर्ववस्तुषु ।
                         ( नन्दिकेश्वरः )

अक्षराणामकारोऽस्मि ( गीता )

          सङ्गीतमें ‘अ’ का रूप आधारभूत स्वर षड्‌ज है । इसके बिना किसी भी स्वरका अस्तित्व नहीं है । 

‘अ इ उ ण् सरिगाः स्मृताः ।’ ( रुद्रडमरू० २६ )

          दूसरे स्वर ‘इ’ का स्थान तालु है । प्राणके बाहर निकालनेकी प्रवृत्ति ‘इ’ शब्दका कारण है । ‘इ’ शक्ति या प्रवृत्ति आदिका द्योतक है । उसको ‘कामबीज’ भी कहते हैं—

इकारः सर्ववर्णानां शक्तित्वात्कारणं मतम् ।
                         ( नन्दिकेश्वरः ७ )

          शक्तिका द्योतक होनेसे ‘इ’ कार सर्व वर्णोंका कारण है । 

अकारो ज्ञप्तिमात्रं स्यादिकारश्चित्कला मता ।
                         ( नन्दिकेश्वरः ९ )

          अकार ज्ञानस्वरूप मात्र है, इकार ज्ञानसाधन चित् है ।

शक्तिं विना महेशानि प्रेतत्वं तस्य निश्चितम् ।
शक्तिसंयोगमात्रेण कर्मकर्ता सदाशिवः ॥

          शक्तिरूप इकारके बिना शिव ‘शव’ होता है । शक्ति-संयोगमात्रसे सदाशिव कर्म कर सकते हैं । 

          सङ्गीतमें ‘इ’ शिवका वाहन, वीर्य एवं शक्तिरूप ऋषभ होता है । उसके श्रवणसे वीर-रस उत्पन्न होता है; उसका भाव बलवान्, शक्तिमान् विदित होता है । 

          जब कण्ठ, जिह्वा आदि ‘इ’ कारके उच्चारणके लिये तैयार किये जायें और बिना किसी भी अंशके बदले ‘अ’ के उच्चारणका प्रयत्न होता है, तब फलरूप ‘उ’ कार निकलता है । ‘उ’ कार ‘इ’ से परिच्छिन्न ‘अ’ का स्वरूप है । उसका अर्थ होता है शक्तिपरिच्छिन्न ब्रह्म अर्थात् सगुण ब्रह्म । 

उकारो विष्णुरित्याहुर्व्यापकत्वान्महेश्वरः ।
                         ( नन्दिकेश्वरः ९ )

          उकार विष्णुनामक सर्वव्यापक ईश्वरका स्वरूप है । 

          सङ्गीतमें ‘उ’ कार गान्धार स्वर है ( आधुनिक सङ्गीतका कोमल गान्धार ) । वह शृंगार-रस एवं करुण-रसको उत्पन्न करता है । विष्णुदर्शनकी सुन्दरताका अनुभव गान्धार स्वरसे कहा जा सकता है । गान्धार वाक्‌का वाहन है, दिव्य गन्धोंसे भरा है ।

गां धारयति [ गां वाचं धारयति ] इति गान्धारः ॥
                              ( क्षीरस्वामी )

          वाक्‌का वाहन होनेसे गान्धार कहा जाता है । 

नानागन्धवहः पुण्यो गान्धारस्तेन हेतुना ॥
                              ( ना० शि० )

          शुद्ध होने एवं अनेक गन्धका वाहन होनेसे गान्धार कहा जाता है । 

तीन ग्राम

          तीन स्वर सर्व सङ्गीतके आधार होनेसे तीन ग्रामोंके आधारभूत स्वर माने जाते हैं—

स ग्रामस्त्विति विज्ञेयस्तस्य भेदास्त्रयः स्मृताः ।
ॱॱॱॱॱॱषड्‌ज‌ऋषभगान्धारास्त्रयाणां जन्महेतवः ॥
                   ( भरतमुनिप्रणीत गीतालंकार )

          तीन ग्राम हैं, जिनके आधार षड्‌ज, ऋषभ और गान्धार हैं । ऋषभ ग्राम अन्य दोनोंके बीचमें होनेसे ‘मध्यग्राम’ या ‘मध्यमग्राम’ कहा जाता है ।

ब्रह्म-मायास्वरूप ‘ऋलृक्’

          माहेश्वरसूत्रका दूसरा सूत्र नपुंसक स्वरोंका सूत्र है । उनकी प्रधानता नहीं होती । सङ्गीतमें दोनों स्वर ‘काकली’ एवं ‘अन्तर’ नामसे प्रसिद्ध हैं—

सप्तैव ते स्वराः प्रोक्तास्तेषु ऋ लृ नपुंसकौ ॥

          ‘ऋ’ मूर्धन्य स्वर है । इसका अर्थ ऋत अर्थात् परमेश्वर है । ‘ऋ परमेश्वरः इत्यत्र’—

ऋतं सत्यपरं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम्’ इति श्रुतिप्रमाणम् ।

‘तं तत्पदार्थं परं ब्रह्म ऋ सत्यमित्यर्थः ।’
                         ( अभिमन्यु-टीका ) 

          सङ्गीतमें ऋ अन्तर स्वर कहा जाता है, जो आधुनिक शुद्ध गान्धार है । उसका शान्त रस है । 

          ‘लृ’ दन्त्य स्वर है । यह परमेश्वरकी वृत्ति या शक्ति है । दाँत मायाके संकेत हैं—

दन्ताः सत्ताधरास्तत्र मायाचालक उच्यते ॥

          शक्तिमान् अपनी शक्तिसे अभिन्न होता है । जैसे चन्द्र चन्द्रिकासे या शब्द अर्थसे अभिन्न है, वैसे ही ऋ लृसे वास्तवमें अभिन्न है । 

वृत्तिवृत्तिमतोरत्र भेदलेशो न विद्यते ।
चन्द्रचन्द्रिकयोर्यद्वद्यथा वागर्थयोरपि ॥
                         ( नन्दिकेश्वरः ११ )

          सङ्गीतमें लृ ‘काली’ नामसे प्रसिद्ध है । वह आधुनिक शुद्ध निषाद है, जिसका भाव शृंगार है । अर्थात् वृत्तिरूप काम — सोऽकामयत ।

ज्ञान-विज्ञान ‘ए ओ ङ्’

          उच्चारणके केवल पाँच स्थान हैं, इसलिये शुद्ध स्वर केवल पाँच होते हैं । वैसे ही शैव सङ्गीतमें आधारभूत ग्राम पाँच स्वरोंके हैं । 

          अकार एवं इकारका मिला हुआ रूप एकार है । इकार अर्थात् शक्तिमें अकार अर्थात् ब्रह्मका प्रवेश एकारका अर्थ है । इसलिये एकार ज्ञानस्वरूप है अर्थात् परमतत्त्वकी प्राप्तिका द्योतक है । टीकाकार अभिमन्यु एकारको—

सम्प्रज्ञानस्वरूपः प्रज्ञानात्मा स्वयं प्रविश्य तद्रूपेण वर्त्तत इति ।

          —कहते हैं । 

          सङ्गीतमें एकार मध्यम स्वर कहा जाता है । उसका रस शान्त रस है । चन्द्रमा उसकी मूर्ति है । 

     ‘ए ओ ङ् मपौ’ ( रुद्रडमरू० २६ )

          अकार एवं उकारका मिला हुआ रूप ओकार है । अकार अर्थात् परब्रह्मका उकार अर्थात् उनसे उत्पन्न प्रपञ्चमें प्रवेश ‘ओ’ का स्वरूप है । 

     तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशदिति । 

          ‘अ’ निर्गुणरूप है और ‘उ’ सगुणरूप । सगुणमें निर्गुण ‘ओ’ का रहस्य है । अत‌एव ‘ओ’ कारसे प्रणव बनता है । निर्गुण-सगुणकी वास्तविक अद्वितीयताका द्योतक ओकार है । 

          सङ्गीतमें ‘ओ’ पञ्चम स्वर कहा जाता है । स्वर-क्रममें पाँचवाँ स्वर होनेसे एवं कारण-तत्त्व आकाशका द्योतक होनेसे पञ्चम स्वरका मूर्तरूप सूर्य है । पञ्चम स्वर सुननेसे सब जीव आनन्दपूर्ण हो जाते हैं । 

विश्वमें दिव्यरूप ( ऐ औ च् )

          ‘ए’ कारमें ‘अ’ कारका मिला हुआ रूप ‘ऐ’ कार है । ‘ओ’ कारमें ‘अ’ कारका मिला हुआ रूप ‘औ’ कार है । अतः ‘ए’ अर्थात् ज्ञानसे ‘अ’ अर्थात् परब्रह्मका सम्बन्ध ऐकार है, सङ्गीतमें ‘ऐ’ धैवत स्वर कहा जाता है । 

     ‘ध नि ऐ औच्’ ( रुद्रडमरू० ) 

          धैवत स्वरके दो रूप होते हैं । एक रूप शान्त पूर्ण मृदु रस और दूसरा रूप क्रियास्वरूप है । 

          ‘औ’ कार अर्थात् ‘ओ’ में ‘अ’ का मिला हुआ स्वरूप विश्वमें परमतत्त्वकी व्यापकताका द्योतक है । 

          सङ्गीतमें ‘औ’ कार निषाद नामसे प्रसिद्ध है । आधुनिक सङ्गीतका यह कोमल निषाद है, यह अन्तिम स्वर या स्वरोंकी पराकाष्ठा माना जाता है । 

निषीदन्ति स्वराः सर्वे निषादस्तेन कथ्यते ।
                              ( बृहद्देशी )

          जो उपनिषदोंका तत्त्व है, वही निषाद कहा जाता है । वासुदेव उसका नाम भी है । 

          इसी तरह व्याकरण एवं सङ्गीतके स्वरोंके अर्थका समन्वय होता है । अत्यन्त संक्षेपमें उसका रूप यहाँ बतलाया गया है । फिर स्वरोंके बाद व्यञ्जनों एवं श्रुतियोंके अर्थ भी मिलते हैं । लेख-विस्तारके भयसे इसका विस्तार यहाँ नहीं किया!!